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मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं कि राष्ट्रीय और सामाजिक हित के विषयों के लिए मीडिया की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। तमाम संवेदनशील मुद्दों पर जिस तरह की कवरेज तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया कर रहा है वह चिंता की बात है। भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की 23 अगस्त को होने वाली बैठक को लेकर कांग्रेसी नेताओं के
उल-जलूल बयानों को लगभग सभी चैनलों ने खूब तवज्जो दी। भारतीय मीडिया में चलने वाली ऐसी बातों को पाकिस्तान ने हाथों-हाथ लिया और ये साबित करने की कोशिश की कि पाकिस्तान पर भारत सरकार की नीति की कैसे भारी आलोचना हो रही है। क्या यह कहने की जरूरत है कि ऐसे मुद्दों पर देश को एकजुट दिखना चाहिए?
पाकिस्तान के साथ वार्ता रद्द होने से पहले भारतीय मीडिया की प्रतिक्रिया तो और भी ज्यादा चौंकाने वाली रही। बिना विदेश मंत्रालय का पक्ष जाने लगभग सभी टीवी चैनलों ने 21 अगस्त की शाम ये 'ब्रेकिंग न्यूज' चलानी शुरू कर दी कि भारत ने वार्ता रद्द कर दी है। पहले पीटीआई ने झूठी खबर चलाई और फिर खबरों की भेड़चाल में सभी आंख मूंदकर चल पड़े। बिना ये सोचे कि थोड़ी देर पहले ही खुद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने साफ-साफ कहा कि भारत अपनी तरफ से बातचीत रद्द नहीं करेगा। इतनी बड़ी चूक होती है और मीडिया में न तो किसी की जवाबदेही तय की जाती है और न ही किसी पर कोई कार्रवाई होती है। मीडिया के गैर-जिम्मेदारी भरे इस व्यवहार की कहानी यहीं नहीं खत्म होती है। 22 अगस्त की रात जब पाकिस्तानी सरकार ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को दिल्ली भेजने से मना कर दिया तब भी लगभग सभी समाचार चैनलों के संवाददाता न जाने क्यों ये कहने में हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे कि बातचीत पाकिस्तान ने रद्द की है। इसी क्रम में एक खबर इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपी कि कैसे भारत ने 150 पाकिस्तानी आतंकवादियों को चोरी-छिपे वापस भेज दिया। रपट में बताया गया कि ये बीते 8-10 वर्षों के आंकड़े हैं। लेकिन कुछ हिंदी अखबारों ने इस खबर को अनुवाद करके अपना ही एजेंडा घुसा दिया। नवभारत टाइम्स ने तो ऐसी शीर्षक लगाया ताकि पहली नजर में लगे कि मोदी सरकार ने चोरी-छिपे ऐसा कुछ किया है। अपने वामपंथी रुझान के लिए कुख्यात कई संपादकों और पत्रकारों ने इस गलत समाचार को सोशल मीडिया पर फैलाया और सरकार को बदनाम करने की पूरी कोशिश की।
अपनी झूठी या गलत खबरों पर माफी या खेद जताने का मीडिया का तरीका बेहद हास्यास्पद है। कुछ दिन पहले हिंदुस्तान टाइम्स ने खबर छापी कि कैसे राजस्थान में एनसीईआरटी की किताबों में आसाराम को महान संत के तौर पर पढ़ाया जा रहा है। सहज बुद्धि का प्रश्न ये है कि एनसीईआरटी की किताबें तो पूरे देश में एक जैसी होती हैं, फिर राजस्थान की किताबों में अलग से ये अध्याय कैसे जुड़ गया। सबने आंख मूंदकर ये मनगढ़ंत खबर चलाई। कुछ दिन बाद हिंदुस्तान टाइम्स ने एक छोटा सा खेद छाप दिया, बाकी चैनलों और अखबारों ने तो इसकी आवश्यकता भी नहीं समझी।
कुछ ऐसा ही मामला मुंबई की एक लड़की का भी है जिसने इसी वर्ष मई में आरोप लगाया था कि उसे मुसलमान होने की वजह से किराये पर घर नहीं मिला। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने घटना की जांच के आदेश दिए थे। जांच की रपट अभी आई है, जिसके अनुसार लड़की का प्रॉपर्टी डीलर से झगड़ा हुआ था और ये मजहब के आधार पर भेदभाव का मामला नहीं है। प्रश्न ये है कि मीडिया ने जिस समाचार को इतने जोर-शोर से दिखाया था, उसके गलत साबित होने पर चुप्पी क्यों साध ली गई? क्या पाठक या दर्शक को ये जानने का अधिकार नहीं है कि आगे क्या हुआ? दिल्ली में जसलीन कौर का मामला भी ऐसा ही है। एक लड़की ने दूसरे लड़के के साथ हुए एक मामूली झगड़े को तिल का ताड़ बना दिया और हर वे हथकंडे चलाने लगी जिससे वह मशहूर हो सके। 'टाइम्स नाऊ ' समेत सभी चैनलों ने उसे इसके लिए भरपूर मंच भी दिया। यहां तक कि आरोपी लड़के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया गया। बिना लड़के का पक्ष जाने उसे दोषी ठहरा दिया गया। वो भी तब जब मामला पुलिस में जा चुका था। मीडिया का एक तबका हर हाल में केंद्र की भाजपा सरकार को नाकाम साबित करने के अभियान में जुटा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और उसके बाद बंगलुरू के स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजों ने इस वर्ग को सदमा ही दे दिया। 'टाइम्स नाऊ ' ने तो खबर ही चला दी कि राजस्थान में कांग्रेस की भारी जीत हुई है।
'एक रैंक, एक पेंशन' पर लालकिले से प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद 'हेडलाइंस टुडे' चैनल ने फौरन घोषित कर दिया कि पूर्व सैनिकों में निराशा है। अपनी बात साबित करने के लिए उन्होंने जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे कुछ पूर्व सैनिकों से बात की, जबकि उसी कार्यक्रम में और देश के बाकी हिस्सों में रहने वाले ज्यादातर सेवानिवृत्त फौजियों को यह कहते दिखाया गया कि उन्हें प्रधानमंत्री पर भरोसा है और वो चाहते हैं कि एक रैंक, एक पेंशन पर जो भी काम हो वो पुख्ता हो। जैसे उन्होंने इतने साल इंतजार किया, वैसे कुछ महीने और सही। इसके बावजूद एंकर ने यही रट जारी रखी कि पूर्व सैनिकों में निराशा है। पूर्व सैनिकों में भ्रम फैलाने की कोशिशें सिर्फ यहीं तक नहीं हैं। 'सीएनएन-आईबीएन' ने तो यह तक कह दिया कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि ऐसा संभव ही नहीं है। जबकि ऐसी कोई बात कही ही नहीं गई थी। मीडिया अक्सर तरह की गलतियां करता है। एक तो वे जो अनजाने में भूलवश की गई होती हैं, दूसरी वो जो जानबूझ कर गलत नीयत से की जाती हैं। दोनों ही तरह की गलतियां अगर बढ़ रही हैं तो खुद मीडिया के लोगों को गंभीरता से लेना चाहिए। -नारद
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