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आज से करीब सौ साल पहले 1918 में महात्मा गांधी ने मद्रास (अब चेन्नै) में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना करके तथा अपने पुत्र देवदास गांधी को प्रथम प्रचारक के रूप में भेजकर दक्षिण में हिंदी प्रचार का श्रीगणेश किया। 'एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक हृदय हो भारत जननी' यही सभा का मूल-मन्त्र है। देखते-देखते दक्षिण के चारों प्रान्तों में सभा की शाखाएं स्थापित हुईं और सैकड़ों की संख्या में हिन्दी प्रचारक गांव-गांव में हिन्दी का मशाल लेकर पहुंच गए। स्वतन्त्रता पूर्व के समय में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की प्रेरणा से लोग हिंदी सीखते थे। स्कूल कॉलेजों में हिन्दी की पढ़ाई शुरू हुई और 1960 तक दक्षिण के विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर तक हिन्दी शिक्षण की व्यवस्था हुई। आजादी के तुरंत बाद लोहा गरम था, जनमानस हिन्दी के लिए तैयार था। उस समय हम चूक गए। हिन्दी के प्रति उदासीनता के साथ शिक्षा को राज्य का विषय बनाया गया। इधर भाषावार राज्यों के गठन के बाद राज्य सरकारें, स्थानीय साहित्यकार और बुद्घिजीवी अपनी-अपनी राज्यभाषाओं को प्राथमिकता देने में लग गए और एक समग्र राष्ट्र की भावना का हृास होता गया। प्रांतीय भाषाएं भी राष्ट्रभाषा बनने का दावा करने लगीं। तत्कालीन शासकों ने ऐसी मान्यता भी प्रदान कर दी। सचाई यह है कि भारत के संविधान में हिन्दी को राजभाषा कहा गया है, राष्ट्रभाषा नहीं। अपनी शक्ति, क्षमता,्र ऊर्जा और प्रभविष्णुता के बलबूते हिंदी आज भी संपर्क भाषा की भूमिका निभा रही है, यह अलग बात है। हिंदी के प्रयोग को विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ाने के लिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा संस्थान ने एम.ए. के पाठ्यक्रम में प्रयोजनमूलक हिन्दी को शामिल किया था, यह लगभग पचास वर्ष पहले की बात है जबकि हिंदी प्रदेश के विश्वविद्यालयों में ऐसी चेतना का विकास नहीं हुआ था। इसके अंतर्गत अनुवाद, पत्रकारिता, तुलनात्मक एवं व्यतिरेकी भाषावैज्ञानिक अध्ययन से वैज्ञानिक आधार पर पाठ्य-सामग्री निर्माण का कार्य शुरू हो गया। किन्तु ऐसी संस्थाएं आगे नहीं आईं जो इन प्रशिक्षित लोगों को उन-उन क्षेत्रों में नियोजित करे। स्वतंत्रता के बाद तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ इन भाषाओं के साथ हिन्दी में पर्याप्त योग्यता रखने वाले युवकों को यात्रा, पर्यटन, अनुवाद के माध्यम से सांस्कृतिक समन्वय के कायोंर् में लगाने के लिए कोई योजना सम्मिलित रूप से हाथ में नहीं ली गई। इस कार्य को केद्र और राज्य सरकारों को सम्मिलित रूप से करना चाहिए था। इन योजनाओं से युवकों को रोजगार मिलने के साथ देश के आंतरिक पर्यटन का संवर्धन हो सकता है। जिस तरह रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिकों के युग में तथा दूरदर्शन में हिन्दी में क्रिकेट कमेंट्री की शुरुआत के युग में हिन्दी के प्रति फिर से उत्साह बढ़ा था, तब भी अवसर का उपयोग नहीं
किया गया।
अब आवश्यकता इस बात की है कि दक्षिण के चारों राज्यों में हिन्दी सेवा पर आधारित पदों का सृजन किया जाय, प्रमुख नगरों में स्थानीय हिन्दी स्नातकों, और सभा के प्रचारकों को यात्रा, पर्यटन, पुरातत्व, इतिहास, अनुवाद, आशु अनुवाद आदि में अल्पकालीन प्रशिक्षण देकर उन्हें रेलवे स्टेशनों, होटलों, पर्यटन केन्द्रों, संग्रहालय और पुरातत्व स्थलों में हिंदी समन्वयक के रूप में नियुक्त करें। ये युवक सांस्कृतिक दूत के रूप में देश के अंदर भावात्मक एकता को बढ़ावा दे सकते हैं। वर्तमान समय में दक्षिण की ओर आने वाले हिन्दी भाषी ही नहीं, उडि़या, गुजराती, पंजाबी आदि देश के इतर भागों के लोग भाषा की समस्या के कारण दक्षिण भारत के दर्शनीय स्थलों की विशेषताओं का पूरा लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। जबकि इससे पर्यटन ही नहीं, व्यापार वाणिज्य और उद्योग के क्षेत्र में भी आदान-प्रदान संभव होगा।
इसका दोहरा लाभ यह होगा कि राज्य सरकारें विभिन्न क्षेत्रों में अपनी-अपनी भाषाओं का प्रयोग बढ़ाना चाहती हैं, ये सांस्कृतिक दूत हिन्दी के साथ अपनी मातृभाषाओं का प्रयोग भी बढ़ा सकते हैं। मानव संसाधन प्रस्तुत है, प्रशिक्षण और नियोजन मात्र आवश्यक है। ल्ल
हिन्दी हो सरल, सुलभ
हिन्दी संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी पहुंच जाएगी और हर बार होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन भी होते रहेंगे, लेकिन सरकारी फाइलें आज भी इस देश के कार्यालयों में अंग्रेजी में जा रही हैं, यह बड़ी चिंता का विषय है। हिन्दी वालों का ही यह गुनाह है जो हिन्दी को हिन्दी नहीं रहने दे रहे हैं, इस भाषा का संस्कृतकरण कर रहे हैं। लंबे समय तक असली भाषा चलती है जो बोलचाल की हो। संस्कृत की अपनी समृद्ध विरासत है उसे स्वतंत्र रखिए, हिन्दी को न संस्कृत के जटिल शब्दों की जरूरत है न हिंग्लिश की जरूरत है, डोगरी में जब मैं कविता लिखती हूं तो सीमित पाठक उसे पढ़ते हैं लेकिन हिन्दी में जब उसका अनुवाद होता है तो ज्यादा पाठक पढ़ते हैं, यही हिन्दी की असली ताकत है। – एच़ बालसुब्रह्मण्यम
—पद्मा सचदेव
सुप्रसिद्ध डोगरी एवं हिन्दी लेखिका
हिन्दी बढ़ रही है, थोड़ी और कोशिश हो
विश्व मंच पर हिन्दी के काबिज होने की बात करते हैं तो हम भूल जाते हैं कि भारत में ही यह पराई है। पहले भारत में इसे सबकी भाषा बनना होगा तभी यह विश्व मंच पर स्थान बना सकती है। आज के समय में लोग हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी बोलने वाले को ज्यादा पसंद करते हैं। यहां तक उसे कई मौके पर महत्ता भी अधिक दी जाती है। यह आज का सच है। हम जब भी अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के मध्य होते हैं तो हिन्दी बोलने वाले को पिछड़ा हुआ समझा जाता है। असल में आज की युवा पीढ़ी हिन्दी से दूर हो गई है और जब भारत ही हिन्दी से दूर है तो विश्व मंच पर कैसे स्थापित हो, यह सोचना चाहिए। सबसे पहले भारत को हिन्दी को आत्मसात करना होगा। मेरा मानना है कि आज सोशल मीडिया, टी.वी. चैनलों और समाचार पत्रों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार हुआ है। सही मायने में हिन्दी फॉन्ट का प्रचार हुआ है लेकिन बात इसमें अंग्रेजी की होती है। हिन्दी को तोड़ा-मरोड़ा जाता है। तो फिर हिन्दी का दबदबा कहां हुआ?
-संजय बनर्जी
आल इंडिया रेडियो में कबड्डी और टेनिस के ख्यातिप्राप्त कमेन्टेटर
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