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पोप फ्रांसिस ने पिछले दिनों बोलिविया में अपने प्रवास के दौरान उपनिवेशकाल में लातिनी अमरीका में हुए अत्याचारों में रोमन कैथोलिक चर्च की भूमिका के लिए माफी मांगी। उन्होंने कहा, 'कुछ लोगों की यह बात सही है कि पोप जब उपनिवेशवाद की बात करते हैं तो चर्च की करतूतों को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन मैं बहुत खेदपूर्वक आपसे कह रहा हूं कि ईश्वर के नाम पर अमरीका के स्थानीय लोगों के खिलाफ कई गंभीर पाप किए गए। मैं विनम्रतापूर्वक माफी मांगता हूं, केवल चर्च द्वारा किए गए अपराधों के लिए ही नहीं वरन् अमरीका की कथित विजय के दौरान स्थानीय लोगों के खिलाफ किए गए अपराधों के लिए भी।' बेशक पोप की माफी देर-सबेर ही सही, अपने अपराधों का एहसास करने की दिशा में एक अच्छा कदम है। लेकिन लातिनी अमरीका के लोगों को यह माफी सुनकर कुछ ऐसा ही लगा होगा जैसा गालिब ने अपने शेर में फरमाया है-
की मेरे कत्ल के बाद जफा से तौबा
हाय! उस जूद-पशेमां को पशीमां होना
आज जिस ईसाइयत को प्रेम और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में दुनिया के सामने पेश किया जाता है उस ईसाइयत की असलियत कुछ और ही है। इतिहास गवाह है कि ईसाइयत उस साम्राज्यवाद की भुजा थी जिसने दुनियाभर में जिस तरह नरसंहार, दूसरे मतों और संस्कृतियों पर हमले किए उसकी दूसरी कोई मिसाल इतिहास में नहीं मिलती। हम भारतीयों के बीच अक्सर इस्लाम के जुल्म और अत्याचारों की चर्चा होती है, लेकिन ईसाइयत का इतिहास और भी ज्यादा काला, भीषण और विकराल है। मुसलमानों का साम्राज्यवाद केवल तीन उपमहाद्वीपों एशिया, यूरोप और अफ्रीका में रहा मगर ईसाइयों का साम्राज्यवाद पांच महाद्वीपों में रहा। इसलिए उनके केवल लातिनी अमरीका से माफी मांगने से काम नहीं चलने वाला, उन्हें पांचों महाद्वीपों से अलग-अलग माफी मांगनी होगी। तभी उनके घावों पर मरहम लग सकता है।
ईसाइयत के इतिहास पर सरसरी नजर डालें तो यह देखना दिलचस्प होगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने कैसा बर्ताव किया, क्योंकि ईसा यहूदी थे। ईसा ने कभी कहा था कि मुक्ति यहूदियों को ही मिलेगी, मेरा उपदेश यहूदियों के लिए ही है। मगर जब यहूदियों ने उन्हें मसीहा नहीं माना तो वही सबसे बड़े दुश्मन बन गए। उनका तिरस्कार और उत्पीड़न शुरू हुआ। ईसा को मसीहा मानने वाले ईसाइयों ने यहूदियों से प्रचंड घृणा पाल ली और उनका नरसंहार किया। ईसा ने यहूदियों का मुक्तिदूत होने का दावा किया। पर वे मृत्युदूत और यातनादूत बनकर रह गए। सारे यूरोप में ईसाइयत के फैलने के साथ यहूदी विरोध भी फैला। ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि ईसाइयत के शुरुआती दिनों से ही उसमें यहूदी विरोधी भावना थी जो आने वाली शताब्दियों में और बलवती हो गई। ईसाइयों द्वारा की गई यहूदियों के खिलाफ हिंसा और हत्याओं ने आखिरकार नरसंहार का रूप लिया। हिटलर ने तो लाखों यहूदियों का नरसंहार किया। 'जीसस क्राइस्ट: एन आर्टीफाइस फॉर एग्रेशन' के लेखक सीताराम गोयल यहूदियों के नरसंहार को सीधे ईसा से प्रेरित बताते हैं। वे लिखते हैं-'गोस्पल के ईसा ने यहूदियों की सांप, सांपों का बिल, शैतान की औलाद, मसीहाओं के हत्यारे कहकर निंदा की क्योंकि उन्होंने ईसा को मसीहा मानने से इंकार कर दिया था। बाद की ईसाई पांथिक किताबों ने उनको ईसा के हत्यारे के तौर पर स्थायी अपराध भाव से भर दिया। यहूदियों को सारे यूरोप में सदियों तक गैर नागरिक बना दिया गया। उनको लगातार हत्याकांड का शिकार बनाया गया। लेकिन हिटलर के उदय से पहले कोई गोस्पल के संदेश को इतने सुव्यवस्थित तरीके से लागू नहीं कर पाया। न फाइनल सोल्यूशन का ब्लू प्रिंट बना पाया। संक्षेप में हिटलर के अलावा कोई भी गोस्पल के जीसस द्वारा यहूदियों के बारे में दिए गए फैसले को समझ नहीं पाया। आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों के गंभीर चिंतक गोस्पल को पहला यहूदी विरोधी मेनीफैस्टो मानते हैं।'
फ्रांसीसी लेखक और दार्शनिक वाल्टेयर ने ईसाइयत के इतिहास और चरित्र का अध्ययन करने के बाद टिप्पणी की थी-'ईसाइयत दुनिया पर थोपा गया सबसे हास्यास्पद, सबसे ज्यादा एब्सर्ड और रक्तरंजित मत है। हर सम्माननीय व्यक्ति, हर संवेदनशील व्यक्ति को ईसाई पंथ से डरना चाहिए।' उनकी यह बात सोलह आने खरी है। ईसाइयत का सारा इतिहास रक्तरंजित दास्तान रहा है। सबसे पहला देश, जहां ईसाई पंथ राज-पंथ बना वह था रोम। ईसाइयों का स्वभाव रहा है, जैसे ही पर्याप्त शक्ति संग्रहीत होती है वे भयंकर यातनाओं में और तेजी ले आते हैं। उन्होंने बहुदेववादियों का उत्पीड़न शुरू किया। उन यहूदियों का उत्पीड़न किया जिनसे ईसाइयत उपजी। इसके अलावा उन्होंने अपने संप्रदाय से अलग संप्रदाय के ईसाइयों का भी नृशंस दमन किया। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों के सारे उपासना स्थल नष्ट कर दिए। बाद में ईसाइयत यूनान भी पहुंची। किसी जमाने में यूनान पश्चिमी सभ्यता का सिरमौर हुआ करता था, लेकिन ईसाइयों का वर्चस्व बढ़ने के साथ उसका यह सम्मान जाता रहा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था-'प्राचीन यूनान ईसाइयों से बहुत पहले पश्चिमी सभ्यता का पहला शिक्षक था। मगर जबसे वह ईसाइ बना उसकी सारी मनीषा और संस्कृति नष्ट हो गई।' कुछ ऐसी ही बात महर्षि अरविंद ने भी कही थी-'यूनानियों के पास ईसाइयों से ज्यादा प्रकाश था। ईसाई तो प्रकाश के बजाय अंधेरा लाए।'
आक्रामक पंथों के साथ हमेशा ऐसा ही होता है। भारत में जिस प्रकार मंदिरों में अनेक देव मूर्तियां साथ-साथ होती हैं। उसी तरह ग्रीक देवी-देवताओं की मूर्तियां भी वहां के मंदिरों में साथ-साथ होती थीं। उसी तरह पैगन मंदिरों में और वेदियों में विविध देवमूर्तियां साथ-साथ होती थीं। न तो देवताओं में ईर्ष्या और नफरत भरी प्रतिस्पर्धा थी, न पुजारियों के बीच। लेकिन नए पंथ की सोच में ही कुछ गड़बड़ी थी। इसलिए यूरोप में ईसाइयत का इतिहास विध्वंस गाथाओं से भरा रहा। ईसाइयत ने किस तरह यूरोप पर कब्जा किया, अनेक समाजों और संस्कृतियों के मठ-मंदिरों को नष्ट किया, विचार स्वातंत्र्य को खत्म किया इसका इतिहास रक्तरंजित और रोंगटे खडे़ कर देने वाला है। ईसाई संतों ने इसमें सबसे दुष्टतापूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे क्रूर लोगों को वहां 'संत' कहा गया। संत मारियस ने गाउल में अनेक प्रतिमाएं जलाईं। एमिन्स के संत फरमिनस ने जहां भी मूर्तियां पाईं उन्हें नष्ट किया। संत कोलंबस और संत गाल ने सारे यूरोप महाद्वीप में हजारों मंदिरों, मठों और वहां स्थापित मूर्तियों को नष्ट किया, मंदिरों से जुड़े बगीचों को उजाड़ डाला। जर्मनी में तो उन्होंने भीषण तबाही मचाई। संत ऑगस्टीन ने इंग्लैंड में यही किया।
बहुदेवपूजकों के परशिया और बाल्टिक क्षेत्रों को तेरहवीं सदी में जबरन ईसाई बनाया गया। पचास साल तक चले भीषण रक्तपात और युद्ध के बाद परशिया ने समर्पण कर दिया। समर्पण की शर्त थी कि सभी नागरिक एक माह के भीतर बप्तिस्मा कराकर ईसाई बन जाएं। जो ऐसा करने से इंकार करें उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाए। जो पुरानी पैगन पद्धति जारी रखने का आग्रह करें उन्हें गुलाम बना लिया जाए।
ईसाइयों में शुरू से ही प्रवृत्ति रही है कि एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय वाले की जान ले लेता है। दरअसल एक संप्रदाय का ईसाई दूसरे संप्रदाय में जाना पाप ही मानता था। उसे राज्य के विरुद्ध अपराध भी घोषित कर दिया जाता था। एक संप्रदाय के राजा कानून बनाकर भिन्न ईसाई संप्रदायों पर पाबंदी तक लगाते थे। राजा थिओडोसियस के समय तक ऐसे 100 कानून थे। तब भी उसने नए कानून बनाए। उनकी संहिता में लिखा था-हमारा आदेश है कि हमारे प्रशासन के अधीन सभी लोग केवल उस ईसाई संप्रदाय के प्रति आस्था रखेंगे जो दिव्य पीटर ने रोम वालों को सौंपा है।…जो अभिशप्त हैं, बीमार हैं केवल वे ही अलग ईसाई संप्रदाय के प्रति निष्ठा जारी रखेंगे। उन्हें पहले दैवीय अभिशाप नष्ट करेगा, साथ ही शासन भी उनका दमन करेगा। असल में यूरोप में पहले पैगन वंश के लोगों का समूल नाश किया गया। फिर अन्य ईसाई संप्रदायों के ईसाइयों को ढूंढकर जलाया गया। लाखों अन्य संप्रदायों के ईसाई सार्वजनिक उत्सवों के दौरान जलाए गए। उन्मत्त ईसाइयों ने समाजों, संस्कृतियों और कौमों का उत्पीड़न किया। इस तरह ईसाइयत ने यूरोप को अपने अधीन किया। पोप ग्रेगरी ने इंग्लैंड के बिशप ऑगस्टीन को सलाह दी कि जो भव्य मंदिर हों उनको नष्ट न कर उन पर कब्जा करें, वहां की मूर्तियां हटा दी जाएं और वहां 'सच्चे ईश्वर' की पूजा की जाए।
फिर यूरोप के ईसाइयों ने बाकी महाद्वीपों में जाकर यही इतिहास दोहराया। उन्होंने अमरीका और आस्ट्रेलिया जाकर वहां के स्थानीय निवासियों को असभ्य करार देकर उनका नरसंहार किया और उनकी जमीन आदि पर कब्जा कर लिया। बेनेडिक्ट चर्च के पादरी कोलंबस के पीछे अमरीका पहुंचे। उन्होंने केवल हैती में ही पौने दो लाख मूर्तियों को नष्ट कर दिया, जिनकी वहां के स्थानीय लोग पूजा करते थे। मैक्सिको के पहले पादरी जुआन द जुमरगा ने 1531 में दावा किया था कि उसने 500 से ज्यादा मंदिर नष्ट किए और 20000 से ज्यादा मूर्तियां तोड़कर मिट्टी में मिला दीं। एक मिशनरी ने बहुत गर्व से लिखा-'उस रात खाना चार फीट ऊंची लकड़ी की मूर्ति को जलाऊ लकड़ी की तरह प्रयोग कर तैयार किया गया था और वहां स्थानीय लोग खड़े देखते रहे।'
गांधीवादी चिंतक और इतिहासकार धर्मपाल के शब्दों में कहा जाए तो-'उनकी नजर में विजित को आखिरकार खत्म होना था। भौतिक रूप से न सही मगर संस्कृति और सभ्यता के रूप में आस्टे्रलिया और न्यूजीलैंड के स्थानीय निवासी जल्दी ही नेस्तोनाबूद हो गए थे। उत्तरी अमरीका में उनके पूर्ण उन्मूलन में 300-400 साल लगे। 1492 में अमरीका के स्थानीय लोगों की आबादी 11़ 2 करोड़ से 14 करोड़ के बीच थी।' अफ्रीकी महाद्वीप इस्लाम और ईसाइयत जैसे विस्तारवादी और घोर असहिष्णु मतों के हमलों को झेल रहा है जिन्होंने उसे सदियों से दबोच रखा है। इससे उनकी प्राचीन संस्कृति लगभग खत्म होती जा रही है। दोनों के बीच स्थानीय लोगों को मतांतरित करने की होड़ चल रही है। हाल ही में यह हमला और तेज हुआ है और अफ्रीकी अपने युगों पुराने मतों को खोने की कगार पर हैं। प्राच्य विद्या विशारद कोनरॉड एल्स्ट के मुताबिक अफ्रीका में 1900 में 50 प्रतिशत लोग पैगन मतों को मानते थे। अब ईसाई और मुस्लिम मिशनरियों ने उनकी संख्या को 10 प्रतिशत से कम पर पहुंचा दिया है।
यह एक नए तरह का उत्पीड़न था। विचारों और संप्रदाय के आधार पर उत्पीड़न। 'हिस्ट्री ऑफ यूरोपियन मोरल्स' के लेखक डब्लू. ई. एच. लेकी ने इस भेद का वर्णन इस तरह किया है-'यह नया उत्पीड़न अधिक लंबे समय तक टिकने वाला व्यवस्थित, अविचलित और अडिग था। लोगों को भीषण यंत्रणा देकर भी थमता नहीं था, न पीछे हटता था। इसे उत्पीड़कों ने अपना अधिकार तो माना ही, अपना कर्तव्य भी माना। ईसाई मत की पांथिक पुस्तकों में ऐसे उत्पीड़न की भरपूर वकालत की गई है।'
ईसाइयत के प्रसार ने न केवल संस्कृतियों का विनाश किया वरन् यूरोप, अमरीका, एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के लाखों लोगों की हत्या हुई। फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्टेयर के शब्दों में कहें तो, ईसाइयत ने काल्पनिक सत्य के लिए धरती को रक्त से नहला दिया। अठारहवीं सदी की कई प्रतिभाएं ईसाइयत के इस इतिहास से परिचित थीं। लेकिन बाद में इस बारे में चेतना घटती गई, जबकि कई अध्ययनों से इस बारे में हमारी जानकारी में इजाफा हुआ है। पश्चिमी देश सेकुलर होने के बावजूद अपने को ईसाई मानते हैं। इसलिए सार्वजनिक जीवन और शिक्षा व्यवस्था के जरिये सदियों तक ईसा के नाम पर मानवता के खिलाफ हुए अपराधों को छिपाते रहे। भारत में तो इस काले अध्याय को पूरी तरह से पोंछ दिया गया है, उस पर कभी चर्चा नहीं की जाती। ईसाइयत को प्रेम और सेवा के मत के रूप में प्रचारित किया जाता है। लेकिन उसमें इस बात की चर्चा नहीं की जाती कि इसके लिए कितने लोगों की बलि चढ़ाई गई। जैसा स्वामी विवेकानंद ने कहा था-'तमाम डींगों के बावजूद आपकी ईसाइयत तलवार के बिना कहां सफल हुई? मुझे दुनिया का एक ऐसा देश बताइए। मैं कह रहा हूं, पूरी ईसाइयत के इतिहास में एक मिसाल बताइये, मैं दो नहीं चाहता। मुझे पता है आपके पूर्वज कैसे कन्वर्ट हुए। उनके सामने दो ही विकल्प थे, मत बदलें या मारे जाएं। ये डींगंे मारकर आप मुसलमानों से बेहतर क्या कर सकते हैं? आप शायद यह कहना चाहते हैं कि हम अपनी तरह के अकेले हैं क्योंकि हम दूसरों को मार डालते हैं?'
भारत भी ईसाइयों की विनाशलीला का शिकार हुआ है। पुर्तगालियों की हिंसा जगजाहिर थी तो अंग्रेजों की हिंसा सूक्ष्म थी, चुपचाप जड़ें खोदने वाली थी। एक ईसाई इतिहासकार ने बताया है कि पुर्तगालियों ने अपने कब्जे के भारत में क्या किया। टी.आर. डिसूजा के मुताबिक, 1540 के बाद गोवा में सभी हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को तोड़ दिया गया था या गायब कर दिया गया था। सभी मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे और उनकी जमीन और निर्माण सामग्रियों को नए चर्च या चैपल बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया था। कई शासकीय और चर्च के आदेशों में हिन्दू पुरोहितों के पुर्तगाली क्षेत्र में आने पर रोक लगा दी गई थी। विवाह सहित सभी हिन्दू कर्मकांडों पर पाबंदी थी। हिन्दुओं के अनाथ बच्चों को पालने का दायित्व राज्य ने अपने ऊपर ले लिया था ताकि उनकी परवरिश एक ईसाई की तरह की जा सके। कई तरह के रोजगारों में हिन्दुओं पर पाबंदी लगा दी गई थी। जबकि ईसाइयों को नौैकरियों मे प्राथमिकता दी जाती थी। राज्य द्वारा यह सुनिश्चित किया गया था कि जो ईसाई बने हैं उन्हें कोई परेशान न करे। दूसरी तरफ हिन्दुओं को चर्च में उनके धर्म की आलोचना करने वाले वक्तव्य सुनने के लिए आना पड़ता था। ईसाई मिशनरियां गोवा में सामूहिक कन्वर्जन करती थीं। इसके लिए सेंट पाल के कन्वर्जन भोज का आयोजन किया जाता था। उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने के लिए जेसुइट हिन्दू बस्तियों में अपने नीग्रो गुलामों के साथ जाते थे। इन नीग्रो लोगों का इस्तेमाल हिन्दुओं को पकड़ने के लिए किया जाता था। ये नीग्रो भागते हिन्दुओं को पकड़कर उनके मुंह पर गाय का मांस छुआ देते थे। इससे वे हिन्दू लोगों के बीच अछूत बन जाते थे। तब उनके पास ईसाई मत में कन्वर्ट होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता था। इतिहासकार ईश्वर शरण ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है-'संत जेवियर के सामने औरंगजेब का मंदिर विध्वंस और रक्तपात कुछ भी नहीं था। अंग्रेज शासन के बारे में नोबल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल की यह टिप्पणी ही काफी है-'इस देश में इस्लामी शासन उतना ही विनाशकारी था जितना उसके बाद आया ईसाई शासन। ईसाइयों ने एक सबसे समृद्ध देश में बड़े पैमाने पर गरीबी पैदा की। मुस्लिमों ने दुनिया की सबसे सृजनात्मक संस्कृति को एक आतंकित सभ्यता बना दिया।'
पोप ने अब माफी मांगनी शुरू की है तो केवल लातिनी अमरीका से माफी मांगने भर से काम नहीं चलेगा। उन्हें कई देशों, समाजों, कई मतों और स्वयं ईसाइयत के विभिन्न संप्रदायों से माफी मांगनी पड़ेगी। उन्हें यहूदियों, बहुदेववादियों, अन्य संप्रदाय के ईसाइयों और हिन्दुओं से माफी मांगनी होगी। उन्हें माफी मांगनी पड़ेगी उन लाखों महिलाओं से जिन्हें यूरोप में चुडै़ल कहकर जला दिया गया। उन्हें माफी मांगनी होगी उन लाखों ईसाइयों से जिन्हें मत से विरत होने के कारण यातनाघरों में यातनाएं दी गईं। गैलीलियो जैसे वैज्ञानिकों से प्रताडि़त किए जाने के लिए माफी मांगनी होगी। पोप माफी मांग भी लेंगे, लेकिन क्या ये प्रताडि़त लोग उनकी माफी कबूल करेंगे?
आखिर माफी मांगने से इतिहास तो नहीं बदलता। समय के चक्र को पीछे नहीं चलाया जा सकता। फिर माफी मांगना नाटक और ईसाइयत की छवि सुधारने की कोशिश के अलावा और क्या है? असली माफी तो तब होगी जब ईसाइयत अपना असहिष्णु और विस्तारवादी चरित्र बदले। शायद यह कर पाना पोप के वश की बात नहीं। पोप फ्रांसिस भले कितने ही प्रगतिशील होने का दावा क्यों न करें, ईसाइयत के मूल चरित्र को वे कैसे बदल पाएंगे? कहते हैं, रस्सी जल जाती है पर ऐंठन नहीं जाती। इस्लाम और ईसाइयत दोनों ही असहिष्णुता रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। उनकी असहिष्णुता को देखकर कई बार लगता है महात्मा गांधी द्वारा बार-बार प्रचारित की जाने वाली यह बात सबसे खतरनाक थी कि सभी मत समान हैं या एक है। कैनबरा में जन्मे हिन्दू स्वामी अक्षरानंद के शब्दों में कहा जाए तो, 'यह बहुत मूर्खतापूर्ण और खतरनाक बात प्रचारित की जा रही है कि सभी मत समान या एक ही हैं। हम हिन्दू, ईसा और अल्लाह दोनों की शक्तियों से प्रताडि़त हैं। हिन्दू और अन्य मतों को समान और एक नहीं मान सकते।'
सतीश पेडणेकर
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