|
पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक:17
27अक्तूबर, 1958
(श्री सुधांशु)
श्री जयप्रकाश नारायण ने अपनी विदेश यात्रा के उन परस्पर विरोधी अनुभवों और उलझे हुए विचारों को जिन्हें उन्हीं के शब्दों में, आत्मसात करने के लिए कम से कम छह मास की आवश्यकता थी व्यवस्थित किए बिना ही अपने भावुक और उतावले स्वभाव के कारण समय से पूर्व व्यक्त कर देने के कारण राष्ट्र मेें जिस मानसिक भ्रान्ति, और अनास्था को जन्म मिला है, वह राष्ट्र के विचारशील तत्वों के लिए चिन्ता का विषय बन गई है। सम्भवत: इसी कारण 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने निम्न शब्दों में श्री जयप्रकाश की आलोचना की:
'अभी तो श्री जयप्रकाश एवं उनके अन्य साथियों को ऐसे सुव्यवस्थित राजनीतिक दर्शन का विकास करना है, जिसे व्यवहार में परिणत किया जा सके। तब उनके द्वारा की जाने वाली संसदीय लोकतंत्र की आलोचना पूर्णतया विध्वंसकारी है। जब तक आलोचकों के पास रचनात्मक विकल्पों के सुझाव न हों और जब यह अनुभव किया जाता हो कि अभी हमारा राजनैतिक तन्त्र कोमल एवं अपरिपक्व अवस्था में है, तब ऐसी आलोचना को कदापि उत्तरदायी नहीं कहा जा सकता।''
अधिकृत वक्तव्य
श्री जयप्रकाश जी ने लखनऊ में इस मानसिक भ्रान्ति और आलोचना का समस्त दोष समाचार पत्रों के मत्थे मढ़ दिया और घोषित किया कि वे दिल्ली पहुंचकर अपने विचारों के स्पष्टीकरण के लिए एक विस्तृत लिखित वक्तव्य उसी समाचारपत्र को प्रकाशनार्थ देंगे जो उसे पूरा छापने का वचन देगा। 16 अक्तूबर के टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित उनका पूरा वक्तव्य इस समय हमारे सामने है। इस वक्तव्य में श्री जयप्रकाश ने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि '' निर्दलीय जनतन्त्र से उनका अभिप्राय सब राजनीतिक दलों के उन्मूलन से नहीं था, अपितु वे ऐसी परिस्थिति और वातावरण उत्पन्न करना चाहते हैं जिनमें इन दलों का कुछ काम भी न रहे और धीरे-धीरे वे गायब हो जाएं।''
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि जनतांत्रिक समाजवाद में विश्वास रखने वाले राजनीतिक दलों की जिनमें उन्होंने केवल कांग्रेस और प्रजा समाजवादी दल के नाम ही गिनाए हैं, मिली जुली सरकार बनायी जाए और शेष दलों के साथ बैठकर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए एक सर्वसम्मत लघुत्तम कार्यक्रम निश्चित किया जाए। इसी प्रसंग में उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अन्य सब दल, जिनमें हिन्दू महासभा और कम्युनिस्ट पार्टी भी सम्मिलित हैं, चाहें तो लघुत्तम कार्यक्रम वाले दूसरे सुझाव में सहयोग दे सकते हैं, पर वे उन्हें 'सम्मिलित सरकार' वाले प्रथम सुझाव में सम्मिलित नहीं कर रहे हैं।
श्री जयप्रकाश भटक गये
हम स्वानुभव के आधार पर कह सकते हैं कि श्री जयप्रकाश के इस अधिकृत वक्तव्य में उनके नवीनतम विचारों को पाकर उन असंख्य व्यक्तियों को गहरी ठेस लगी होगी जो पिछले 4-5 वर्षों में उनके प्रशंसक बन गए थे केवल इसलिए कि उन्होंने भौतिकवादी मार्क्सवाद की वैचारिक और सत्तालोलुप राजनीति की व्यावहारिक भूमिका को, अपने जीवन के 30-40 स्वर्णिम वर्ष समर्पित कर देने के बाद भी, जीवन के संध्याकाल में निर्भीकतापूर्वक ठुकरा दिया था और राजनीति से अलिप्त रहकर भारत के आध्यात्मिक मूल्यों के जागरण की अलख जगाकर अपने लिए राष्ट्रीय जीवन में एक सर्वमान्य श्रद्धास्पद स्थान बना लिया था। यद्यपि श्री जयप्रकाश ने अपनी पुरानी भूमिका को छोड़ते समय स्पष्ट कहा था,
' मेरे सामने भविष्य का कोई स्पष्ट चित्र नहीं है, मैं भारत में चुनाव-प्रणाली को मिटाकर दलीय तानाशाही को स्थापित कर जनतांत्रिक समाजवाद का वह ढांचा, जिसकी न उन्हें स्पष्ट कल्पना है और न उन दलों को और जो न भारतीय आत्मा के अनुकूल हैं, जबर्दस्ती भारत पर लादना चाहते हैं और सम्भवत: यूगोस्लाविया का अनुसरण कर (दमन के आधार पर)'इस देश में ऐसा वातावरण उत्पन्न करना चाहते हैं जिसमें अन्य दल अपने आप गायब हो जाएं' (अर्थात् सीखचों के पीछे अथवा फांसी के तख्तों पर)
हमने किसी संप्रदाय या वर्ग की सेवा का नहीं बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है। सभी देशवासी हमारे बान्धव हैं। जब तक हम इन सभी बन्धुओं को भारतमाता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, हम चुप नहीं बैठेंगे। हम भारतमाता को सही अर्थों में सुजला, सुफला बनाकर रहेंगे। यह दशप्रहरणधारिणी दुर्गा बनकर असुरों का संहार करेगी: लक्ष्मी बनकर जन-जन को समृद्धि देगी और सरस्वती बनकर अज्ञानान्धकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाएगी। (पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन खण्ड-7)
व्यक्ति दर्शन
हमारा लक्ष्य
हमने किसी संप्रदाय या वर्ग की सेवा का नहीं बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है। सभी देशवासी हमारे बान्धव हैं। जब तक हम इन सभी बन्धुओं को भारतमाता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, हम चुप नहीं बैठेंगे। हम भारतमाता को सही अर्थों में सुजला, सुफला बनाकर रहेंगे। यह दशप्रहरणधारिणी दुर्गा बनकर असुरों का संहार करेगी: लक्ष्मी बनकर जन-जन को समृद्धि देगी और सरस्वती बनकर अज्ञानान्धकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाएगी। (पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन खण्ड-7) व्यक्ति दर्शन
टिप्पणियाँ