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न्याय और फैसले के बीच भारत मंे विधि का शासन है न्याय का नहीं। घटनाओं पर सबूत और तकार्ें के आधार पर फैसले होते हैं। फैसले के द्वारा न्याय भी हुआ है या नहीं? इस पर भारतीय विधि मौन है? हाल ही के दिनों मंे न्यायालयों के कुछ ऐसे फैसले आए हैं जिनको विधि के अंतर्गत तो तर्कसंगत कहा जा सकता है किन्तु न्याय की कसौटी पर वे कहीं पिछड़ गए या यूं कहा जा सकता है कि न्यायालय तो इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था। भारतीय संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत तीन स्वतंत्र अभिकरण-विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका निर्धारित किये गये हैं। विधायिका का काम कानून बनाना, कार्यपालिका का कार्य कानून का अनुपालन करवाना एवं न्यायपालिका का कार्य कानून एवं संविधान की व्याख्या करना है। इसके साथ ही साथ न्यायपालिका को विधायिका के द्वारा बनाये कानूनों के पुनरावलोकन का विशेषाधिकार भी प्राप्त है।
इस प्रकार विधायिका और न्यायपालिका एक दूसरे को नियंत्रित रखती हैं और एक सफल लोकतंत्र में प्रत्येक अभिकरण का परस्पर समन्वय आवश्यक होता है। न्यायपालिका का दखल कार्यपालिका एवं विधायिका का अगला चरण है। तीनों अभिकरण या हमारी संवैधानिक संस्थायें जब जनमानस मेंे अपना सम्मान गंवाती हैं तो इसका प्रभाव व्यापक होता है। नक्सलवाद की मिसाल हमारे सामने है। इस विषय में आज महत्वपूर्ण एवं विचारणीय विषय यह है कि इस समस्या के मूल तत्व को विकास से जोड़कर देखा जाना चाहिए या कानून एवं व्यवस्था से। इसी तरह पूर्व में भोपाल कांड हुआ था। फैसला आने मंे 26 साल लगे किन्तु इतने बड़े कांड मेंे गुनहगार को सजा 26 माह की भी नहीं हुई। मुख्य आरोपी एंडरसन एक दिन भी जेल में नहीं रहा। फिल्म अभिनेता सलमान खान पर फैसला आया। सलमान को पांच साल की सजा हुई किन्तु उसी दिन दो दिन के लिये अन्तरिम जमानत मिल गयी। इसके बाद उच्च न्यायालय से नियमित जमानत भी मिल गयी। भारत मंे भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है। आय से अधिक संपत्ति के मामले मे जयललिता को माननीय कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा बरी कर दिया गया। इसके पहले निचली अदालत से जयललिता को चार साल कैद की सजा सुनाई गई थी। निचली अदालत से सजा पाने की प्रक्रिया पूरा होने में 18 साल लगे और उच्च न्यायालय से सजा खत्म होने मे सिर्फ आठ माह का समय लगा। फैसले और न्याय मे अंतर को दर्शाने के लिए अरुणा शानबाग मामले का जिक्र बेहद महत्वपूर्ण है। अभी दो माह पूर्व जब अरुणा शानबाग का निधन हुआ तो मानवता को झकझोरने वाला वीभत्स रूप हम सबको लज्जित कर गया। भारत में जब-जब महिला अपराधों का जिक्र आएगा अरुणा का दर्द हमारे सामने होगा। अपराधी को सात साल की सजा मिली और पीडि़त अरुणा 42 साल कोमा मंे रही। शरीर मंे न कोई स्पर्श, न कोई स्पंदन। न चेहरे पर कोई मुस्कुराहट। न वेदना के कोई स्वर। क्या हम अरुणा शानबाग को न्याय दे पाए?
न्यायपालिका के फैसलेे अगर नजीर बनते हैं तो समाज पर इसका प्रभाव व्यापक होता है। प्राचीन भारतीय न्यायपद्वति आपसी चर्चा पर आधारित थी जहां दोनों पक्षों को सुनकर फैसला आत्मज्ञान के आधार पर किया जाता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जबसे अनावश्यक कानूनों को खत्म करने की बात कही है तबसे देश में न्याय व्यवस्था के लिए एक नयी किरण अवश्य दिखाई दी है। इस समय यह बेहद आवश्यक है कि अगर कहीं कानून के लचीलेपन के कारण समाज प्रभावित हो रहा है तो लचीलेपन मे कसावट लाते हुए उसे समय रहते दुरुस्त कर लेना चाहिए और इसके साथ ही समाज को भी खुद यह समझ लेना चाहिए कि कानून सिर्फ समस्या का उपचार दे सकता है। न्यायालय भी अपराध घटित होने के बाद सिर्फ फैसला दे सकता है। समस्या को रोकने के लिए एवं उसके पूर्ण निवारण के लिये आवश्यक है ऐसा माहौल बने जिसमें अपराध कम से कम हों। बच्चों मे संस्कार का महत्वपूर्ण तत्व मजबूत हो। वेदों मंे कहा गया है कि ईश्वर ने बीज रूप में सभी गुण मनुष्य को दिए हैं। हमारे अंदर विद्यमान ये गुण जैसी परिस्थितियां पाते हैं उसके अनुकूल ही अंकुरित होते हैं। एक बच्चा जैसा माहौल अपने समाज मे देखता है उसको ही वह अपने भीतर आत्मसात कर लेता है। जब समाज का चिंतन सकारात्मक होता है तो उसके सकारात्मक स्पंदन एक ऐसा प्रभाव पैदा करते हैं जहां अपराध कम हो जाता है। बालमन पर आचरण का प्रभाव पड़ता है, बातों का नहीं। यदि कोई शिक्षक हाथ मे सिगरेट लेकर नैतिक शिक्षा की बात करता है तो उसके शिष्यों पर उसका प्रभाव नहीं होगा। मातृमान् पितृमान् आचार्यवान पुरुषो वेद। अर्थात माता-पिता और आचार्य मिलकर बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। यदि सीधे शब्दों मे समझा जाये तो बालमन एक बीज है और प्रत्येक छायादार वृक्ष राष्ट्र को समर्पित एक भारतीय नागरिक। बबूल के बीज से आम का उदभव नहीं होता। और यह भी सत्य है कि वृक्ष में आप परिवर्तन नहीं कर सकते। बीज को ही परिष्कृत किया जा सकता है। अधिकतर लोग बीज को छोटा समझने की भूल कर बैठते हैं। अपराध के मनोविज्ञान मे बालमन एक महत्वपूर्ण विषय है। शिक्षा का अधिकार अब मूल अधिकार बना दिया गया है। संविधान के अनुसार बेसिक शिक्षा राज्य सूची का विषय है। ऐसे मंे सरकार चाहे किसी भी दल की हो, राज्य सरकार का सामाजिक उत्तरदायित्व बन जाता है कि वह राष्ट्रहित में बेसिक शिक्षा के ढांचे को मजबूत करे। बेसिक शिक्षा की असफलता कहीं न कहीं अपराध की मनोवृत्ति को बढ़ाने में मददगार बन जाती है। इस प्रकार दो महत्वपूर्ण बिन्दु इस चर्चा मंे उभरकर आए हैं। प्रिवेंशन एंड क्योर। बच्चों मंे अच्छे संस्कार समाज मे अपराध का पूर्व-निवारण(प्रिवेंशन) कर सकते हैं और न्याय होना और होते दिखना समस्या के उपचार(क्योर) के लिए आवश्यक हंै। दोनों स्तरों पर किए गए सामूहिक सुधार, एक सुदृढ़ और सक्षम राष्ट्र की अवधारणा को परिभाषित करेंगे।
अमित त्यागी
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