|
खेल जगत
-अशोक कुमार
देश में ज्यादातर खेलों का ग्राफ ऊपर बढ़ता जा रहा है। लेकिन आज की हाकी की दुर्दशा देख तकलीफ होती है। ओलंपिक खेलों में 35 वर्ष पहले हमने स्वर्ण पदक जीता था, जबकि एशियाई खेलों में पिछले 25 वषोंर् में दो बार स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहे। भारत के खाते में कुल आठ ओलंपिक स्वर्ण पदक हैं, जबकि एशियाई स्तर पर राष्ट्रीय टीम अक्सर पहले-दूसरे स्थान पर आती रही। पर अब जबकि हाकी में पैसे काफी आ गए हैं, सुविधाएं काफी बढ़ गई हैं, खिलाडि़यों को अनुभव के नाम पर कहीं ज्यादा विदेशी दौरे करने को मिलते हैं और पिछले 14-15 वषोंर् में ज्यादातर विदेशी प्रशिक्षकों को भारी-भरकम पैसे पर अनुबंधित किया जा रहा है, उसके बावजूद भारतीय टीम छठे से 12वें स्थान पर आने को संघर्ष कर रही है, यह एक गंभीर चिंता का विषय है।
मैं हाकी के स्वर्णिम काल और आज की हाकी की तुलना करना उचित नहीं समझता। 1980 के दशक से पहले के 50 साल और पिछले 35 साल के दौरान हाकी की दशा-दिशा की तुलना की ही नहीं जा सकती। पहले घास के मैदान पर हाकी खेली जाती थी, जबकि आज एस्ट्रो टर्फ ने उसकी जगह ले ली। पहले सामान्य स्तर की स्टिक से खिलाड़ी खेलते थे तो आज विश्वस्तरीय उपकरणों का ढेर लग गया है। पहले एक-दो वरिष्ठ खिलाड़ी रणनीति बनाते थे तो आज लैपटाप से लैस रणनीतिकारों की एक फौज टीम के पास होती है। और, सबसे बड़ी बात यह है कि पहले देश के लिए खेलना जहां गौरव और जुनून की बात होती थी, अब उसका सर्वथा अभाव दिखता है। हाकी का व्यवसायीकरण हो गया है। पैसे कमाना अब सबसे अहम हो गया है, जबकि देश के प्रति खेलने का गौरव और जुनून कहीं पीछे चला गया है। हाकी में पैसा आना गलत नहीं है लेकिन खिलाडि़यों और अधिकारियों का जो दृष्टिकोण बदल गया है, वह हमारी हाकी को एक कदम आगे और दो कदम पीछे ले जा रहा है। पहले हाकी खिलाड़ी देश के लिए ओलंपिक स्वर्ण जीतकर लाते थे, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति कभी नहीं सुधर पाई। आज कोई भी खिलाड़ी अगर राष्ट्रीय स्तर पर भी खेलता है तो कम से कम उसकी आजीविका की कोई समस्या नहीं होती है। यह हमारे खिलाडि़यों के लिए अच्छी बात है, लेकिन उनमें इस खेल के प्रति समर्पण भाव पैदा करने और गर्व महसूस कराने की सख्त जरूरत है। खेलों में पेशेवर लीगों की शुरुआत से भारतीय खेल व खिलाडि़यों की खरीद-फरोख्त होने लगी है। शीर्ष पर रहने का लक्ष्य अब कहीं ओझल सा होता दिख रहा है। इस स्थिति में बदलाव लाने की जरूरत है। इसी तरह अब एशियाई स्तर पर भी कोई खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करता है तो उसकी अर्जुन अवार्ड की दावेदारी बन जाती है, जबकि पहले सम्मान या पुरस्कार पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। हमारे जमाने में किसी भी पुरस्कार की महत्ता का हमें अंदाजा होता था, लेकिन अब जिस खिलाड़ी के पास जितना ज्यादा पैसा है या बड़े-बड़े मकान व कारें हैं, वह उतना ही सफल और सम्मानित खिलाड़ी माना जाता है। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि देश के लिए खेलने पर आपको सारी सुख-सुविधाएं मिलेंगी, पर बिना समर्पण के खेलने का कोई तुक नहीं होता है। आपको प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। अब खिलाडि़यों या प्रशिक्षकों पर हार-जीत का असर ही नहीं दिखाई पड़ता है। टीम मैच जीतते-जीतते अंत में हार जाती है। आज टीम एक गोल से हारे या आठ गोलों से, हर मौके पर वे हार का बहाना ढूंढ लेते हैं। इस स्थिति में तो भारतीय हाकी का नुकसान ही होगा।
अब अगर भारतीय हाकी में सुधार लाने या उसे वापस स्वर्णिम काल में ले जाने के प्रयास की बात करें तो सबसे पहले पूरे देश भर में 200-300 आधुनिक हाकी मैदानों की जरूरत है। यूरोपीय देशों की तुलना में हमारे यहां स्तरीय हाकी मैदानों की कमी है। सरकार अपनी ओर से हाकी का स्तर ऊंचा उठाने की हरसंभव कोशिश कर रही है। लेकिन जिन लोगों के हाथ में हाकी की कमान है, उनमें शायद इस खेल के विकास को लेकर इच्छाशक्ति की कमी दिखती है। मैदानों की कमी के अलावा जमीनी स्तर पर हमारी हाकी बेहद कमजोर दिखती है। राष्ट्रीय टीम में सरदारा सिंह या एस वी सुनील की जगह कौन लेगा, बता पाना मुश्किल है। खेल आकाओं को इस पर ध्यान देने की सख्त जरूरत है। खिलाडि़यों को हार या जीत की जिम्मेदारी लेनी होगी, मैदान पर बेहतर प्रदर्शन करना होगा। सिर्फ लैपटाप पर रणनीति बनाकर हाकी आकाओं का दिल जीता जा सकता है, मैच नहीं।
हम किसी भी प्रशिक्षक की आलोचना नहीं करना चाहते लेकिन सच यही है कि जब से हमारे यहां विदेशी प्रशिक्षकों की नियुक्ति शुरू हुई है, तब से टीम के प्रदर्शन में बहुत ज्यादा सुधार तो नहीं दिखा है। विदेशी प्रशिक्षक लैपटाप पर आपको रणनीति समझा सकते हैं, लेकिन मैदान पर बेहतर प्रदर्शन करने के लिए आपको हाड़तोड़ मेहनत करनी ही पड़ेगी। शारीरिक दमखम बढ़ाने से या अपनी गति बढ़ा लेने से आप विजेता नहीं बन सकते। उसके लिए आपको खेल कौशल का प्रदर्शन करना ही पड़ेगा। फिर, एक विदेशी प्रशिक्षक को जितने पैसे मिलते हैं, उतने में तो भारत के पूर्व खिलाडि़यों में से आठ प्रशिक्षकों को नियुक्त किया जा सकता है। हम आए दिन देखते हैं कि आस्ट्रेलिया, स्पेन या कहीं और से विदेशी प्रशिक्षक को मोटी राशि पर अनुबंधित कर लिया जाता है और कुछ समय बाद अचानक उसे हटा दिया जाता है। हाकी के आकाओं को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि देश में अच्छे प्रशिक्षकों की कोई कमी नहीं है! जरूरत है, खेल महासंघ और हाकी अधिकारी देसी प्रशिक्षकों पर भरोसा करें। वैसे भी, ओलंपिक खेलों में भारत अगर कुश्ती, मुक्केबाजी, बैडमिंटन या निशानेबाजी में शानदार प्रदर्शन कर रहा है तो देखना चाहिए कि इन खेलों में कितने विदेशी प्रशिक्षक हैं और कितने भारतीय। दूसरी ओर, जिस हाकी में कभी भारत का दबदबा था उस खेल का विदेशी प्रशिक्षकों के आने के बाद से ग्राफ नीचे गिरा है। यहां पर पैसे लुटाने की जगह कुछ देसी और कुछ विदेशी प्रशिक्षकों के साथ मिलकर एक दीर्घावधि योजना बनाने की जरूरत है।
(लेखक भारतीय हाकी टीम के पूर्व कप्तान हैं।)
टिप्पणियाँ