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भारत में मृत्युदंड समाप्त करने के विषय पर अनेक बार चर्चा या बहस हो चुकी है। हाल ही में याकूब मेनन को मृत्युदंड के सिलसिले में यह बहस बहुत विस्तार पा गई। इस विषय पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। यथार्थवादी चिन्तन के लिये यह अध्ययन करना आवश्यक है कि भारतीय विधि में किन अपराधों के लिये मृत्युदंड का प्रावधान है। भारत में मृत्युदंड का प्रावधान भारतीय दंड संहिता (1860) में किया गया है। इसके लिये निम्नलिखित धाराएं हैं।
धारा 121-अपराध-भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना या युद्ध करने का प्रयत्न करना, दुष्प्रेरणा देना।
दंड-मृत्युदंड या आजीवन कारावास और अर्थ दंड।
धारा 132-अपराध-भारत सरकार थलसेना, नौसेना या वायुसेना के किसी अधिकारी, सैनिक, नाविक या वायुचालक को विद्रोह के लिये दुष्प्रेरणा देना और ऐसी दुष्प्रेरणा के फलस्वरूप विद्रोह घटित होना।
दंड-मृत्युदंड या आजीवन कारावास या दस वर्ष तक कठोर या साधारण कारावास और अर्थदंड भी।
धारा 194-अपराध-झूठा साक्ष्य देना या गढ़ना जिसके कारण कोई निदार्ेष व्यक्ति दोषी सिद्ध हो जाता है और उसे फांसी हो जाती है।
दंड-मृत्युदंड या आजीवन कारावास या दस वर्ष तक कठोर कारावास और अर्थ दंड भी।
धारा 300-अपराध-हत्या अर्थात जानबूझकर ऐसा कार्य करना जिससे किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए, परन्तु यह कार्य किसी गम्भीर और अचानक प्रकोपन के कारण या वैयक्तिक प्रतिरक्षा के अधिकार के लिये या किसी वैध अधिकार के पालन में या बिना पूर्व योजना के किसी आकस्मिक लड़ाई-झगड़े की उत्तेजना में न किया गया हो।
दंड-धारा 302-मृत्युदंड या आजीवन कारावास और अर्थ दंड भी।
धारा 305-अठारह वर्ष से कम आयु के किसी व्यक्ति या किसी विक्षिप्त व्यक्ति या किसी उन्मत्त व्यक्ति या किसी जड़बुद्धि व्यक्ति या नशे की दशा में किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरणा देना जिस कारण वह आत्महत्या कर लेता है।
दंड-मृत्यु दंड या आजीवन कारावास या दस वर्ष तक कारावास और अर्थदंड भी।
धारा 307- यदि आजीवन कारावास का दंड भोग रहा कोई व्यक्ति जानबूझकर किसी की हत्या के प्रयत्न में चोट करता है।
दंड-मृत्यु दंड दिया जा सकता है।
धारा 396-पांच या अधिक व्यक्तियों द्वारा डकैती करते समय कोई एक भी हत्या करता है।
दंड-प्रत्येक को मृत्यु दंड या आजीवन कारावास या दस वर्ष तक कठोर कारावास और अर्थ दंड भी।
भारतीय दंड संहिता की उपर्युक्त धाराओं को विहंगम दृष्टि से देखने पर यह सुस्पष्ट हो जाता है कि किसी भी अपराध के लिये भारत में मृत्यु दंड अनिवार्य नहीं है। यह न्यायाधीश के विवेकाधिकार में वैकल्पिक है। विकल्प है आजीवन कारावास। किसी-किसी अपराध के लिये यह और भी कम (दस वर्ष) है। इस संहिता की धारा 303 में प्रावधान था कि यदि आजीवन कारावास भोग रहा व्यक्ति हत्या करता है तो उसे मृत्यु दंड ही दिया जाएगा। एक दोषी मिथु एआईआर 1983 सु.को. 473=(1983)2 सु.को.के.277 की अपील पर उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह धारा किसी वैज्ञानिक आधार के बिना ही आजीवन कारावास के दोषी को एक भयंकर वर्ग का अपराधी मानती है और न्यायालय के विवेकाधिकार को भी पूर्णतया समाप्त करती है। अत: यह धारा युक्तिसंगत न होने के कारण संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त समानता तथा अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त जीवन के मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है। अत: यह निष्प्रभावी है। इसके विपरीत ऊपर उल्लिखित धारा 307 अवलोकन योग्य है। उसमें प्रावधान किया गया है कि यदि आजीवन कारावास भोग रहा व्यक्ति हत्या के प्रयत्न में चोट पहुंचाता है तो उसे मृत्यु दंड दिया जा सकता है। इसमें न्यायालय के विवेकाधिकार को बहिर्गत नहीं किया गया इसलिये इसे संविधान विरुद्ध नहीं माना जा सकता।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने मृत्यु दंड के लिये एक बहुत गहरी लक्ष्मण रेखा खींच दी है। बचान सिंह बनाम पंजाब राज्य (एआईआर 1980 सु.को. 898) में न्यायालय ने निर्णय दिया है कि मृत्यु दंड विरल से विरलतम मामलों में ही दिया जा सकता है। इस कसौटी का अर्थ है कि हत्या क्रूरतम तरीके से की गई हो।
उपर्युक्त विवेचन से यह सार निकलता है कि भारत में मृत्यु दंड के उन्मूलन का तात्पर्य हुआ कि हत्या के विरल से विरलतम अर्थात् क्रूरतम मामलों में भी मृत्यु दंड नहीं दिया जाना चाहिए। हाल ही में मुंबई में क्रमिक बम धमाकों के अपराधी याकूब मेनन को मृत्यु दंड पर अनेक सेकुलरों ने ऐसा ही विचार प्रस्तुत किया। उन बम धमाकों में 257 लोग मारे गए थे। सात सौ से अधिक लोग घायल हो गए थे। ये धमाके कई सप्ताह तक योजना बनाकर किए गए थे। उच्च न्यायालय तक निर्णय दिया गया कि यह हत्याओं का विरल से विरलतम मामला था। याकूब मेनन एवं दस अन्य अपराधियों को मृत्यु दंड का निर्णय सुनाया गया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने केवल याकूब मेनन के विरुद्ध हत्या का विरल से विरलतम मामला अभिनिर्धारित किया था। शेष दस के सम्बन्ध में निर्णय दिया कि वे बम धमाकों की योजना के पूरी तरह से भागीदार नहीं थे। इसलिये उनका दंड मृत्यु दंड से घटाकर दस वर्ष का कारावास कर दिया। लेकिन याकूब मेनन को पूरी तरह से बम धमाकों की योजना बनाने वालों में लिप्त पाया।
अत: उसको मृत्यु दंड देने को सही ठहराया। जिन लोगों के सम्बन्धी मारे गए थे, उन्होंने तो कहा कि इससे उनको न्याय मिला है। परन्तु जिनका कोई भी सम्बन्धी न मारा गया, न ही घायल हुआ, उनके हृदय में न्यायशास्त्र के सिद्धांत उमड़ पड़े। कुछ सांसदों ने इस दंड का बहुत सरलीकरण करके कहा कि 'आंख के बदले आंख, दांत के बदले दांत और जीवन के बदले जीवन का दंड देना आदिम प्रथा है। आधुनिक सभ्य समाज में इसे मान्यता नहीं दी जा सकती।' इस विचार में कोई बल नहीं क्योंकि हत्या के प्रत्येक मामले में मृत्यु दंड नहीं दिया जा सकता। हत्या के केवल विरल से विरलतम अर्थात अत्यंत क्रूर मामलों में ही मृत्यु दंड दिया जा सकता है। यह सिद्धांत न्यायशास्त्र में नवीन है,आदिम नहीं।
सांसद शशि थरूर ने एक विचार दिया, जो चिन्तन योग्य है। इसलिये नहीं कि वह सही है बल्कि इसलिये कि उसमें राजधर्म का भ्रामक उपदेश है। उन्होंने ट्वीट किया कि राज्यों को हत्यारों जैसा काम नहीं करना चाहिए। मृत्यु दंड देने के विकल्प में आतंकियों को बिना पैरोल के ताउम्र जेल में रखा जाना चाहिए। जब हम मृत्यु दंड देते हैं तब हम भी खून करने वाले जैसा ही बर्ताव करते हैं। वे तो हत्यारे हैं लेकिन राज्य को उनकी तरह काम नहीं करना चाहिए। अपने इस ट्वीट पर उठे विवाद पर उन्होंने उत्तर दिया कि 'मैंने मेनन केस के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा।' (दैनिक जागरण, नई दिल्ली, 03 अगस्त 2015, पृ़11)
प्रत्येक विचार किसी देश, काल और पात्र के संदर्भ में ही होता है। इस समय शशि थरूर ने यह विचार याकूब मेनन के संदर्भ में ही अभिव्यक्त किया है। परन्तु अपनी आलोचना का सामना करने में असमर्थ होने के कारण वे मेनन के संदर्भ से भाग रहे हैं। यदि इस संदर्भ में नहीं कहा तो कहने की आवश्यकता ही क्या थी? भले ही आज शशि थरूर याकूब मेनन के संदर्भ से पल्ला झाड़ रहे हों, उनके मत ने मृत्यु दंड के सम्बन्ध में कुछ भ्रम तो उत्पन्न कर ही दिये हैं। अत: इसका विवेचन आवश्यक है।
यह सोच तो सही है कि राज्यों को हत्यारों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिये, जैसा व्यवहार जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव के साथ किया और औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर तथा उनके दो शिष्यों के साथ किया कि अपने धर्म पर अडिग रहने और इस्लाम कबूल न करने के कारण उन्हें तड़पा-तड़पा कर अतीव क्रूरता से उनकी हत्या कर दी। लेकिन इस तरह की हत्या और राज्य द्वारा न्यायिक प्रक्रिया पूर्ण करके किसी बर्बर हत्यारे को मृत्यु दंड देने में जमीन-आसमान का अन्तर है। न्यायिक प्रक्रिया यह है कि राज्य द्वारा किसी व्यक्ति पर आरोप लगाने से ही न्यायालय उसे दोषी नहीं मान लेता।
न्यायालय की अवधारणा इसके विपरीत होती है कि आरोपी निदार्ेष है। उसका दोष अकाट्य प्रमाणों द्वारा संदेह से परे सिद्ध करना पड़ता है। संदेह का लाभ भी आरोपी को ही दिया जाता है। आरोपी उन प्रमाणों को गलत साबित करने का अधिकार रखता है, अपना अधिवक्ता रखने का अधिकार रखता है। यदि वह इसमें असमर्थ है तो न्यायालय उसे अपनी ओर से अधिवक्ता देता है। विचारण न्यायालय द्वारा मृत्यु दंड दिये जाने पर उसे उच्चतर न्यायालयों में अपील करने का अधिकार होता है। प्रत्येक स्तर का न्यायालय यह परख करता है कि उसका अपराध विरल से विरलतम प्रकार का है या नहीं।
यदि उसे तब भी मृत्यु दंड दिया जाता है तो उसे राज्याध्यक्ष के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। यह स्वीकार भी हो सकती है, अस्वीकार भी। राज्याध्यक्ष के आदेश को भी सवार्ेच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। क्या इतनी विस्तृत प्रक्रिया यह सिद्ध नहीं करती कि शशि थरूर का यह कथन कितना खोखला है कि राज्य जब मृत्यु दंड देता है तब वह खून करने वाले या हत्यारे जैसा बर्ताव करता है? राज्य का जनता के प्रति भी तो दायित्व होता है कि उसके नागरिकों की क्रूरतम हत्या करने वालों को समाप्त करके उनके सम्बन्धियों को न्याय दे और जनता को आश्वासन दे कि वह खूनी पुन: अपराध नहीं कर पाएगा तथा उसकी मानसिकता वाले अन्य लोग भी विरत हो जाएंगे। यदि राज्य ऐसा नहीं करेगा तो वे व्यक्ति जिनके सम्बन्धी की हत्या की गई है, उसकी हत्या स्वयं करने के लिये बेताब हो जाएंगे। सामान्य जन की न्याय-मान्यता यह है-हन्ते को हनिये, दोष पाप न गनिये अर्थात् हत्यारे की हत्या कर दीजिये, यह न मानिये कि इसमें कोई दोष है या पाप है। बदले का यह 'कार्यक्रम' कई पीढि़यों तक चल सकता है।
मृत्यु दंड के स्थान पर पैरोल रहित आजीवन कारावास की राय अव्यावहारिक है। यदि ऐसे कारावास में बंद कैदी की पुत्री का विवाह हो या उसका कोई अति निकट सम्बन्धी मृत्यु-शैया पर हो या काल कलवित हो गया हो इत्यादि, इस तरह के मामलों में उसे दो-चार दिनों के लिये पैरोल न देना क्या अमानवीय न होगा? यह राय खतरनाक भी है। वह ऐसा आतंकवादी भी हो सकता है जिसके लंबे-लंबे हाथ हों। तब अपहरण की भयंकर घटना करके कैदी को छुड़ा लिया जाएगा । इसके कई उदाहरण हमारे देश में हो चुके हैं। कहा जाता है कि पश्चिम के कई देशों ने मृत्यु दंड समाप्त कर दिया है। भारत को भी उनका अनुकरण करना चाहिए। सम्यक् तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो मिलेगा कि उन देशों में आतंकवाद इतना नहीं, जितना हमारे देश में है। जिस दिन वहां भारत के बराबर आतंक छा जाएगा, उस दिन वहां भी यह सोच सही मान ली जाएगी कि जो व्यक्ति विरल से विरलतम बर्बर क्रूरता से किसी का जीवन समाप्त कर देते हैं, वे जीवन का अपना अधिकार खो बैठते हैं। क्या जीवन का अधिकार पीडि़त व्यक्ति को नहीं होता? ल्ल
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