|
1965 का युद्ध रणबांकुरों की जुबानी
1965 के युद्ध मंे भारतीय सेना में विभिन्न रेजीमेंट की ओर से पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध लड़ने वाले पूर्व सैनिकों को आज भी जब वह लम्हा याद कराते हैं तो उनकी कर्कश आवाज सुनने के साथ-साथ उनमें गजब का जोश दिखाई पड़ता है। उम्र के पड़ाव के साथ भी इन शूरवीरों का जज्बा कम नहीं हुआ। युद्ध के समय विभिन्न मोर्चों पर रह चुके इन पूर्व सैनिकों की आंखों में वही चमक दिखाई पड़ती है, जो कभी दुश्मन को मात देते समय उनकी आंखों में हुआ करती थी। इनमें से कई पूर्व सैनिक ऐसे भी रहे जिन्हें न केवल 1965, बल्कि 1962 और 1971 के युद्ध में शामिल होने का भी सुअवसर मिला। इनकी मानें तो 1965 के युद्ध के समय भारत, चीन से 1962 में हुए युद्ध के बाद ठीक से संभल भी नहीं पाया था और पाकिस्तान से अचानक युद्ध शुरू हो गया। 1965 के युद्ध में पाकिस्तान एक विशेष रणनीति के तहत पूर्व नियोजित तरीके से युद्ध में कूदा था और उसकी एक भूल यह थी कि भारत कमजोर पड़ जाएगा, लेकिन भारतीय सेना और वायुसेना के जांबाजों ने पाकिस्तान को न केवल परास्त किया, बल्कि उनके गढ़ में घुसकर विजय की पताका को लहरा दिया। देश के इन शूरवीरों के पराक्रम को सादर नमन है जिनकी बदौलत आज भी हम देश में चैन की नींद सो रहे हैं। 1965 के युद्ध में हरियाणा के दमदमा गांव में रहने वाले कुछ पूर्व सैनिकों से पाञ्चजन्य संवाददाता राहुल शर्मा की बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं –
हौसले ने दिलाई जीत
मैं 24 जुलाई, 1962 को 4 राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुआ था। 1965 का युद्ध वैसे तो अगस्त से सितम्बर माह के बीच चला। लेकिन उससे पहले 17 मई को हमारी टुकड़ी को छम्ब युद्ध के लिए कारगिल में13620 पोस्ट को कब्जा करने का आदेश मिला था। वहां पाकिस्तानी सैनिकों ने हमला किया था। उस समय हमारे 13 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए और 11 घायल हुए थे। सभी का नेतृत्व 'कमांडिंग ऑफिसर' कर्नल सुदर्शन कर रहे थे। हमले में मेजर बलजीत सिंह रंधावा वीरगति को प्राप्त हुए थे और उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया। साथ ही कैप्टन रणबीर सिंह, हवलदार गिरधारी लाल और सिपाही बुद्ध सिंह को वीर च्रक मिला। हम ने जब पोस्ट खाली करा ली तो 'यूएनओ' के दखल के बाद हमें कूटनीति के तहत पोस्ट से वापस हटा दिया गया। इसके बाद 4-5 सितम्बर को हम लोग हाजी पीर दर्रा की पोस्ट पर डेढ़ माह तक जमे रहे। इस दौरान पाकिस्तान की विशाली पोस्ट को कब्जा करने का अवसर भी मिला। वहां हमारे 17 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए और 35 घायल हुए थे। इस दौरान मुझे साथियों के साथ लेह लद्दाख में मोर्चा संभालने का मौका मिला। युद्ध के दौरान 7 दिन हम उरी सेक्टर की भंडूरी पोस्ट पर रहे। पाकिस्तान की सीमा से अपने साथियों के शव सुरक्षित लेकर आना और घायलों को उपचार के लिए लेकर जाना आज भी याद है। इस दौरान कई-कई दिनों तक साथी भूखे-प्यासे भी रहे, लेकिन उस समय सैनिकों का मनोबल काफी ऊंचा था और इसी हौसले से देश को 1965 के युद्ध में सफलता मिली।
-पूर्व कैप्टन धर्मवीर
दिया मुंहतोड़ जवाब
मैं 6 अगस्त, 1956 को 3 राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुआ था और फतेहगढ़ हमारा केन्द्र था। 1965 के युद्ध के समय मेरी तैनाती पुंछ में थी। इससे पहले पठानकोट से चलकर हम लोग कालीधर की पहाडि़यों से होकर कश्मीर के पुंछ में पहंुचे थे। पुंछ के गोलपुर सैक्टर में हमारी रेजीमेंट ने मोर्चा संभाला हुआ था। वहां पाकिस्तानी गोलाबारी में हमारे दो सैनिक शहीद हुए थे, लेकिन उस रास्ते से पाकिस्तानी सैनिकों को हमारे साथी जवानों ने पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। मुझे 1962 और 1971 के युद्ध में देश की तरफ से लड़ने का सुअवसर मिला, जो कि किसी भी सैनिक के लिए गौरव की बात है। इसके बाद 1984 में सेना से सेवानिवृत्त हो गया।
– पूर्व सूबेदार जगमाल सिंह
मैं 22 अगस्त, 1962 को आर्मी सर्विस कोर (एएससी) के मैकेनिकल ट्रांसपोर्ट में भर्ती हुआ था। 1965 के युद्ध में मेरी तैनाती जोशीमठ थी, वहां से हमें फिरोजपुर भेजा गया। इस दौरान गुरदासपुर, अमृतसर, वाघा और हुसैनीवाला जाने का मौका मिला। पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा घायल होने पर गोरखा रेजीमेंट के जवानों को अवसर मिला था। वाघा बॉर्डर पर हमारी गाड़ी फंस गई थी। युद्ध के समय करीब एक माह वाघा बॉर्डर पर रहा। उस समय सेना में गजब का उत्साह था। हम लोग 1962 में चीन से हुए युद्ध के बाद संभल भी नहीं पाए थे, फिर भी सैनिकों ने अपना हौसला दिखाकर पाकिस्तानी सैनिकों को मुंहतोड़ जवाब दिया था।
– पूर्व सूबेदार फुंदन सिंह
मैं 16 जनवरी, 1963 को 3 राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुआ था। 1965 के युद्ध के समय पुंछ में पाकिस्तानी बॉर्डर पर तैनाती रही। पाकिस्तानी सैनिकों ने हमारी गोरखा रेजीमेंट के सैनिकों पर सोते समय हमला कर उनके सिर काट दिए थे। इस बात से भारतीय सेना में पाकिस्तानियों के विरुद्ध काफी आक्रोश था। इन हालात में दिन-रात बिना टुकड़ी बदले सैनिकों ने दुश्मन से लोहा लिया और उसे पीछे खदेड़कर ही दम लिया था।
– पूर्व सिपाही, बसंतराम
घुसपैठियों पर रखी निगरानी
मैं 24 फरवरी, 1962 को 19 राजपूत (बीकानेर) रेजीमंेट में सिपाही के पद पर भर्ती हुआ था। 1965 के युद्ध के समय मुझे बॉर्डर वाले क्षेत्र में सादे कपड़ों में ग्रामीणों के साथ रहने का अवसर मिला था। हमें वहां लोगों के बीच रहकर गुप्त सूचनाएं एकत्रित करनी होती थीं कि बॉर्डर से सटे क्षेत्रों में कहीं कोई पाकिस्तानी घुसपैठ कर तो नहीं घुस आया है। इस दौरान बॉर्डर पर गश्त करने का अवसर मिला और कई दिन भूखा-प्यासा रहना पड़ा। मुझे 1971 में पंजाब के फाजिल्का सेक्टर में रहकर पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध लड़ने का अवसर भी मिला। वहां बेरीवाला सैक्टर में दो साथी वीरगति को प्राप्त हुए थे।
-पूर्व मानद कैप्टन सोहनलाल
टिप्पणियाँ