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आवरण कथा/शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) पर विशेष
गुरुर्ब्रह्मा गुुरुर्विष्णु…. वाली श्रेष्ठ भारतीय परम्परा में आज न तो वैसे गुरु हैं, न गुरुकुल और न ही 'सा विद्या या विमुक्तये' का व्यापक भाव। आज शिक्षा उदरपूर्ति का माध्यम मात्र रह गई है। 'सा विद्या या विमुक्तये' का ध्येय रखने वाली शिक्षा आज 'उदरपूर्तये' को भी चरितार्थ नहीं कर पा रही है। शिष्य और गुरु की अवधारणा एकदम बदल गई है। प्राथमिक हो या माध्यमिक अथवा उच्च शिक्षा, आज सर्वत्र चुनौतियां दिखाई पड़ रही हैं। सारे विश्व के जिज्ञासु जहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे, वे नालन्दा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय विश्व के अनुकरणीय शिक्षा केन्द्र थे। लेकिन आजादी के सात दशक बाद आज देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बाहरी रूप में व्यापक कायाकल्प होता दिखाई पड़ता है लेकिन वास्तविक रूप में इसे और सुदृढ़ करने की जरूरत है।
शिक्षक को भौतिक चकाचौंध ने उसके मूल चरित्र से भटका दिया है और उसके परिणाम ने आज शिक्षकों को असुरक्षा और आशंका की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। शिक्षा में हावी हो गई राजनीति के कारण ठोस प्रतिभाएं कौशल व क्षमता के बावजूद हतोत्साहित हो रही हैं। देश के अधिकांश केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में और हजारों राज्यस्तरीय विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों मे वषोंर् सें स्थायी शिक्षकों का अभाव है और ठेके या तदर्थ रूप में अंशकालिक शिक्षकों की सेवाएं ली जा रही हैं। कार्य व दायित्व उनका नियमित शिक्षकों से दस गुना ज्यादा है लेकिन भविष्य के प्रति निराश और कुंठित ये तदर्थ शिक्षक अपनी इस बिरादरी में दोयम दर्जे के नागरिक बने हुए हैं।
सकारात्मक नजरिए से देखें तो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत शिक्षा के मामले में विश्व शक्ति अमरीका के बाद दूसरे स्थान पर गिना जाता है। आंकड़ों के गणित से देखें तो देश में आज 15 आईआईटी, 8 आईआईएम, 20 एनआईटी और 10 सूचना तकनीक के अन्तरराष्ट्रीय संस्थान (आईआईआईटी) हैं। इसी प्रकार सभी राज्यों में उच्च शिक्षा के लिए कुल 41 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं। उत्तर प्रदेश और गोवा में 4-4 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं। राज्यों में 306 राज्य वि.वि., 129 से अधिक सरकारी एवं निजी मानद विश्वविद्यालय हैं। इसी प्रकार भारतीय चिकित्सा परिषद के अन्तर्गत लगभग 400 एमबीबीएस संस्थान हैं।
जब हम शैक्षणिक धरातल पर अपने इन संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में गुणवत्ता के मानक देखते हैं तो वैश्विक स्तर पर ये ज्यादा प्रभावी सिद्ध नहीं होते दिखाई देते, चिंता का कारण यही है कि अमरीका के चार वर्षीय स्नातक पाठयक्रम की तो हम एकदम नकल कर डालते हैं लेकिन जब इसके आंतरिक ढांचे पर नजर डालते हैं तो वह कहीं भी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उपयुक्त नहीं ठहरता। बेशक उच्च शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ इस पर निगरानी के लिए पर्याप्त नियामक संस्थाएं देश में बनी हैं जिनमें 1956 में स्थापित विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, 1945 में स्थापित अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद और 1972 में स्थापित एआईसीटीई शामिल है। सरकार ने शिक्षा को मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत रखा है जिसमें उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा, भाषा शिक्षण, पुस्तक प्रोत्साहन इत्यादि व्यापक विषय हैं जिन पर यदि प्रभावी नियंत्रण हो तो ये शिक्षा को जीवन्त बना सकते थे लेकिन वास्तव में पिछले दो दशकों से उच्च शिक्षा का जो बेड़ा गर्क हुआ है उस पर यदि समय रहते नकेल नहीं कसी गई तो 2030 में विश्वगुरु का लक्ष्य पाने के हमारे दावे खोखले ही सिद्घ होंगे, जिसमें 140 लाख युवा उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु महाविद्यालयों में प्रविष्ट होंगे और विश्व के चार में से एक स्नातक भारत का होगा।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने वामपंथी बुद्घिजीवियों की सुविधाजनक सलाह से पिछले दस वर्षों में उच्च शिक्षा के सदनों में भ्रष्टाचार के तांडव में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। एक ओर अमरीकी शिक्षा पद्घति की नकल की हो थी तो दूसरी ओर खुली अर्थव्यवस्था का तर्क देकर देशभर में शिक्षा के नाम पर दुकानें खोलकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को चोट पहुंचाई और शिक्षण संस्थानों की साख पर बट्टा लगाने का कार्य किया।
उच्च शिक्षा में निरन्तर निजी शिक्षण संस्थानों की बढ़ोतरी हो रही है जिस कारण चिकित्सा, विज्ञान और तकनीकी क्षेत्रों में पेशेवर लोगों के बढ़ने के परिणामस्वरूप बेरोजगारों की फौज खड़ी हो रही है। असली मुद्दा यही है कि राज्यों में दिन प्रतिदिन असंख्य उच्च शिक्षण संस्थान खोलकर हमें तसल्ली नहीं करनी चाहिए अपितु विद्यमान केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की समुचित निगरानी करते हुए शैक्षणिक, प्रशासनिक गुणवत्ता का ठोस मूल्यांकन करते हुए उच्च शिक्षण में शोध एवं नित नवीन अनुसंधान को बढ़ावा देना चाहिए। देश में नियमित शिक्षण संस्थाओं के अतिरिक्त दूरवर्ती शिक्षा के माध्यम से भी लाखों शिक्षार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। दूरस्थ शिक्षा परिषद द्वारा दूरवर्ती शिक्षा और मुक्त शिक्षा के प्रोत्साहन का प्रमाण इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय है जो विश्व का सबसे बड़ा संस्थान है। जहां विश्वभर के 3.5 लाख से अधिक शिक्षार्थी अध्ययन करते हैं, बेशक यहां भी अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों की तरह मनमाने एकाधिकार और भ्रष्टाचार के मुद्दे छाए रहते हैं।
केन्द्र सरकार ने 316 राज्यस्तरीय सरकारी विश्वविद्यालयों और लगभग 1300 विद्यालयों को उच्च शिक्षा के लिए अनुदान देने हेतु राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान की महत्वाकांक्षी योजना बनाई है।, जिसके अंतर्गत केन्द्र सरकार इन संस्थानों में 65 प्रतिशत अनुदान का सहयोग करेगी। इसके साथ ही उच्च शिक्षा की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए प्रत्येक स्तर पर कार्यदल गठित करने का संकल्प लिया है। उच्च शिक्षा में अपेक्षित सुधार की उम्मीद की जानी चाहिए इससे व्यापक स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता भी बढ़ेगी और शिक्षक का सम्मान भी बढ़ेगा। ल्ल
देश में आज शिक्षक और शिक्षा कहां है, शिक्षक दिवस पर यह सोचने की बात है। इस समस्या का मुख्य कारण यह है कि विद्यार्थी और शिक्षक जो मुख्य हितधारक हैं उनसे कभी भी किसी प्रकार का सलाह-मशविरा नहीं किया जाता और अधपके सुधार लागू कर दिए जाते हैं। व्यावहारिक जगत की सचाई यह है कि ऑपरेशन से पहले चिकित्सक भी रोगी और उसके परिजनों की अनुमति लेता है। लेकिन हम शिक्षकों की राय न लेकर ऐसे बर्ताव किया जाता है मानो हम तार्किक क्षमता से शून्य हैं। आशा है सरकार आगे छात्रों और शिक्षकों की सलाह से ही विद्यमान तंत्र में परिवर्तन करेगी। सभी छात्रों को उत्तीर्ण करने के सिद्धान्त ने भी शिक्षा का अवमूल्यन किया है। यदि हम बार-बार नए परिवर्तन करेंगे तो छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ेगा।
—प्रो. वसंत शर्मा, वरिष्ठ शिक्षाविद् एवं पूर्व प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय
वर्तमान समय में विद्यार्थी और शोधार्थी प्रतिबद्घता के स्थान पर साधन और सुविधाओं के अवसर की बात करने लगे हैं। घटते जीवन मूल्यों के कारण शिक्षा की बुनियादी शतोंर् में बड़ा फेरबदल आया है। ऐसे समय में पाठ्यक्रम में वस्तुपरक और विषयपरक अनुसन्धान होने चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य मानवीय मूल्यों और जीवन मूल्यों की स्थापना होनी चाहिए। मैं प्रतिबद्घ हूं, विद्यार्थियों में नयी वैचारिक सोच और नया दृष्टिकोण, नयी विचारभूमि पैदा करूंगी। हम शिक्षा को कार्यशाला, विचारगोष्ठियों और समूह संवाद से जोड़ें। जहां हमारी ये नयी नस्ल अपने तर्क, सुझाव और सार्थक सन्देश एक-दूसरे तक संप्रेषित करे। केवल लिखित परीक्षा ही नहीं मौखिक संवाद बहुत कारगर होंगे। लगातार बढ़ते पाठ्यक्रम का दबाव शिक्षण की गुणात्मकता को घटा रहे हैं। हम वचनबद्घ हों मूल्यों से हटकर अवसरवादी तमाम 'शार्ट कट्स' को आज से विदा करें। शिक्षक और विद्यार्थी में एक स्वस्थ संवाद और सम्बन्ध बने। दोनों का एक दूसरे पर विश्वास बढ़े।
—डॉ. सुधा उपाध्याय , प्राध्यापिका, जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज, दिल्ली वि.वि.
शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक समाज निर्माण की आधार भूमि होते हैं। वे सिर्फ ज्ञान ही नहीं देते प्रत्युत अपने जीवन और व्यक्तित्व से समाज में प्रतिमान भी प्रस्तुत करते हैं। किसी भी शिक्षित व्यक्ति पर माता पिता के आचार व्यवहार से अधिक शिक्षक के आचार विचार का प्रभाव होता है। उच्च शिक्षा कुछ मायनों में सामान्य शिक्षा से भिन्न होती है। यहां व्यक्ति को सिर्फ शिक्षित नहीं किया जाता बल्कि उसे 'संसाधन' में परिवर्तित किया जाता है। ऐसे में शिक्षकों के व्यक्तित्व का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। इन दिनों शिक्षकों में कतिपय चारित्रिक गिरावट देखी जा रही है। उनमें सेवा भाव का सिरे से अभाव देखा जा सकता है। वे छात्रों के प्रति न्यूनतम जिम्मेदारी भी लेने से बचते हैं। शिक्षण संस्थान उनके लिए वेतन जुटाने का साधन भर होता है। वे अधिक से अधिक सुविधा चाहते हैं और कम से कम सेवा देना चाहते हैं। कहते हैं वन्स टीचर इज आलवेज टीचर, लेकिन ये उच्च शिक्षण संस्थान के शिक्षक व्यवसाय, वाणिज्य, राजनीति आदि क्रिया कलाप को लेकर शिक्षण संस्थान तक आ जाते हैं जो उनके कर्तव्य के सर्वथा विपरीत माना जाना चाहिए। उच्च संस्थानों में शिक्षकों की स्वायत्तता की व्यवस्था इसलिए की गई थी ताकि वे उदारता से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकेंगे किन्तु व्यवहार में इस स्वायत्तता का उपयोग कामचोरी के लिए करते देखे जा सकते हैं। इसका कारण संभवत: उन पर निगरानी रखने वाले तंत्र का प्रभावी न होना है। —डॉ. रवीन्द्र कुमार दास, अनुसंधाता एवं कवि
विश्वविद्यालयों को योग्यता और सेवा शर्तों के साथ शिक्षकों की नियुक्ति सूचना वेबसाइट पर डालनी चाहिए। दैनिक समाचार पत्रों में लगातार विज्ञापन देकर शिक्षक चयन प्रक्रिया को जारी रखना चाहिए। यदि कोई मामला अदालत में जाता है तो उसको भी विज्ञापन देकर, चयन समिति के समक्ष वैधानिक तरीके से साक्षात्कार अथवा लिखित परीक्षा से नियुक्ति प्रक्रिया पूरी करनी चाहिए। संघ लोकसेवा आयोग की तर्ज पर नेट और परास्नातक उपाधि में मेरिट आधार पर 'टीचिंग कैडर' तैयार करना चाहिए। जब तक भारतीय शिक्षा आयोग नहीं बनता तब तक नियुक्तियों में देरी और गड़बड़ी की आशंका बनी रहती है। —प्रो. दुर्ग सिंह चौहान, कुलपति , जी.एल.ए. वि.वि.
उच्च शिक्षण मान्यता सम्बंधित स्वायत्त संस्थान
– अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) –
– दूरस्थ शिक्षा परिषद (डीईसी)
– भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर)
– भारतीय अधिवक्ता परिषद (बीसीआई)
– राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यापन परिषद (एनएएसी)
– राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद (एनसीटीई)
– भारतीय पुनर्वास परिषद (आरसीआई)
– भारतीय चिकित्सा परिषद (एम.सी.आई.)
– भारतीय फार्मेसी परिषद (पी.सी.आई.)
– भारतीय नर्सिंग परिषद (आईएनसी)
– भारतीय दंत परिषद (डीसीआई)
– केन्द्रीय होम्योपैथी परिषद (सीसीएच)
– केन्द्रीय भारतीय औषधि परिषद (सीसीआईएम)
– भारतीय पशुचिकित्सा परिषद (वीसीआई)
-सूर्यप्रकाश सेमवाल
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