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आवरण कथा/अफगानिस्तानमरहम और खंजर के बीच

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Aug 22, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Aug 2015 11:44:05

अगस्त का दूसरा सप्ताह। अफगानिस्तान के लोग भारत को धन्यवाद दे रहे थे। खबर आ रही थी कि बहुउद्देश्यीय सलमा बांध के पुनर्निर्माण का काम, जिसका बीड़ा भारत ने उठाया था, पूरा होने को है। युद्ध से जर्जर अफगानिस्तान के लिए अच्छी खबरें कम ही होती हैं। अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए, अफगानियों ने 100 मीटर लंबे तिरंगे को मानव श्रृंखला बनाकर लहराया। संदेश साफ था कि यहां लोग भारत को प्यार करते हैं। इसके पहले अगस्त के दूसरे हफ्ते में ही, अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भीषण आतंकी हमला हुआ था। इसके पूर्व में अफगानिस्तान में कतार से बम धमाके हुए। इन दोनों घटनाओं में सीधा संबंध है। देश के द्वितीय राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा, 'हमने अमन की उम्मीद की थी, लेकिन पाकिस्तान की जमीन से हमारे खिलाफ जंग की घोषणा कर दी गयी है।  पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने मुझसे वादा किया था कि अफगानिस्तान के दुश्मन पाकिस्तान के दुश्मन होंगे। हम चाहते हैं कि इस वादे का सम्मान किया जाए।'
कूटनीतिक वार्ताएं और राजनैतिक दांव-पेच तो चलते रहेंगे, लेकिन सुरक्षा विशेषज्ञ देख पा रहे हैं कि आईएसआई ने अफगानिस्तान की राजधानी में जब चाहे तब, जैसा चाहिए वैसा, हमला करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर दिया है। इन हमलों को पेशेवराना ढंग से और भलीभांति योजनापूर्वक अंजाम दिया गया। दिमाग आईएसआई का है और हाथ पाकिस्तानी फौज के खासमखास हक्कानी नेटवर्क का। हमले के पीछे खास मकसद है।  पाक फौज चाहती है कि अफगानिस्तान के शक्ति संतुलन में अशरफ गनी भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का मौका न दें। और कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हस्तक्षेप को अनिच्छुक ओबामा, उत्सुक चीन, तालिबानियों के बढ़ते कदम, और आईएसआई के इस शक्ति प्रदर्शन ने अशरफ गनी को विचलित करना शुरू कर दिया हो। अमरीका और चीन दोनों इस क्षेत्र में चल रही रस्साकशी के महत्वपूर्ण किरदार हैं। दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा है और पाकिस्तान ने बड़ी धूर्तता से इन दोनों प्रतिस्पर्धियों के बीच संतुलन साध रखा है। पाकिस्तान अपनी सामरिक-भौगोलिक स्थिति का पूरी तरह दोहन और अफगानिस्तान का भयादोहन कर रहा है। अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव बढ़ना अफगानिस्तान में पाकिस्तान की साजिशों को पलीता लगा सकता है। फिर उसका आरोप यह भी है कि भारत बेहद चतुराई से अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल बलूचिस्तान और सिंध के विस्फोटक असंतोष को उभारने में कर रहा है।
तालिबान का कुख्यात प्रमुख मुल्ला उमर दो साल पहले ही मर चुका है। 29 जुलाई 2015 को अफगान सरकार ने उमर की मौत के बारे में खुलासा किया। राष्ट्रपति भवन से जारी बयान में कहा गया कि उमर कराची में छुपा हुआ था और वहीं के एक अस्पताल में उसने आखिरी सांस ली। पाकिस्तान ने इस खबर का खंडन किया और पाकिस्तान के इशारे पर कुछ तालिबानियों ने मुल्ला उमर के जिन्दा होने का दावा किया।  अब इस बात पर मंथन हो रहा है कि तालिबान सरगना की मौत के बाद पाकिस्तान की मध्यस्थता वाली अफगानिस्तान सरकार-तालिबान शांतिवार्ता का भविष्य क्या होगा। यहां कुछ सवाल उठते हैं। जैसे-एक तरफ अफगानिस्तान को धमाकों से दहलाकर दूसरी ओर अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच शांति समझौते के लिए मध्यस्थता करवाकर पाकिस्तान क्या हासिल करना चाहता है? पाकिस्तान की फौज ने काबुल तक अपना सन्देश पहुंचाने के लिए धमाके की भाषा का ही चुनाव क्यों किया? पाकिस्तान ने मुल्ला उमर की मौत की खबर को क्यों दबाकर रखा?
इन सवालों के उत्तर अतीत से शुरू होते हैं। जब 80 के दशक में अफगानिस्तान में अमरीका और रूस का छायायुद्ध जारी था तब पाकिस्तान ने स्वयं को बेहद आरामदेह स्थिति में पाया। अमरीकी मदद और सऊदी पैसे से आईएसआई ने अफगानिस्तान में अपनी रणनीतिक पैठ बनानी शुरू की। लड़ाई लम्बी चली। पैसा सऊदी अरब दे रहा था और हथियारों का इंतजाम अमरीका कर रहा था। पाकिस्तान का काम जमीनी अमल करवाने का था। इस एक दशक के अनुभव में पाकिस्तान के मुंह खून लग गया और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के दिल में अपने नाखून गहराई से गड़ा दिए। भविष्य में अफगानिस्तान को अपनी महत्वाकांक्षाओं का चारा बनाने का फैसला लिया जा चुका  था। जब रूसी सेना अफगानिस्तान से वापस लौटने लगी और आईएसआई का खास हिकमतयार समूह अफगानिस्तान पर नियंत्रण स्थापित करने में विफल सिद्ध होने लगा, तब आईएसआई ने इस काम के लिए तालिबान को खड़ा किया। पाक फौज और आईएसआई ने तालिबान को आर्थिक, सैन्य सहयोग, हथियार और प्रशिक्षण दिया। जब 9/11 के हमले के बाद अफगानिस्तान के तालिबानी ठिकानों पर अमरीकी सेनाएं हमला कर रही थीं तब पाकिस्तानी सेना के विमान तालिबानियों को चुपचाप पेशावर पहुंचा रहे थे। इसमें  प्रमुखता दी जा रही थी हक्कानी गिरोह को, जिसने हाल ही में अफगानिस्तान में हमले किए हैं।

पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख ने इन तंजीमों को पाकिस्तान की रणनीतिक संपत्ति कहा था। इसके अपने कारण हैं। अफगानिस्तान में सक्रिय इन सब जिहादी तंजीमों की अपनी-अपनी खासियतें हैं, जिनके आधार पर पाकिस्तान इन मोहरों को अलग-अलग ढंग से इस्तेमाल कर रहा है। इसी के चलते अफगानिस्तान की शतरंजी बिसात पर कभी खूनी हमले होते हैं तो कभी सरकार और तालिबानियों के बीच शांति पर बात होती है। कभी अमरीकी या भारतीय दूतावास पर हमला होता है तो कभी संसद पर। आइये, इन मोहरों पर एक नजर डालते हैं।
हक्कानी नेटवर्क सोवियत सेनाओं से लड़ने के लिए सीआईए और आईएसआई  द्वारा तैयार किये गए मुजाहिदीनों में से एक था, जिसने जिहादियों के बीच अच्छा नाम कमाया था।   ओसामा बिन लादेन और अब्दुल अज्जाम ने अपना जिहादी सफर हक्कानी का शागिर्द बनकर ही शुरू किया था। इसका तालिबान और अल कायदा के साथ गठबंधन है। नेटवर्क अफगानिस्तान में अमरीका के नेतृत्व में लड़ रही नाटो सेनाओं और अफगानी सैन्य बलों पर हमले  करता है। ये आईएसआई की सबसे आज्ञाकारी संतान है।  साल  2011 में  यूएस चेयरमैन ऑफ द ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ एडमिरल माइक मुलेन ने हक्कानी  नेटवर्क को आईएसआई का सीधा हाथ करार दिया। उन्होंने कहा,'ये जिहादी संगठन पाकिस्तान के प्रतिनिधि (प्रॉक्सी) बनकर अफगान जनता-सरकार और नाटो सेनाओं पर हमले कर रहे हैं।'  
 गुलबुद्दीन हिकमतयार के हिज्ब-ए-इस्लामी के अलावा पाक ने अल कायदा की भी खूब सहायता की। ये दोस्ती कितनी गहरी थी इसका पता दुनिया को तब लगा जब एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन अमरीकी सील कमांडो के हाथों मारा गया। जेम्स टाउन फाउंडेशन के अनुसार, एबटाबाद में पाकिस्तान की सेना ने ओसामा को पूरी सुरक्षा में रखा था जिसकी जानकारी तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ और बाद में अश्फाक परवेज कियानी को भी थी। तालिबान की स्थापना अफगानिस्तान में ऐसी सत्ता लाने के लिए की गई थी जो पाकिस्तानी फौज के रणनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने में उपयोगी हो।  पाक फौज ने आईएसआई के माध्यम से तालिबान में भारी निवेश किया और ये निवेश काफी फायदेमंद रहा।
आज आईएसआई ने अपने तीन पंजों, तालिबान, हक्कानी नेटवर्क और अल कायदा के जरिये अफगानिस्तान को अपने शिकंजे में कस रखा है, और अपनी जरूरत के हिसाब से उसका खून बहाता रहता है। 1994 से 1999 के बीच लगभग एक लाख प्रशिक्षित पाकिस्तानी लड़ाके तालिबान की तरफ से लड़े। इनमें पाक फौज और आईएसआई के अफसर भी शामिल थे। लाखों लड़ाकों को अफगानिस्तान से आये पश्तून शरणार्थियों में से भर्ती किया गया था। जो भर्ती होने में अनिच्छा जताते थे उन्हें पाकिस्तान छोड़कर जाने के लिए कह दिया जाता था। फिदायीन हमलों में मरने वाले जिहादियों और आत्मघाती मानव बमों के परिवारों पर भी पैनी नजर रखी जाती रही है।  आईएसआई ने लगातार लड़ाई से तंग आकर जिहाद छोड़ने के इच्छुक तालिबानियों को गिरफ्तार करके प्रताडि़त किया, उनकी हत्याएं भी कीं। न्यूयार्क ट्विन टावर हमले के बाद 2004-05 में आईएसआई की शह पर अफगानिस्तान में तालिबानियों ने एक बार फिर भयंकर हमले शुरू कर दिए। ये सिलसिला आज तक थमा नहीं है। इस तरह अफगानिस्तान में आईएसआई की पिट्ठू तालिबान सरकार न रहने पर भी पाकिस्तान वहां की चुनी हुई सरकार को जब चाहे तब घुटनों पर लाने में सक्षम है।  
पाकिस्तान अफगानिस्तान के नेतृत्व को मनचाहा आकार देने का प्रयास करता रहा है।  तालिबानी सरकार तो उसकी अपनी ही सरकार थी। लेकिन जब तालिबानियों पर अमरीकी हमले शुरू हुए और ये तय हो गया कि, देर सबेर मुल्ला उमर के राज का अंत हो जाएगा, तो ऐसे सभी प्रमुख अफगानी नेताओं की हत्या का सिलसिला शुरू हो गया जिनका आने वाली सरकार में होना पाकिस्तानी इरादों के लिए खतरनाक था। सबसे महत्वपूर्ण नेता थे अहमद शाह मसूद जिन्हें अमरीका में 9/11 के आतंकी हमले के दो दिन पहले ही खत्म कर दिया गया था। हमलावर पत्रकार बनकर आये थे। उनको पाकिस्तान के लन्दन दूतावास ने वीसा प्रदान किये थे। अहमद शाह मसूद को 'पंजशीर का शेर'के नाम से जाना जाता था।  
मसूद एक ऐसे  व्यक्ति थे जो अफगान तालिबान, अल कायदा और पाक फौज की राह का सबसे बड़ा रोड़ा थे। जीवित रहते तो  निश्चित रूप से तालिबान के जाने के बाद अफगानिस्तान की सत्ता संभालते। मसूद की हत्या के बाद अब्दुल हक, जिनका अफगानिस्तान के पश्तूनों में व्यापक प्रभाव था, को अगले नेता के रूप में देखा जा रहा था। अब्दुल हक भी धुर पाकिस्तान विरोधी थे। अब्दुल हक ने एक बार कहा था कि 'हम अफगानी जिन्होंने आज तक कोई जंग नहीं हारी, उन पाकिस्तानियों से निर्देश कैसे ले सकते हैं, जिन्होंने आज तक कोई जंग नहीं जीती।' वे वार्ताओं में भी किसी प्रकार की पाकिस्तानी मध्यस्थता के खिलाफ थे। 26 अक्तूबर 2001 को उनकी हत्या कर दी गयी।  
  अब जबकि अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार के पैर जमने लगे हैं, तो पाकिस्तान तालिबान को सत्ता का महत्वपूर्ण भागीदार बनाना चाहता है। इसीलिए अब वह अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत का पक्षधर बन गया है। यही कारण है कि उसने मुल्ला उमर की मौत की खबर को दो साल तक दबाकर रखा। अब मामला सामने आने पर पाकिस्तान को मुंह छुपाते नहीं बन रहा। इस खबर के बाहर आते ही तालिबानी गुटों की दरारें भी सामने आने लगीं। जंगजूं फिर बाहें चढ़ाने लगे हैं। पाकिस्तान नए सिरे से कवायद में उलझ गया है। भारत के लिए चुनौती बढ़ गयी है। अब लड़ाई मरहम रखने वाले हाथों और कातिल के खंजर के बीच है।

प्रशांत बाजपेई

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