|
पृथ्वी सूक्त' में एक मंत्र आता है, ' माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:' अर्थात् हम पृथ्वी के पुत्र हैं, वह हमारी माता है। यह सूक्त पृथ्वी, प्रकृति, पर्यावरण, सभी बन्धु-बांधवों के साथ स्नेहपूर्ण संबंध तथा समग्र विकास के चिन्तन के प्रति हम सब के दायित्व का बोध कराता है।
प्रकृति, पर्यावरण और जल की रक्षा आज समूचे विश्व की चिन्ता का विषय है। कहा जा रहा है कि अगला विश्व-युद्ध जल-संकट के कारण होगा, इसीलिए अनेक वैश्विक-उद्योग समूहों ने नदियों को अपने कब्जेे में लेकर उसे व्यावसायिक रूप देना प्रारम्भ कर दिया है। इस स्थिति में नदियों को बचाने तथा संरक्षित करने एवं उद्योग-समूहों के बजाय जन-हित में उनका लाभ मिलता रहे, वे भूमि को उपजाऊ बनाकर अन्न तथा स्वच्छ जल देती रहें ताकि मानवता पोषित होती रहे, यह अपना दायित्व है। इनके संरक्षण से हम पृथ्वी पुत्र होने की सार्थकता और दायित्व-भावना प्रमाणित कर सकेंगे। पानी और नदियों का चिन्तन, उनके महोत्सवों के आयोजन तथा उनके संरक्षण के प्रयास इसी विराट जन-चेतना के अनुष्ठान का मंगलाचरण हैं।
उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन का सौभाग्य है कि यहां तीन स्थानों पर नदियों के संगम हैं। प्रथम बुंदेलखण्ड में दशार्ण (धसान) तथा वेत्रवती, ग्राम कहटा-सिकरी व्यास के निकट संगमित होती है। झांसी हमीरपुर तथा वेत्रवती के त्रिकोण पर धसान-बेतवा को अपना स्वत्व समर्पित करके अपनी यात्रा यहीं पूरी करती है। बेतवा की स्वच्छ निर्मल मधुर जलधारा तथा सुन्दर एवं वक्रीय तटीय रचना के कारण महाकवि कालिदास ने इसकी जलधारा को प्रेयसी के अधरों से अधिक मीठा बताया है तथा इसकी गति-वक्रता की उपमा प्रेयसी की भृकुटि-वक्रता से की है। भारतीय वाङ्मय में 'कलौ वेत्रवती गंगा' कहकर इसे कलियुग की गंगा माना है।
दूसरा नदी संगम कालपी के निकट पुराणकालीन नगर मत्स्यगंधापुर (वर्तमान मदारपुर) में है, जहां यमुना तथा जौंधर (व्यास-जन्मसरित) संगमित होती हैं। इसी संगम के टीले पर भगवान वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्होंने वेदों का संपादन तथा अट्ठारह पुराणों की रचना यहां की। दो नदियों के बीच के द्वीप पर जन्म होने के कारण वे 'द्वैपायन' कहलाये तथा कृष्णधर्मी होने के कारण 'कृष्ण'। इस प्रकार उनका पूरा नाम हुआ-कृष्णद्वैपायन व्यास। देश में अनेक स्थानों पर उनके आश्रम रहे, किन्तु जन्म-स्थान के महत्व को ब्रह्माण्ड-पुराण तथा महामुनि-व्यास (के़ एम़ मुंशी) में निरूपित किया गया है। यहीं शान्तनु-सत्यवती के प्रणय-संबंधों में आ रही बाधा को दूर करने के लिए आजीवन विवाह न करने तथा राज्य सिंहासन पर स्वयं या संतति को न बैठाने की भीष्म-प्रतिज्ञा कर उन्होंने सत्ता-विमोह का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया था।
तीसरा संगम जालौन जिले के जगम्मनपुर (जागीर) में कंजौसा-भरेह ग्रामों के मध्य के निकट है। यह मध्य प्रदेश के दतिया, भिण्ड तथा उत्तर प्रदेश के औरैया-इटावा जनपदों से घिरा हुआ है। यहां पांच नदियों का संगम है,जो पंचनदा कहलाता है। चम्बल, सिन्ध, पहूज तथा कारी को यमुना अपनी गोद में बैठाकर आगे बढ़ती है। यह इलाहाबाद में गंगा में विलीन होकर सभी बहनों को सागर-तट तक पहुंचाती है।
उपर्युक्त तीनों संगमों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पंचनदा है। यह देश का एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां पांच नदियां थोड़ी-थोड़ी दूरी पर मिलकर पांच-नदियों का संगम बनाती हैं। सच्चे अथार्ें में यह 'पंजाब' है। यहां का बीहड़ तथा संपूर्ण प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त रमणीय, दर्शनीय तथा नैसर्गिक सौन्दर्य से भरपूर है। दिल्ली-आगरा जैसे महानगरों से गुजरने वाली क्षीणकाय यमुना यहां सशक्त जल-समूह से सदानीरा बनकर देश की प्रमुख नदी-त्रयी (गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र) में गिनी जाती है। पुराणों में विभिन्न नदियों के संगम-स्थलों को भी तीर्थ माना गया है। तारने या पार लगाने अथवा कहें कि भवसागर से पार लगाने वाले स्थान को तीर्थ कहा जाता है। फिर पांच नदियों का संगम अति पुण्यदायी तीर्थ है। पंचनदा को भी तीर्थ माना गया है। बुन्देलखण्ड के अनेक राजाओं ने अपनी तीर्थयात्राओं के क्रम में पंचनदा पर पड़ाव किए हैं। इस प्रसंग पर अनेक काव्यग्रंथ लिखे गए हैं। हरिद्वार की 'गंगा आरती' की भांति यहां प्रतिदिन सूर्यास्त के समय पंचनदा-आरती होने लगी है। अग्निपुराण में तीर्थ तथा उनकी यात्राओं के महात्म्य पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि वह जीवन में एक बार तीर्थयात्रा अवश्य करें, वहां दान-पुण्य करें, अपने इष्ट का दर्शन करे तथा मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करे। हिन्दू धर्म में विशिष्ट मंदिरों, पवित्र नदियों, चारों धाम की यात्रा का अति महत्व है। प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा से यहां पन्द्रह दिवसीय मेला लगता है, जिसमें अनेक जिलों के हजारों भक्तगण, सर्दी के मौसम में रातभर खुले आकाश के नीचे लेटकर-बैठकर, कीर्तन करके ब्रह्ममुहूर्त की 'बुड़की' लेते हैं।
पंचनदा क्षेत्र अनेक दृष्टियों से समृद्ध एवं महत्वपूर्ण है, यह युगानुकूल-विकास के लिए बाट जोह रहा है तथा समाज को अपनी अस्मिता और वैभव के परिचय देने को आतुर है। यह ऋषियों की तपस्थली है। सन् 1857 के क्रान्तिकारियों की योजना-स्थली तथा चम्बल घाटी को कुख्यात और अशान्त करने वाले दुर्दान्त गिराहोंं का अभयारण्य रही है। औद्योगिक प्रगति के अनेक संसाधन प्रचुर मात्रा में इस अंचल में उपलब्ध हैं। अनेक सुन्दर प्राचीन किले, मंदिर, पातालतोड़ कुएं, सुरम्यवादियों से युक्त बीहड़ और कछार हैं, जिन्हें देखकर पर्यटक विस्मय कर सकते हैं। शौर्य सम्पन्न सैनिकों की सुदीर्घ परम्परा प्राचीनकाल से यहां रही है। इस अंचल में पांच हजार से अधिक पूर्व सैनिक हैं तथा भव्य हुतात्मा स्मारक भी हैं। इसे गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उ.प्र.के तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में लोकार्पित किया था।
पंचनदा क्षेत्र विकास की सम्भावनाओं की किरण है। इसके बहाने पंचनदा-पहूज क्षेत्र का सर्वांगीण विकास हो सकता है। इसमें उत्तर प्रदेश के जालौन, औरैया, इटावा के अलावा मध्य प्रदेश के भिण्ड तथा दतिया जिलों में विकास की किरण पहुंच सकती है। जालौन जिले में पंचनदा की सहायक नदी पहूज (कोंच तहसील) तक का क्षेत्र इस परिधि में आता है। अभी इस क्षेत्र की प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं –
1 पीने तथा खेतों की सिंचाई के लिए पानी का अभाव, बिजली का अभाव,परिवहन के साधनों की कमी,औद्योगिक विकास की कमी, रोजगार सृजन तथा आजीविका की समस्या,सुन्दर पर्यटक स्थल होने के बावजूद उनके प्रति उदासीनता, डाकुओं का आतंक तथा असुरक्षा का भाव,नदियों में बढ़ता प्रदूषण, पातालतोड़ कुएं से पानी की बर्बादी उत्यादि।
ये सभी समस्याएं एक दूसरे से गुंथी हुई हैं। पंचनदा की विकास योजना इस प्रकार की बनाई जानी चाहिए कि इन सभी समस्याओं का हल ढूंढा जा सके। आज से लगभग 30-40 साल पहले गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, दिल्ली तथा गांधी आश्रम, जौरा की ओर से वरिष्ठ सवार्ेदयी कार्यकर्ता श्री एस़ एऩ सुब्बाराव ने इस मामले में गम्भीर पहल भी की थी। उन्होंने बड़े बागियों माधौ सिंह-मोहर सिंह जैसों का आत्मसमर्पण करवाकर आतंक का वातावरण कम कर दिया था। चम्बल घाटी विकास निगम का गठन करवाने की पहल की थी ताकि अपराध से जुड़े लोग समाज की मुख्यधारा में वापस लौटें, रोजगार पायें तथा इस क्षेत्र में विकास को गति मिले। इसके लिए उन्होंने दोनों राज्यों की जनता के विचार जाने।
दस्यु समस्या के कारण पहले बड़े उद्योगपति बाहर से यहां आकर उद्योग नहीं लगाना चाहते थे। पर्यटक भी बाहर से नहीं आना चाहते थे। मण्डलीय पर्यटन समिति में पंचनदा को पर्यटक स्थल बनाने की मांग रखी गई। उक्त बैठक में तत्कालीन मण्डल आयुक्त श्री शंकर अग्रवाल ने कहा था-'कालिंजर जाने वाले पर्यटकों का अपहरण हो रहा है, तब पंचनदा कैसे सुरक्षित है? पहले डाकुओं का सफाया हो जाये तब वहां पर्यटन विकास की बात सोचिये।'अब अधिकांश डाकुओं का सफाया हो गया है। बिलौड़ के चौपाल में जहां डाकू पहलवान सिंह खुले आम पंचायत करता था, वहां अब आम आदमी पहुंच सकता है। इसलिए औद्योगीकरण तथा पर्यटन विकास के लिए अब उपयुक्त माहौल है।
पर्यटन विकास
जब उत्तर प्रदेश से उत्तराखण्ड पृथक हुआ था, तब प्रदेश के राजस्व में भारी गिरावट आई थी। उस कमी को पूरा करने के विकल्पों की तलाश की गई। 'फर्गुसन कम्पनी चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट'कंपनी को सर्वेक्षण का कार्य सौंपा गया। उसने परामर्श दिया था कि राजस्व की यह कमी 'बुन्देलखण्ड में पर्यटन विकास' से पूरी की जा सकती है। उनके तीन दिवसीय जनपद-प्रवास में उक्त कम्पनी के अधिकारी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ रहे और विभिन्न स्थानों की यात्राएं कीं। इनमें पंचनदा भी था। पंचनदा के बारे में राय बनी कि यह अत्यन्त सुन्दर एवं अद्वितीय पर्यटन स्थल हो सकता है, क्योंकि यहां पर्यटन के बहुआयामी पहलू जुड़ते हैं। पर्यटन के अनेक प्रकार हैं। उनमें से कुछ निम्नांकित हैं –
ऐतिहासिक, पुरातात्विक व सांस्कृतिक स्थल
इस अंचल में अनेक आकर्षक किले, गढि़यां तथा भवन हैं, जो ऐतिहासिक महत्व के हैं – इनमें कुत्तों के शौकीन राजा रामपुरा का हैरिटेज किला, जगम्मनपुर किला, टीहर, ऊमरी एवं सरावन के किले हैं। जगम्मनपुर तथा रामपुरा के किले राज्य पर्यटन विभाग ने अपनी वेबसाइट पर दिखाये हैं। दो हजार वर्ष प्राचीन करनखेरा टीला है, यह सेंगर राजवंश की प्रथम राजधानी थी। इसका मुख्यालय कनार तथा जगम्मनपुर रहा है। यहां पुरावशेष मिलते हैं। उत्तर प्रदेश- मध्य प्रदेश की सीमा पर पहूज किनारे मऊ -मिहोनी है,जो 160 वर्ष तक बुन्देलों की पहली राजधानी रही।
धार्मिक स्थल
यह क्षेत्र धार्मिक दृष्टि से अनेक मंदिरों से समृद्घ है। इनमें भैरव मंदिर रामपुरा, जालौनी माता, स्कन्द माता नावली, भूरेश्वर महादेव सरावन प्रमुख हैं। इसके निकटवर्ती मध्य प्रदेश में रावतपुरा सरकार, कांकसी के हनुमान, रतनगढ़ की देवी, मिहौना का बालाजी सूर्य मंदिर आदि प्रसिद्ध मंदिर हैं। पंचनदा टीला पर बाबा साहब का मंदिर है, जहां गोस्वामी तुलसीदास जी आये थे, जिसमें पांच नदियों की पांच मठियां हैं। उसके नीचे दर्जनों सती स्तम्भ हैं।
प्राकृतिक स्थल
समस्त बीहड़ क्षेत्र तथा पंचनदा का वन क्षेत्र रमणीक है। पहूज क्षेत्र में तीन सौ से अधिक पातालतोड़ कुएं हैं, जिनसे निरन्तर जल प्रवाहित होता रहता है। मध्य प्रदेश के निकटवर्ती क्षेत्र में सेवढ़ा का सनकुआं प्रपात विशेष दर्शनीय है। सेवढ़ा दतिया के बुन्देला राजाओं की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही है। यहां कन्हरगढ़ दुर्ग में बहुमंजिला गोल कोठी, कई बाग तथा शुक्राचार्य आश्रम सहित सुन्दर स्थान हैं। इसी क्षेत्र में छत्रपति महाराज शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की तपस्थली है, जहां उन्हें आध्यात्मिक शक्तियां प्राप्त हुई थीं। इसके निकट रतनगढ़ तथा उसका निकटवर्ती क्षेत्र अत्यन्त रमणीक है। इस क्षेत्र में ऐसे 'सेनीटोरियम' बन सकते हैं, जहां स्वास्थ्य लाभ तथा प्राकृतिक चिकित्सा के लिए लोग लम्बी अवधि तक रुक सकते हैं।
स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े स्थल
पंचनदा से थोड़ी दूर यमुना के निकट 1857 संग्राम के प्रमुख क्रान्तिकारी राजा पारीछत तथा उनकी पत्नी चन्देलन जूदेव का किला है, जो अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिया है। उसके अवशेष विद्यमान हैं। निकट ही गोपालपुरा का किला है, जहां 1857 के क्रान्तिकारियों ने अप्रैल 1858 में, कालपी की पराजय के पश्चात् अंतिम बार एक साथ बैठकर मंत्रणा की थी। इसके अतिरिक्त निकटवर्ती सेवढ़ा के जंगल में भी क्रान्तिकारियों के कार्यक्षेत्र एवं प्रवास के विवरण मिलते हैं। बनारस के राजा चेत सिंह, उन दिनों इन्हीं जंगलों में रहे तथा क्रान्ति की मंत्रणाएं हुईं।
अभयारण्य तथा वन विहार
इस क्षेत्र में अनेक वन्यजीव पाये जाते हैं। इस दृष्टि से यह अभयारण्य तथा वन विहार के लिए उपयुक्त क्षेत्र है। पंचनदा में डॉल्फिन मछली तथा कछुए पाये जाने की जानकारी मध्य प्रदेश वन विभाग ने दी है। उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री की कल्पना का 'लॉयन सफारी' अभयारण्य इससे कुछ दूरी पर है।
नौकायन
दिल्ली तथा आगरा में दुबली-पतली दिखने वाली यमुना यहां अपनी सहायक नदियों की अथाह जलराशि पाकर अत्यन्त समृद्ध, गहरी तथा चौड़े पाट वाली हो जाती है। जलीय मार्ग से कालपी भी निकट है। पंचनदा से कालपी तक नौकायन की पर्यटकीय यात्रा तथा प्रतियोगिताओं की व्यवस्था की जा सकती है। यहां से इलाहाबाद से पटना तक 'राजमहल क्रूज' जैसी नौकाएं चलाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विकास योजना को ताकत एवं गति मिल सकती है।
संग्रहालय
अभी इस क्षेत्र में कोई पुरातत्वीय संग्रहालय नहीं है, किन्तु अनेक पुरातत्वीय स्थलों से जुड़े होने के कारण प्रचुर मात्रा में पुरावशेष बिखरे पड़े हैं। उन्हें संग्रहित करके पुरातत्व संग्रहालय बनाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग ने यहां महत्वपूर्ण पुरावशेष खोजे हैं। इससे दुर्लभ मूर्तियों की चोरी रुकेगी और उनका संरक्षण होगा।
पर्यटन की एक नयी अवधारणा
इस अंचल में पर्यटन की एक नयी अवधारणा सोची जा सकती है-बीहड़ दर्शन तथा पांचों नदियों के मिलन स्थल को तीन-चार कोस की परिधि में दिखाने का उपक्रम। इसके लिए पर्यटन विकास की योजना में दो प्रावधान करने होंगे – प्रथम, एक ऊंचे स्तम्भ पर 'घूमता हुआ रेस्तरां' बनाया जाए जिस पर बैठकर कोसों दूर का बीहड़ी परिदृश्य, नदियों के मिलन स्थल भी देखें। ऐसे धूमते हुए रेस्तरां सूरत तथा मुम्बई में भी बनाये गये हैं। दूसरा विकल्प है, रज्जुमार्ग (रोप-वे) से उड़न खटोलों पर बैठकर दो टीलों के बीच यात्रा करवाई जाए। ऐसी व्यवस्था उत्तराखण्ड सहित अन्य पहाड़ी चोटियों पर मन्दिरों के दर्शन की है। बीहड़ दर्शन की ऐसी व्यवस्था देश में अपने ढंग के इस पर्यटन स्थल पर अभूतपूर्व होगी। यहां से कालपी थोड़ी ही दूरी पर स्थित है, जो द्वार युग से अब तक विभिन्न कालखण्डों में ऐतिहासिक-धार्मिक, व्यापारिक एवं पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर है। उसे पर्यटन स्थल बनाने की मांग लम्बी अवधि से की जा रही है। इस क्षेत्र के विकास से कालपी का भी पर्यटकीय विकास जुड़ेगा।
ग्रामीण पर्यटन की अवधारणा
संयुक्त राष्ट्रसंघ के यू़ एऩ डी़ पी. कार्यक्रम के अन्तर्गत 'ग्रामीण पर्यटन' को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। यानी एक ऐसे परिसर का निर्माण जहां शहरों तथा विदेशों के लोग गांव की शान्ति पा सकें। गंाव जैसे झोपड़ीनुमा मकान, गौशालाएं, बैलगाड़ी में सैर, देशी व्यंजनों का भोजन। इन सब पर आधारित योजना बनाई जा सकती है।
पर्यटन-विकास से रोजगार सृजन
उक्त क्षेत्र में पर्यटन विकास योजना लागू होने से स्थानीय नागरिकों को अनेक प्रकार के रोजगार मिलेंगे। इनमें टैक्सी, निजी वाहन, होटल तथा क्षेत्रीय शिल्प-कला वस्तुएं, यहां की लोक-शिल्प कला के लिए पहूज के तटवर्ती क्षेत्र में खस तथा डाब (मूंज) है। डाब से अनेक प्रकार के सजावटी सामान बनाए जा सकते हैं। निकटवर्ती कालपी से हस्तनिर्मित कागज से बनी अनेक वस्तुएं पर्यटकीय आकर्षण हो सकती हैं। निकटवर्ती जंगलों में प्राप्त लकड़ी से खिलौने बनाए जा सकते हैं। बुन्देली व्यंजनों में पर्यटकों की विशेष रुचि है। थोपा, महेरी, डुबरी, बरा, गोरस, मांड़े की समूंदी, कालौनी, बाजरा का मलीदा, पौनछक, बाजरा के पुआ आदि ऐसे व्यंजन हैं,जो इन सैलानियों को नए रोचक आस्वाद दे सकते हैं। अनेक मेलों, महोत्सवों, अतिथिगृहों में ऐसे लोक-व्यंजनों के स्टॉल लगाकर सफल प्रयोग किए जा चुके हैं। इससे भी रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, विशेषकर महिलाओं के लिए। लोक-कलाकारों को कला प्रदर्शन का अवसर मिलेगा। राजस्थान की भांति पर्यटन को रमणीय कला-संस्कृति से जोड़ा जा सकता है। वहां केवल भवन नहीं दिखाये जाते हैं, कलाएं भी दिखाई जाती हैं। इस संपूर्ण यात्रा में चाय, दोपहर का भोजन तथा रात्रिकालीन भोजन के समय स्थानीय पारम्परिक मंचीय कलाओं, नृत्यों, गीत-गायन से कलाकारों को रोजगार मिलेगा। यहां के पारम्परिक पूजा-अनुष्ठान के चौक, लोककला चित्रों के प्रति पर्यटकों का विशेष आकर्षण है। दिल्ली-हाट में इसी तरह के लोककला चित्र दस-बीस हजार रुपये तक के बिकते हैं। महानगरों तथा विदेशों में वे चित्र 'स्टेटस सिम्बल' बन गये हैं। ऐसे चित्रों का अंतर्राष्ट्रीय बाजार बन चुका है।
आवागमन तथा परिवहन के साधन
वर्तमान में पंचनदा पहुंचना बहुत कठिन है। इसके लिए कालपी या उरई से बस या निजी वाहन से रामपुरा होकर जगम्मनपुर जाकर पंचनदा पहुंचा जा सकता है। निजी वाहन से उरई से पंचनदा का मार्ग लगभग सवा-डेढ़ घण्टे का है। सुविधा तथा आवागमन की दृष्टि से पंचनदा के लिए निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन इटावा है। वहां से पंचनदा पर पुल बन गया है। दिल्ली से यमुना एक्सप्रेस वे से होकर, आगरा-कानपुर राजमार्ग होकर इटावा से लखना होकर यहां पहुंचा जा सकता है। भविष्य में उरई-भिण्ड तथा उरई-दिबियापुर रेलवे लाइन बनाया जाना प्रस्तावित है। पर्यटन विकास की योजना बनने पर उक्त रेलमार्ग का, पंचनदा के निकट कोई स्टेशन बनाकर उससे व्यवस्था सम्भव है। इटावा के निकट सैफई में हवाई पट्टी बन चुकी है। वहां से भी हवाई यात्रा की व्यवस्था की जा सकती है।
बुन्देलखण्ड में पर्यटन विकास के लिए उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश दोनों सरकारों को साझा-आयोग या समिति बनानी चाहिए क्योंकि दोनों राज्यों की सीमाओं में दर्शनीय स्थल थोड़ी-थोड़ी दूरी पर मिलते हैं, जिनका विकास साझे प्रयास से ही सम्भव है। एक संयुक्त नीति बनाने के बाद दोनों सरकारें अपने-अपने राज्य में कार्य करें, इससे जनता भी समझ जायेगी कि पर्यटन विकास के प्रति कौन कितना समर्पित है।
उत्तर प्रदेश शासन ने इसके निकट इटावा जिले से सटा हुआ पंचनदा-सेतु बनाकर उल्लेखनीय कार्य किया है। इससे आगरा इटावा से यह क्षेत्र सड़क मार्ग से सीधा जुड़ गया है। इस क्षेत्र के सांसदों, मंत्रियों,विधायकों तथा प्रशासन ने पंचनदा क्षेत्र के विकास में कोई रुचि नहीं ली। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने 'जल प्रबंधन' के नाम पर कुछ प्रदर्शनकारी कार्य किए।
बड़े-बड़े अधिकारी तथा 'जलपुरुष' आए, किन्तु ठोस काम नहीं हो सका। एक युवा नेता ने कुछ दिनों के लिए अपने नाम के साथ 'पंचनदा' भी जोड़ लिया था। इस अंचल के विकास तथा प्रतिवर्ष महोत्सव करने का संकल्प लिया था। बड़े विकास की बात तो दूर है, पंचनदा टीले से नीचे नदी तक पहुंचने हेतु सीढि़यां, घाट तथा यात्री-विश्रामगृह भी नहीं बन सका। खैर ़…यह स्थल विकास की बाट जोह रहा है। स्वयंसेवी संस्थाओं, पंचायतों की भूमिका तथा सांसदों एवं विधायकों की क्षेत्रीय विकास निधियां इन योजनाओं के लिए सरकारी योजना बनाने हेतु दबाव बनाने की हो सकती हैं।
जन-दायित्व निर्धारित करने के लिए जन-जागरण अभियान चलाये जा सकते हैं। जनजागरण अभियान चलाने में सबसे अधिक भूमिका मेला, किसान प्रदर्शनी, महोत्सवों तथा गोष्ठियों की हो सकती है। उनका आयोजन विकास को गति दे सकता है।
पंचनदा की पांच नदियां
देश के तीथार्ें में पांच नदियों के महासंगम के रूप में 'पंचनदा' की बड़ी मान्यता है। इन नदियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी यहां दी जा रही है।
यमुना देश की तीन बड़ी नदियों में से एक है और इसे तीर्थ की मान्यता प्राप्त है। यह उत्तराखण्ड में यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है। इसका उद्गम स्थल दक्षिण-पश्चिम हिमालय के बन्दरपूंछ चोटियों से, समुद्र तल से, 6387 मीटर ऊंचाई से प्रवाहित होकर 1376 किलोमीटर की यात्रा पूरी करके, प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर गंगा में मिल जाती है। यह उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश से गुजरती है। दिल्ली की लगभग 70 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति यमुना करती है। दिल्ली में बजीराबाद के निकट बने सूरघाट पर नदी में मंच बनाकर दर्शकदीर्घा सीढि़यों पर बनी है। यहां पर प्रमुख साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम वर्ष भर आयोजित होते रहते हैं। यह सूर्य की पुत्री तथा यम-शनि की बहन है।
ल्ल चम्बल- यह यमुना की सहायक नदियों में प्रमुख है। इन्दौर के निकट महू जिले के मानपुरा से निकलकर जालौन जिले में जगम्मनपुर के निकट कंजौसा भरेह ग्राम में पंचनदा में तीन अन्य नदियों सिन्ध, पहूज तथा क्कांरी को साथ लेकर यमुना में मिलती है। यह उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान की यात्रा करती है। इसका प्राचीन नाम चर्मण्वती है।
ल्ल पहूज- यह झांसी के निकट सिमरदा तालाब से निकलकर झांसी, उन्नाव होते हुये सिन्ध के साथ पंचनदा में मिलती है। इसका प्राचीन नाम पश्यावती है। यह झांसी नगर की जल आपूर्ति करती है। सिन्ध की सहायक नदी है, जो पंचनदा के निकट यमुना के साथ संगमित होती है।
ल्ल सिंध- यह विदिशा (म.प्र.) जिले के उत्तर-पूर्व की ओर से निकलकर गुना, अशोकनगर, शिवपुरी, दतिया, ग्वालियर, भिण्ड होकर जाालौन तथा इटावा की सीमा पर पंचनदा के ठीक पहले चम्बल से मिलकर पंचनदा में गिरती है। लगभग 470 किलोमीटर यात्रा में 461 किमी. मध्य प्रदेश तथा 9 किमी. उत्तर प्रदेश में प्रवाहित होती है।
ल्ल क्कांरी- यह मुरैना के पास से निकलती है तथा मुरैना-भिण्ड होते हुई इटावा, जालौन तथा भिण्ड की सीमा पर स्थित पंचनदा में सिन्ध की सहायक नदी के रूप में, संगम बनाती है।
पंचनदा की आरती
आरती पंचनदाा मैया की
ऊं पंचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।
तुम हो पालनकर्ता, सुख सम्पत्ति दाता।
ऊं पंचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।।
यमुना अंक विराजी (मैया), सिन्ध पहुज क्वांरी।
चम्बल संग पांचों की, जलधारा भारी।
ऊं पंचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।
दर्शन सुखद मनोहर मैया, मन पुलकित गाता।
तुम सबकी उद्धारक, कृषि मंगल दाता।
ऊं प्ंाचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।।
जल स्पर्श तुम्हारा, मैया पाप शोक हरता।
होती निर्मल काया, सब दुख है मिटता।
ऊं पंचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।
भक्ति भाव श्रद्धा से, मैया जो तुमको ध्याता।
दोनों लोक सुधरते, रिद्धि सिद्धि पाता।
ऊं पंचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।।
जो संकल्प पूर्वक, मैया तुमको स्वच्छ करे।
कृपा आपकी पाकर वह जीवन धन्य करे।
ऊँ पंचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।।
कहत 'कुमुद' भक्तन की, मैया तुम हो शुभ दाता।
जो यह आरति गाये, वांछित फल पाता।
ऊँ पंचनदा माता, मैया जय पंचनदा माता।।
पंचनदा के विकास की योजना
ांचनदा में प्रचुर जलराशि है। पांचों नदियों के संगम पर यमुना को अधिक पानी मिल जाता है, जो गंगा से कहीं अधिक है। यहां छोटे-छोटे बांध बनाकर खेती, सिंचाई तथा पेयजल की व्यवस्था हो सकती है।
बांध बनने के साथ ही छोटे-छोटे पनबिजलीघर बनाकर बिजली के अकाल से मुक्ति मिल सकती है। ऐसी ही योजना उत्तराखण्ड में बनाकर कई पनबिजलीघर स्थापित किए गए हैं। बिजली समस्या हल हो जाने से उद्योग-व्यापार, खेती, सामाजिक वानिकी तथा पर्यटन के अनुकूल वातावरण बनेगा।
पर्यटन-विकास प्रदेश तथा देश में प्राथमिकता के मानचित्र पर है। इस अंचल में ऐसे अनेक स्थल हैं,जो पर्यटकों के लिए उपयुक्त हैं, उन्हें जोड़कर पर्यटक-पथ बनाया जा सकता है। पर्यटन विकास में शामिल होने से सड़कों, बिजली, पर्यटक आवास, होटलों का जाल बिछ सकता है। यातायात के इस साधन-विकास का लाभ पूरे क्षेत्र तथा जिले व प्रदेश को मिलेगा।
बिजली आने से उद्योगों में तेजी आयेगी। बंगरा का बंद बड़ा औद्योगिक स्थान आबाद हो सकता है। माधौगढ़ में शुगर मिल फिर से चालू हो सकती है। कोल्हुओं के ऊर्जाकरण से गुड़-उत्पादन में वृद्धि हो सकती है। आलू, सब्जी, मटर आदि के बहुतायत वाले अंचल में कोल्ड स्टोरेज लगाये जा सकते हैं।
उक्त उद्योगों की स्थापना से उनकी छोटी-छोटी 'फीडर' इकाइयां बनेंगी। इनसे तथा पर्यटन विकास से जुड़ी अनेक सहयोगी-व्यवस्थाओं तथा व्यापार से रोजगार सृजन होगा।
बीहड़ों का समतलीकरण करके कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाया जा सकता है।
अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
टिप्पणियाँ