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अपनी बात:सच तो सामने आना ही था

by
Aug 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Aug 2015 12:39:51

बादल घिरे हैं मगर माहौल में घुटन। मानसून सत्र मगर संसद ठप!दिल्ली के लिए यह एक और सामान्य सा ही दिन था, लेकिन कुछ था जो 12 अगस्त 2015 को खास बना गया। स्वाधीनता की वर्षगांठ सिर्फ तीन दिन दूर थी जब भारत ने एक अलग मनोवैज्ञानिक स्वतंत्रता का अनुभव किया। देश की सबसे बड़ी कचहरी में सुषमा स्वराज ने इस दिन जो कहा उसे सिर्फ विदेश मंत्री का स्पष्टीकरण , आरोप-प्रत्यारोप या बदले की भावना समझना गलत होगा। गलत ही नहीं, अन्याय होगा।
सही मायनों में यह एक जनप्रतिनिधि के माध्यम से समाज के मन में घुमड़ते सवालों का विस्फोट था। यह बात दीगर है कि परिस्थितियों ने इसके लिए ऐसे व्यक्ति को चुना जिसकी मानसिक तैयारी अच्छी थी।  लोकसभा में सुषमा स्वराज के बयान में जवाब से ज्यादा वे सवाल शामिल थे जो अरसे से पूरे देश को व्यथित करते रहे मगर सही जगह सामने न आ सके।  वैसे, लोकतंत्र में परिवार को पोसने की अलिखित रूढि़यों, इसकी ताकत को बांधने वाली जंजीरों पर प्रहार करने के लिए संसद से बढि़या जगह हो भी क्या सकती थी?
स्वतंत्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति को एक रोग लगा है। आलोचना और समालोचना तो छोडि़ए, कुछ लोगों और परिवारों के बारे में यह मान लिया गया था कि वे आक्षेपों से भी परे हैं। उन पर उंगली उठाई ही नहीं जा सकती। 12 अगस्त को उन्ही जंजीरों पर प्रहार हुआ है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के प्रथम परिवार की कारिस्तानियां इससे पहले कभी जनता के सामने नहीं आईं या और किसी ने इस सच को उघाड़ने का साहस नहीं किया, लेकिन मौके और मंच का अपना महत्व होता है। स्वतंत्रता के 68 वर्ष पूरे होने को हैं और 69वें वर्ष की दहलीज पर भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी झिझक लोकतंत्र के मंदिर में टूटी है।
संसद की कार्यवाही को हुड़दंग का बंधक बनाने वाली कांग्रेस दंग थी। उसे लगता था कि ललित मोदी को फंदे की तरह प्रयोग कर वह केंद्र सरकार को दाबे में ले लेगी। लेकिन यह भ्रम अब उसी पर भारी पड़ता दीख रहा है। सुषमा स्वराज के इस अवतार के माने अलग-अलग लोगों या पक्षों के लिए अलग-अलग हैं। भाजपा के लिए यह उस घुटन से मुक्ति का क्षण है जो तीन सप्ताह से विपक्ष ने उसके लिए खड़ी की थी। सदन की कार्यवाही अगले दिनों में कैसी और कितनी चल सकेगी, कहा नहीं जा सकता। लेकिन इतना तय है कि विदेश मंत्री के प्रखर जवाब ने सरकार को अनचाही रक्षात्मकता की राह पर जाने से रोक लिया है।
पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम के लिए यह उन अनचाही चर्चाओं के उघड़ जाने का वक्त है जो उनकी मेहनत से रची साफ-सुथरी छवि से जरा भी मेल नहीं खातीं। उनके बेटे कार्ती द्वारा पिता के प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए एटीपी लॉन टेनिस का करार सस्ते में झटकने की खबर पिछले सप्ताह ही खुली थी। कांग्रेस के किसी नेता से बोलते नहीं बन रहा था, ऐसे में पत्नी नलिनी चिदंबरम की मंत्रालय द्वारा हितपूर्ती? लेकिन जहां एक परिवार सबसे बड़ा है वहां उस परिवार की कहानियों के मायने भी बड़े हैं। कल तक 'परिवार' हठधर्मिता के बूते सरकार विरोधी उफान के अगुआ की मुद्रा में था। मुट्ठी तानकर नारे उछालतीं सोनिया माइनो, बाहें चढ़ाए, दाढ़ी बढ़ाए आक्रोशित राहुल गांधी। लेकिन अब ओतावियो क्वात्रोकी, एंडरसन और इटली स्थित रिश्तेदेरों का जिक्र उघड़ने से कांग्रेस सन्नाटे में है। परिवार को कुछ सूझ नहीं रहा।
यह सिर्फ अर्जुन सिंह की एक किताब नहीं हो सकती! क्या यह इटली से संबंध रखने वाले नामों की किसी सूची की वजह से है? बहरहाल, आने वाले दिनों में क्या होगा, संसद की ठिठकन का सिलसिला टूटेगा या राजनैतिक रार और बढ़ेगी, कहा नहीं जा सकता। लेकिन इतना जरूर है कि इस एक दिन को संसदीय इतिहास में कुछ विशेष संदभार्ें के लिए याद रखा जाएगा। कुछ ऐसे संदर्भ जो दर्प से भरे चेहरों को उनकी असलियत दिखा सकते हैं। सोशल मीडिया में धक्के खाने वाली कई बहसों को आज संसदीय आधार मिल गया है।
कौन-जीता, कौन हारा…यकीनन कुछ लोग भरे बैठे होंगे। लेकिन इस दिन को, सुषमा स्वराज व अन्य बयानों को बदले की भावना, आरोप-प्रत्यारोप से परे देखना चाहिए। बड़ी बात यह है कि परिवर्तन के इस दौर में संसद ने किसी परिवार को बेवजह पलकों पर बैठाने की अलिखित परंपरा छोड़ दी है। तल्खियां अपनी जगह हो सकती हैं, तर्क अपनी जगह मौजूद हैं। जहां-जहां जरूरी है जांच और सख्त कार्रवाई होनी ही चाहिए। सच का सामना सबको बराबरी और निष्ठा के साथ करना ही होगा। कांग्रेस आहत है मगर असल में यह उसके 'युवराज' से पूछे जाना वाला प्रश्न है- इस स्वतंत्रता दिवस पर प्रथम परिवार के 'संसदीय सामान्यीकरण' से उन्हें कोई दिक्कत तो नहीं?

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