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आज विभिन्न क्षेत्रों में एक वैचारिक संघर्ष जैसा जारी है। संघर्ष के बिन्दु हैं-'भारत' से क्या तात्पर्य है, यह क्या है और इसे क्या होना है। यह कोई किसी तथ्य पर पहुंचने का विद्वत विमर्श ही नहीं है बल्कि देखा जाए तो यह सत्ता का संघर्ष ज्यादा मालूम होता है। मीडिया, शिक्षा और सरकार के स्तर पर जिन लोगों का भारत में विचार-क्षेत्र पर नियंत्रण है वही अधिकांशत: अपने संसाधनों के साथ भारत पर नियंत्रण जमाए दिखते हैं, और इसके भविष्य का निर्धारण करते हैं। भारत की वास्तविक पहचान को लेकर जारी इस बहस में, देश का नाम भारत-जो देश का सही और अपने में संपूर्ण नाम है-आमतौर पर अनदेखा ही रखा जाता है, क्योंकि अगर ऐसा न हो तो बहस की पूरी दिशा एकदम से ही बदल जाए।
इस देश का परंपरागत नाम भारत ही है और यही यहां के संविधान में समाहित है। इससे साफ है कि इस संविधान के रचनाकार इस नाम का महत्व और संपूर्ण भारत के संदर्भ में इसके मर्म को जानते थे। संविधान का अनुच्छेद 1(1) स्पष्ट करता है-'इंडिया, जिसका नाम है भारत, राज्यों का एक संघ होगा।' अगर हम इंडिया की जगह इस देश को भारत नाम से ही पुकारें तो इस देश की प्रकृति और पहचान से जुड़े कुछ मुद्दे तो स्वत: ही सुलझ जाएंगे। वैदिक काल से ही इस क्षेत्र के साहित्य में इस देश का नाम भारत रहा है जो दर्शाता है कि यह देश हजारों सालों से अवस्थित है।
अगर हम सिर्फ 1947 के बाद वाले भारत पर ही गौर करें, तो सबसे पहले दिखता है इस देश का बंटवारा जो आगे चलकर संस्कृति, नागरिकों और भाषा के भेदों और बंटवारों के चलते बढ़ता गया, जिसमें हर एक की अपनी अलग पहचान थी। भारत के प्राचीन इतिहास के प्रति पूर्वाग्रह रखने वाले लोग इस देश का नाम भारत बताने से भी कतराते हैं। इसके पीछे एक खास उद्देश्य होता है, जो है भारत को एक ऐसे देश के रूप में प्रस्तुत करना जिसमें 1947 से पहले ऐसा कुछ खास नहीं था जिसका उल्लेख तक किया जा सके। ऐसा दिखाकर उनको इस देश को उस दिशा में मोड़ने की सहूलियत मिल जाती है जिसमें वे इसे ले जाना चाहते हैं, ऐसा देश जिसकी अपनी खुद की कोई संस्कृति नहीं थी। कुछ आधुनिक विचारकों का कहना है कि भारत तो औपनिवेशिककाल के दौरान अंग्रेजों की ईजाद है, जिन्होंने उपमहाद्वीप के लोगों, देशों, संस्कृतियों और भाषाओं के भिन्न समूहों को एक प्रशासन तले ला दिया था, जिनका आपस में कुछ भी साझा नहीं था। कुछ अन्य विचारक मुगलों (जिन्होंने इस देश को हिन्दुस्थान नाम दिया) को श्रेय देते हैं कि उन्होंने इस विशाल भूमि में एक प्रकार का राष्ट्रीय भाव जगाने का काम किया। अगर हम देश का नाम भारत ही बोलें तो कोई नहीं कह सकता कि इस क्षेत्र में संस्कृति, सभ्यता या इतिहास में कोई एकात्मता नहीं रही थी। भारत नाम तो इस देश के उस इतिहास को प्रतिबिम्बित करता है जो वैदिक काल के सुप्रसिद्ध सम्राट भरत से शुरू हुआ था, जो राम, कृष्ण या बुद्ध से भी पहले, प्राचीन पुरु राजवंश के आरम्भिक राजाओं में एक थे।
भारतीय संस्कृति: धर्म की संस्कृति
इस क्षेत्र की पुरानी नामावली में भारतीय संस्कृति अपने आप में बहुत कुछ कहती है। भारतीय संस्कृति कोई ऐसी चीज नहीं है जो पिछली एकाध सदी में ही विकसित हुई है, और जिस पर दिल्ली के तथाकथित बौद्धिक जमातों के भीतर चर्चा-वार्ताएं चलती हैं। भारतीय संस्कृति ही भारत की संस्कृति है। भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत मात्र एक भाषा नहीं है बल्कि संस्कृति की पद्धति है, इसका परिशोधन है, ज्ञान का पिण्ड है। भारतीय संस्कृति का विचार ही भारतीयता का अथवा भारतीय शास्त्रीय संगीत, नृत्य, काव्य, दर्शन, औषधि, गणित और विज्ञान का भान कराता है और इसके युगानुकूल पुनरोत्थान की बात करता है। इसमें देश की प्राकृत या क्षेत्रीय भाषाएं और साथ ही, उनकी सांस्कृतिक परंपराएं भी शामिल हैं, जो आपस में जुड़ी हैं।
प्राचीन भारत की संस्कृति या भारतीय संस्कृति सर्वप्रथम तो धर्म की संस्कृति है। यह संपूर्ण जीवन और मानव जीवन तथा संस्कृति के सभी आयामों में धर्म को समझने के प्रयासों से निर्मित हुई है। ये धार्मिक संस्कृति आध्यात्मिक मार्गों में बहुलतावाद को समाहित किए हुए है, जिसमें हिन्दुत्व के अनेक संप्रदायों के साथ ही, बौद्ध, जैन और सिख शामिल हैं और हर वह मत शामिल हो सकता है जो बहुलतावादी दृष्टिकोण का सम्मान करता हो और संपूर्ण जीवन के प्रति आदर रखता हो।
आज भारत में भारतीय संस्कृति को सर्वोपरि रखने वालों में अंग्रेजी मीडिया नहीं है, कालेजों, विश्वविद्यालयों के अधिकांश शिक्षक नहीं हैं। ये समूह भले ही पारंपरिक संस्कृति के आयामों पर थोड़ी-बहुत आवाज उठाते हों, वह भी आमतौर पर कहीं छिटपुट, पर ऐसा करते हुए वे उसके समग्रता में जुड़ावों को अनदेखा कर देते हैं। उदाहरण के लिए, वे स्थानीय रीति-रिवाजों को सबसे अलग देखते हैं। या फिर वे इस विचार को सिरे से नजरअंदाज कर देते हैं कि संपूर्ण क्षेत्र में एक सर्वसमावेशी संस्कृति है।
दूसरी ओर, भारत की संस्कृति की बात करने वाले हाशिए पर ही रहे हैं और उनकी अक्सर संकीर्ण सोच रखने वाले या काल बाह्य कहकर भर्त्सना की जाती है। हालांकि हमें आज जो आधुनिक विचारधाराओं और शिक्षा के चलन में दिखता है उससे उलट, भारत की सनातन संस्कृति नेे जीवन के एक विस्तृत दृष्टिकोण और चिंतन की रचना की है। भारत की ये आवाजें अब भी सुनी जा सकती हैं और फिर से उनकी उपस्थिति महसूस की जा सकती है।
इसके मायने हैं कि देश की एकात्मता और पहचान की स्थापना के लिए स्वतंत्रता के बाद एक नई भारतीय संस्कृति गढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत है चिरंतन भारतीय या धार्मिक संस्कृति, इसकी प्रासंगिकता और भिन्न दृष्टिकोणों को अपनाने और अपने साथ एकात्म करने की इसकी क्षमता तथा समय के अनुसार अपने में बदलाव करने की इसकी सामर्थ्य का सम्मान करने की। अगर भारत आज एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है, तो यह भारत के नाते इसके इतिहास की वजह से है। इसमें दोराय नहीं है कि धार्मिक संस्कृति किसी राजनीतिक या धार्मिक व्यवस्था अथवा सिद्धांत तक सीमित नहीं है। भारतीय धार्मिक संस्कृति भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं थी बल्कि पूरे एशिया तक फैली थी जिसका यूरोप और विश्व के बहुत बड़े हिस्से तक भी प्रभाव था। पर यह भारत ही था जहां इस अनूठी धार्मिक सभ्यता की जड़ें फैलीं और अपने को सहेजे रख पाईं।
भारतीय संस्कृति अधिकांशत: ज्ञान की संस्कृति है जो अध्ययन को प्रोत्साहित करती है। यह ध्यान को अध्ययन की सबसे महत्वपूर्ण स्थिति मानती है जिसे कोई भी कर सकता है। भारतीय संस्कृति का प्रतीक है योगी या ध्यान मुद्रा में बैठे बुद्ध। ज्ञान की यह धार्मिक संस्कृति विज्ञान औरआध्यात्मिकता दोनों को आत्मसात कर सकती है और चेतनता को संपूर्ण ब्रह्मांड की अधोभूमि मानती है। अध्ययन और ज्ञान की यही भारतीय परंपरा अमरीका, यू.के. और पश्चिमी जगत में अनिवासी भारतीयों की सफलता का आधार है। कई लोग हैं जो कहते हैं कि इंडिया एक सर्वसमावेशी विचार है जबकि भारत साम्प्रदायिक क्योंकि इसमें प्रमुखत: हिन्दू भाव प्रधान है, हालांकि हिन्दू धर्म अपने आप में बहुलतावादी और जीवन के प्रति आदर भाव रखने वाला है। लेकिन पारंपरिक भारत ने कभी दूसरे देशों पर हमला करके उन्हें जीतने की कोशिश नहीं की है। भारतीय सेनाओं द्वारा धर्म के नाम पर युद्ध अथवा कन्वर्जन किए जाने का कोई इतिहास नहीं है, या किसी दूसरी भूमि पर भारत आधारित उपनिवेशवादी शासन और दोहन नहीं दिखता। आधुनिक काल में भारतीय मॉडल सबसे अनूठा आदर्श है, हमें पूरी दुनिया में विभिन्न संस्कृतियों को इसके साथ एकात्म करने की जरूरत है। समावेशी और एकात्मता के भाव वाली संस्कृति के भारतीय आदर्श की तुलना में साम्यवादी और मार्क्सवादी आदर्श संकीर्ण, दमनकारी और भौतिकतावादी हैं। यहां तक कि पूंजीवादी आदर्श में भी पांथिक विचार की गहराई और करुणा के भाव की कमी है।
'इंडिया' को परिभाषित करने के लिए अगर भारत नहीं, तो हमारा आदर्श और क्या होना चाहिए? क्या वह चीन हो सकता है, रूस, यूरोपीय संघ या अमरीका हो सकता है? क्या वह नेहरूवादी साम्यवाद, बंगाल का वामपंथ, यूरोपीय राष्ट्रवाद या अमरीकी उपभोक्तावाद हो सकता है? हो सकता है इनके भी कुछ लाभ हों मगर ये मानव जीवन और संस्कृति के बहुत ज्यादा काट-छांट किए दृष्टिकोण झलकाते हैं।
महाभारत का व्याप
किसी आधुनिक देश अथवा संस्कृति के संदर्भ में बात करें तो केवल भारत में सबसे लंबी और सबसे विशद् साहित्यिक सातत्य रहा है। यह विपुल संस्कृति तमिल से लेकर हिन्दी साहित्य और प्रमुख स्थानीय भाषाओं के साहित्य तक फैली हुई है। ये दोनों ही भाषाएं संस्कृत से जुड़ी हैं और आधुनिक यूरोपीय देशों के साहित्य की तुलना में इन दोनों भाषाओं में कहीं ज्यादा विशद् साहित्य की रचना की गई है। संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप को प्रतिबिम्बित करने वाला भारत का विचार खुद महाभारत से स्पष्ट है, जिसकी रचना दो हजार साल से ज्यादा समय पूर्व हुई थी। महाभारत में दक्षिण में श्रीलंका से उत्तर में उत्तरा कुरु अथवा हिमालयेतर भूमि तक विस्तृत भारत का हर भाग समाहित है।
महाभारत प्राचीनकाल के राजाओं की कथा मात्र नहीं है बल्कि यह क्षेत्र के साम्राज्यों, देशों और संस्कृतियों को रेखांकित करता है। यह वैष्णव, शैव, गणपत और शाक्त सहित हिन्दू धर्म के सभी प्रमुख सम्प्रदायों को झलकाता है, लेकिन विचारों और जिज्ञासा की स्वतंत्रता का सम्मान करता है जिसमें आध्यात्मिक से लेकर दैनंदिन व्यवहार तक अनेक विषयों पर विस्तृत वाद-विवाद की गुंजाइश है। इसमें राजाओं के नियमों-कानूनों पर चर्चा है और जीवन के सभी आयामों में धर्म की भूमिका का विश्लेषण है। किसी और देश अथवा पंथ, चाहे वह यूरोप हो, चीन अथवा मध्य पूर्व, में महाभारत जैसा संस्कृति की विशालता और सातत्य दर्शाने वाला ग्रंथ नहीं है। महाभारत प्राचीन वैदिक परंपरा पर दृष्टि डालती है जो पांच हजार साल पहले उत्तर भारत के सरस्वती क्षेत्र में विकसित हुई थी, जब सरस्वती एक विशाल नदी के रूप में बहती थी। तथापि आज हम धुर दक्षिण के केरल में देखते हैं कि वहां भी वैदिक रीति-रिवाजों और कर्मकांडों का पूरी निष्ठा से पालन किया जाता है। इससे इस प्राचीन संस्कृति का व्याप स्पष्ट दिखाई देता है।
इतिहास को लेकर संघर्ष
किसी देश को मोटे तौर पर उसके इतिहास के आधार पर परिभाषित किया जाता है। भारत में इतिहास को लेकर तमाशा नहीं तो, एक बड़ा संघर्ष जरूर चल रहा है। स्वतंत्रता के बाद, इतिहास अध्ययन और आईसीएचआर (भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद) जैसे राष्ट्रीय संस्थानोंे पर, मार्क्सवादियों नहीं तो साम्यवादियों का कब्जा रहा है, जो स्वाभाविक तौर पर क्षेत्र की प्राचीन धार्मिक संस्कृति के प्रति दुर्भावना रखते थे। उनका उद्देश्य था आजादी के बाद उभरे एक ऐसे नए भारत को ही आगे रखना जो अपने पारंपरिक बीते कल से अलग है। भारत को लेकर उनके विचारों में ऐतिहासिक उल्लेखों के तौर अशोक और अकबर जैसे कुछ पारंपरिक चरित्र जरूर थे, लेकिन देश का अधिकांश इतिहास अनदेखा छोड़ दिया गया था। जब भारत के बीते कल की महानता सामने आई, जैसे प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे विस्तृत शहरी अवशेषों का मिलना, तो अधिकांशत: दिल्ली में मौजूद तथाकथित बौद्धिक मनसबदारों को इसमें गर्व करने जैसा या समझने जैसा कुछ दिखाई नहीं दिया। प्राचीन वैदिक काल को अनदेखा रखा गया और उसे कुल मिलाकर भारत के आधारभूत तत्वों से बाहर रखा गया। इसे भारत से बाहर मध्य एशिया में उपजी एक सीमित संस्कृति के तौर पर देखा गया।
आज भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण और भौगोलिक सर्वेक्षण ने वैदिक काल को एक ठोस आधार प्रदान किया है जो सरस्वती क्षेत्र में 7000 ईसा पूर्व खेती की शुरुआत के काल यानी 1900 ई. से इस नदी के सूखने तक संस्कृति की निरंतरता दर्शाता है। हम 7000-3100 ई. पूर्व के कालखंड को आरंभिक वैदिक काल मान सकते हैं। आश्चर्य की बात है, जब ग्रीक विद्वान मेगस्थनीज अलक्षेन्द्र की सेनाओं के साथ भारत आया था तो उसने 6400 साल पुरानी करीब 6776 ई. पूर्व के आस-पास 153 राजाओं की एक परंपरा देखी थी। यह खोज इस क्षेत्र में बहुत प्राचीन काल से राजवंशों की निरंतरता की ओर संकेत करती थी। 3100-1900 ई. पूर्व के कालखंड को हम उत्तर वैदिक काल मान सकते हैं जो शहरी हड़प्पा काल भी है, जब सरस्वती नदी विलुप्तता के कगार पर थी। बाद के कई ब्राह्मण ग्रंथों, महाभारत, मनुस्मृति में इस नदी के बारे में यही उल्लेख मिलता है।
दिल्ली के लिए नया संघर्ष
दिल्ली से भारत की सत्ता चलती है। लेकिन यह अंग्रेजी मीडिया और तथाकथित विद्वानों का गढ़ भी है, जो अक्सर बेझिझक पश्चिमी शिक्षा और मूल्यों पर आधारित अपना मत झलकाता है। दिल्ली की इस तथाकथित बौद्धिक गोलबंदियों की हाल के दशकों में भारत को परिभाषित करने में मुख्य भूमिका रही है, हालांकि दिल्ली की संस्कृति, खास तौर पर इसके शासक अभिजात्य वर्ग की संस्कृति अधिकांश देश की संस्कृति से काफी अलग है। दिल्ली के अभिजात्य वर्ग ने भारत, 1947 के बाद उभरे भारत को कमोबेश एक नेहरूवादी-साम्यवादी-मार्क्सवादी छवि में प्रस्तुत किया है। उन्होंने महान भारत को एक विदेशी संस्कृति या महज क्षेत्रीय संस्कृति के तौर पर बखाना है, और पश्चिम के हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों को भारत को एक आधुनिक देश के तौर पर दर्शाने और आगे बढ़ाने में समर्थ बताकर महिमामंडित किया जाता है। आज भी हम मीडिया में कई दिग्गज कम्युनिस्टों को 'भारत के रखवालों' का बाना ओढ़े बौद्धिक विचारों, सहिष्णुता तथा करुणा की मिसालों के तौर पर पेश किए जाते देखते हैं, हालांकि पूरी दुनिया में उनके कामरेडों को ज्यादातर स्थानों पर सत्ता से उखाड़ फंेका गया है और उनके विचारों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया गया है।
उत्तर-मार्क्सवाद काल और 20वीं सदी
हमें उत्तर औपनिवेशिक काल-उत्त्तर मार्क्सवाद काल को फिर से परिभाषित करना होगा, जिसके लिए भारत की फिर से खोज करनी होगी। हालांकि भारत ने 1947 में बाहरी स्तर पर ब्रिटिश शासन को जरूर उखाड़ फंेका था पर औपनिवेशिक काल पर आधारित विचारों के कायदे, पूर्वाग्रह और संस्थान जस के तस रहे। धीरे-धीरे इनके साथ मार्क्सवादी और वामपंथी विचार जुड़ते गए जिन्होंने इस क्षेत्र की प्राचीन धार्मिक संस्कृति का क्षरण जारी रखा। दुनिया के मार्क्सवादी देशों में से ज्यादातर का सोवियत संघ और उसके पूर्वी यूरोपीय साथी देशों के ढहने के साथ1989-1991 के दौरान पतन हो गया था। चीन मार्क्सवादी झुकाव से दूर हट चुका है और अब पूर्व के कन्फ्यूशियन पंथ को गले लगा रहा है। रूस एक बार फिर से जारों और रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च की राह पर है। ऐसे में भी भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी भारत के विश्वविद्यालयों में मार्क्सवादी विचारों का प्रसार करना जारी रखे हुए हैं, मानो मार्क्सवाद अब भी एक महत्वपूर्ण और वैश्विक विचार प्रक्रिया में नई तरह की सोच हो।
'इंडिया' का भारत के रूप में पुनोरोत्थान
आज 21वीं सदी में भारत का पुन: भारत के नाते गौरवगान सुनाई दे रहा है, क्योंकि सदियों से इसकी निरंतर बलवती होती संस्कृति इस देश का वास्तविक आधार है। योग, वेदान्त, बुद्धत्व और आयुर्वेद सहित भारत की महान धार्मिक परंपराएं पूरी दुनिया में सम्मान पा रही हैं और हर महाद्वीप पर इसके लाखों अनुयायी हैं। यह भारत की प्राचीन धार्मिक संस्कृति ही है जिसकी ओर दुनिया आज आशाभरी नजरों से देख रही है। उसे उम्मीद है कि भारत प्रगति केसोपान चढ़ेगा। आर्थिक दृष्टि से भारत आज मार्क्सवादी-नेहरूवादी-साम्यवादी जड़ता को उतार फंेककर और अपनी प्राचीन धर्माधारित आर्थिक परंपराओं को गले लगाकर आगे बढ़ रहा है, जो भारत का अभिन्न अंग रही है। 'इंडिया' जब भारत था तब गरीब नहीं था। यह गरीब तब हुआ जब यह भारत नहीं रहा।
भारत माता का गौरव
भारत भूमि को हमेशा से मां भारती अथवा भारत माता पुकारा जाता रहा है और यह कोई आक्रामकता, असहिष्णुता और भौतिकवाद से परिभाषित कोई सांस्कृतिक विचार नहीं है बल्कि यह मातृभूमि के रूप में सम्मानित है, प्रकृति को मातृस्वरूपा माना जाता है और संस्कृति को ऐसी मां के रूप में देखा जाता है जो हमें पोसती है। जैसा कि महर्षि अरविन्द ने कहा था-भारत माता योग माता भी हैं, मानव संस्कृति को योगोन्मुख गति और चेतना को विकास के तौर पर देखती हैं। भारत माता मां दुर्गा हैं, वह रक्षादायिनी शक्ति जो हमें अंधकार से उजाले की ओर ले जाती है। भारत मां भवानी है, जीवन और संस्कृति की जननी हैं। भारत माता योगशक्ति या मानवता में आध्यात्मिक उन्नयन की शक्ति का साकार रूप है। भारत पारंपरिक रूप से सदियों तक विश्वगुरु रहा है। संपूर्ण एशिया और मध्य पूर्व से लोग तक्षशिला और नालंदा जैसे अध्ययन के महान केन्द्रों में शिक्षार्जन के लिए आते थे। भारत अपने आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ज्ञान के लिए ही प्रसिद्ध नहीं था बल्कि अपनी कला, दर्शन, चिकित्सा, गणित और भौतिक संपन्नता के लिए जाना जाता था। ब्रिटिशराज आने तक भारत का संपन्न रहना दर्शाता है कि भारत में औपनिवेशिक शासकों ने इस देश को ऊपर नहीं उठाया बल्कि नीचे ही गिराया है। औपनिवेशिक शासकों ने असली भारत को पीछे करके इसकी जगह भारत के उस कृत्रिम विचार को स्थापित करने की कोशिश की जो उनके अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार गढ़ा गया था। भारतमाता ही विश्व गुरु बन सकती है, न कि वह 'इंडिया' जो पिछले 100 सालों के दौरान दर्शाया गया है। समय आ गया है कि भारत एक बार फिर से खड़ा हो और दुनिया में एक महान भविष्य और महान चेतना का जागरण करे। अपने गौरव को फिर से पाने वाला भारत पूरी दुनिया के लिए बहुत मूल्यवान होगा।
वामदेव शास्त्री, संस्थापक, अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ वैदिक स्टडीज, अमरीका डॉ. डेविड फ्रॉली उपाख्य पं. वामदेव शास्त्री ने हिन्दू धर्मशास्त्रों और वेदों का गहन अध्ययन किया है, हिन्दुत्व, योग, आयुर्वेद और वैदिक ज्योतिष शास्त्र पर 30 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। भारतीय संस्कृति के उपासक पं. वामदेव शास्त्री को भारत सरकार ने 2015 में पद्मभूषण से अलंकृत किया है।
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