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जब-जब देश पर कोई आतंकी हमला होता था तब जो लोग कहते थे कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता, उन्हें फांसी के फंदे की तरफ बढ़ रहे एक आतंकवादी का मजहब नजर आने लगा। याकूब मेमन के नाम पर ये तमाशा पूरे देश ने देखा। मुंबई को दहलाने वाला षड़यंत्रकारी दो दशक से भी लंबी चली कानूनी प्रक्रिया के बाद फांसी के फंदे तक पहुंचा। आश्चर्य तब नहीं होता जब कुछ मुट्ठी भर वामपंथी इस न्याय को मानने से इनकार कर दें, ज्यादा हैरानी तब होती है जब देश की मीडिया का एक तबका इसे 'अन्याय' के तौर पर दिखाना शुरू कर दे। किसी न्यूज चैनल पर 'क्या याकूब मेमन के साथ नाइंसाफी हुई है?' जैसी लाइन को आप और क्या कहेंगे? किसी अपराधी के लिए ऐसी बात कहना अवमानना नहीं है तो क्या है?
याकूब मेमन को न्यायपालिका के सभी स्तरों पर फांसी की सजा तय की गई। राष्ट्रपति ने उसके अपराध को देखते हुए दया याचिका नामंजूर की। फिर भी मीडिया का एक बड़ा तबका पूरे केस को फिर से खोलने पर उतारू दिखा। पहले याकूब के परिवार की भावनात्मक अपील लगभग सभी टीवी चैनलों ने दिखाईं, फिर जब इतने से भी काम नहीं चला तो बागडोर असदुद्दीन ओवैसी के हाथ में दे दी गई। जो आदमी देश के संविधान की शपथ खाकर संसद में बैठता है वह खुलेआम अदालती फैसले की न सिर्फ आलोचना कर रहा था, बल्कि उसका इस्तेमाल मजहबी भावनाएं भड़काने के लिए कर रहा था। इस कोशिश में उसने मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया। लगभग सभी चैनलों ने उसे घंटों दिखाया। कभी आलोचना करते हुए, तो कभी सवाल करते हुए। लेकिन ये प्रश्न तो पूछा जाना चाहिए कि क्या सैकड़ों लोगों की हत्या के दोषी के बचाव के नाम पर खुलेआम घृणा फैलाने वालों को ऐसे छूट दी जा सकती है। जैसी कि उम्मीद थी फांसी के बाद दिग्विजय सिंह जैसे कई कांग्रेसी नेता भी इस होड़ में शामिल हो गए।
'टाइम्स ऑफ इंडिया' और 'फर्स्टपोस्ट' ने तो बाकायदा अदालती फैसले की कथित खामियों पर लेख प्रकाशित किए। 21 जुलाई से लेकर फांसी के दिन तक ऐसे लेखों की मानो श्रृंखला चल पड़ी। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने 21 जुलाई को एक लेख छापा जिसमें बिना नाम लिए याकूब को बेचारा साबित करने की कोशिश की गई। इशारों में जताया गया कि सवार्ेच्च न्यायालय के फैसलों में पूर्वाग्रह होता है। आंकड़ों की बाजीगरी से बताया गया कि फांसी की सजा पाने वाले ज्यादातर लोग एक खास मजहब या तबके से संबंध रखते हैं। बस यह तथ्य छिपा गए कि फांसी की सजा पाने वाले 1342 में सिर्फ 72 मुसलमान हैं। तो क्या इस आंकड़े से ये नतीजा निकाला जा सकता है कि देश की न्यायपालिका पूर्वाग्रह से ग्रस्त है?
देश के पूर्व राष्ट्रपति भारतरत्न एपीजे अब्दुल कलाम का निधन पूरे देश की आंखें नम कर गया। सबने अपनी-अपनी तरह से उन्हें याद किया। मीडिया ने विज्ञान से लेकर राष्ट्रपति भवन तक उनके योगदान को दिखाया, लेकिन इस दु:खद समाचार पर टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार की प्रतिक्रिया विचित्र रही। पहले पेज पर कलाम के निधन का समाचार ब्लैक एंड व्हाइट छापा गया। पहले लगा कि शायद ऐसा शोक को जताने की नीयत से किया गया है, लेकिन नीचे छपे एक विज्ञापन से असलियत सामने आ गई। किसी विज्ञापन के लिए राष्ट्रीय शोक के किसी समाचार के साथ ऐसी हरकत कतई शोभा नहीं देती है।
कलाम के बहाने सोशल मीडिया ने याद किया कि इतने महान व्यक्तित्व को जब दूसरी बार राष्ट्रपति बनाने की बात हुई तो कैसे सोनिया गांधी ने अपनी पसंदीदा प्रतिभा पाटिल को देश पर थोप दिया था। कलाम कभी किसी पद या सम्मान के मोहताज नहीं रहे। अब्दुल कलाम होने का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब याकूब मेमन और अफजल जैसे आतंकवादियों को भारतीय मुसलमानों का हीरो साबित करने की कोशिश की जाती है।
उधर संसद के मानसून सत्र में कांग्रेस का 'ब्लैकमेल' जारी है। टीवी चैनलों की तमाम बहसों में कांग्रेस के प्रवक्ता इन सवालों के आगे निरुत्तर होते रहे कि संसद न चलने के पीछे उनका सही-सही तर्क क्या है। इन सबके बीच तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के खेल भी जारी हैं। संसद में कृषि मंत्रालय के एक जवाब में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के उल्लेख को अचानक मुद्दा बना दिया गया। ये साबित करने की कोशिश की गई कि कृषि मंत्री ने कहा है कि प्रेम प्रसंग और नपुंसकता के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा निष्कर्ष तभी निकल सकता है जब जानबूझकर तथ्यहीन रिपोर्टिंग की जाए। आज के मीडिया में एक बार कोई झूठी खबर फैला दी जाए तो फिर वह झूठ ही चलता है। इसके बाद आने वाले तथ्य को सिर्फ एक पक्ष के तौर पर दिखाया जाता है, न कि भूल-सुधार के तौर पर।
उधर गुजरात दंगों के नाम पर विदेशों से करोड़ों का चंदा लेने वाली तीस्ता सीतलवाड़ का मुद्दा भी मीडिया में रह-रहकर आता रहा। बरसों तक चंदे में गबन करने वाली तीस्ता के खिलाफ अभी सीबीआई की जांच चल रही है। लेकिन मीडिया में उनके हितैषी अभी से बेचैन हैं। एनडीटीवी के श्रीनिवासन जैन ने एक कुतर्क गढ़ा कि रुपयों के गबन के आरोप में सीबीआई के छापे क्यों पड़ रहे हैं।
नेटवर्क 18 के वेब पोर्टल 'फर्स्टपोस्ट' ने एक और कमाल किया। उन्होंने 'बजरंगी भाईजान' फिल्म के मुख्य चरित्र पवन को इस आधार पर 'कम्युनल' घोषित कर दिया क्योंकि वह 'जय श्रीराम' बोलता है 'खुदा हाफिज' नहीं। मुख्यधारा मीडिया में छपने वाले ऐसे तमाम लेख अगर अपवाद हों तो इन्हें हंसकर टाला भी जा सकता है, लेकिन अगर ऐसा बार-बार और बिना वजह हो रहा हो तो समझा जा सकता है कि समस्या क्या है।
नारद
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