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जिवन का अधिकार किसी भी भारतीय को संविधान से मिला मौलिक अधिकार है। इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी भी स्थिति में किसी भारतीय नागरिक के प्राण नहीं लिये जा सकते। इसका अर्थ यह है कि किसी भारतीय नागरिक के प्राण लेने का अधिकार केवल राज्य को है और वह भी नागरिक के प्राण लेने के लिए अभियोग ही चला सकता है, मृत्युदंड का निर्णय उससे निरपेक्ष, तटस्थ न्यायपालिका करेगी। न्यायपालिका भी प्राणदंड स्वयं अपनी व्यवस्था के अनुसार दुर्लभतम में भी दुर्लभ मामलों में देती है। सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालय में अपील, सर्वोच्च न्यायालय में अपील, राष्ट्रपति से क्षमादान की याचिका और उसे निरस्त कर देने के बाद फिर से पुनरीक्षण याचिका, यानी हर तरह से सिक्काबंद, ठोस व्यवस्था कि कोई निदार्ेष न मर जाये। ये सावधानी इस हद तक है कि भारतीय भूमि पर किसी विदेशी आतंकी को भी बिना अभियोग चलाये मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता । जिहादी अजमल कसाब पर भी इस धरती के कानूनों के हिसाब से अभियोग चला कर नियमानुसार मृत्युदंड दिया गया था।
फिर भी याकूब मेमन के मृत्युदंड के फैसले पर कुछ लोग मीडिया में हाय-हाय कर रहे हैं। इस फैसले की इस दृष्टि से भी आलोचना की जा रही है कि जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को क्षमादान दिया जा सकता है तो याकूब मेमन को क्यों नहीं? क्या उसे इसलिये प्राणदंड दिया गया कि वह मुसलमान है? आइये, इस चीख-पुकार की छान-फटक की जाये।
मुंबई बम धमाकों में 270 लोग मारे गए, 713 बुरी तरह घायल हुए। किसी देश के नागरिकों पर ऐसा हमला जिसमें 270 लोग मारे जायें और 713 बुरी तरह घायल हो जायें, किसी भी नियम-कानून के अनुसार राष्ट्र पर हमला है। किसी राजनेता, सांसद पर प्राणघातक हमला व्यक्ति पर हमला है और उसके हत्यारे पर इसी दृष्टि से अभियोग चलाया जायेगा। पंजाब में फैले पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित उग्रवाद के दौरान राजनेताओं सहित हजारों लोगों की हत्याएं हुईं और उन सबके हत्यारों पर व्यक्तिगत हत्याओं के अभियोग चलाये गए। याकूब मेमन का अपराध-परिमाण यानी हताहतों की संख्या की दृष्टि से ही बहुत बड़ा नहीं है अपितु देशद्रोह भी है।
ये भावावेश में आ कर की गयी हत्याएं नहीं हैं। इसके षड्यंत्रकारी हत्यारों ने बहुत ठंडे दिमाग से विदेशी शत्रुओं से मिलकर विध्वंस की योजना बनायी। प्रशिक्षण के लिये लोगों को विदेश भेजने का षड्यंत्र रचा। नकली पासपोर्ट बनाये। विदेशों से अवैध रूप से शस्त्र एकत्र किये। उस अभियुक्त ने तो अपने घर में बमों का निर्माण किया, विभिन्न जगहों पर हथगोले और अन्य शस्त्रों का वितरण किया। अपनी तरफ से यथासंभव भारत को चोट पहुंचाने का भरसक प्रयास किया। वह व्यक्ति न केवल जघन्य हत्याओं का अपराधी था बल्कि देश का गद्दार भी था। उसका देशद्रोह की श्रेणी का अपराध, जघन्य हत्याओं में सक्रिय संलिप्तता न्यायपालिका के सामने स्थापित है।
क्या इस व्यक्ति के अपराध करने के बाद पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों का सहयोग करने से उसके अपराध की जघन्यता कम हो गई थी? स्वयं याकूब मेमन ने न्यायालय में स्वीकार किया था कि इस अपराध में पाकिस्तानी एजेंसियां, उसका भाई टाइगर मेमन, दाऊद इब्राहिम इत्यादि सम्मिलित थे। उसकी इस अपराध में संलिप्तता स्वयं उसी के बयानों से न्यायालय के सामने स्थापित हुई थी। माना कि यह उसने क्षमादान के लालच में किया था मगर क्या इससे ये अपराध संज्ञेय नहीं रहते?
पिछले दिनों चर्चा में था कि भारत के अनेक दलों में घूम आये क्षणे-तुष्टा क्षणे-रुष्टा वाचाल राजनेता के माध्यम से दाऊद ने भारत में शरण का प्रस्ताव रखा था। कल्पना कीजिये कि दाऊद भी इसी तरह का प्रस्ताव देकर भारत आ जाता है। न्यायालय से अन्य अपराधों के अलावा इन अपराधों में मृत्युदंड पाता है। क्या लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, आजम खान, अबू आजमी, कांग्रेस के सचिन पायलट, शकील अहमद, मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के अकबरुद्दीन ओवैसी-असदुद्दीन ओवैसी, माकपा के प्रकाश करात, वृंदा करात, आआपा के अरविन्द केजरीवाल, आआपा से निष्कासित प्रशांत भूषण, ममता बनर्जी जैसे मुस्लिम वोटों के लिये लालायित राजनेता उसके पक्ष में इसी तरह खड़े हो जाते? भारतीय जनता पार्टी के अतिरिक्त देश के प्रमुख राजनैतिक दल मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति में इस हद तक जाने के लिये तैयार हैं? उन्हें बहुसंख्यक समाज के वोटों की बिल्कुल आवश्यकता नहीं रह गयी है? उन्हें इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं है कि भारत का बहुसंख्यक वोटर उन्हें दुत्कार भी सकता है। क्या राष्ट्र रक्षा का दायित्व केवल भारतीय जनता पार्टी का है? यहां एक प्रश्न मन में भी उठना स्वाभाविक है। आतंकवादियों के अनुसार, जिहाद करने वाले गाजियों और जिहाद के रास्ते पर कुर्बान हो जाने वालों को मरने के बाद जन्नत, उसमें भव्य हीरे-माणिक-पन्ने-मोती जड़े भवन, शराब की नहरें, और अन्य सभी भोग के साधन मिलते हैं। तो जब उसके ये श्रेष्ठ स्थान पाने का समय आया तो विभिन्न न्यायालयों में अपीलें, उसे रोकने की बार-बार कोशिशें, मीडिया के सामने हाय-हाय क्यों की जा रही थी? क्या वे लोग कुरआन में कहे गए सर्वकालिक सत्य पर पुनर्विचार कर रहे थे? क्या उनका विश्वास विचलन के मार्ग पर है?
तुफैल चतुर्वेदी
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