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याकूब की फांसी तय थी। 29 को दोपहर राष्ट्रपति द्वारा दया की अपील खारिज करने के बाद देश में यह जानकर संतोष की लहर थी कि आखिरकार अब आतंकी याकूब को फांसी हो जाएगी। लेकिन रात 12 बजे सेकुलर राजनीति के कुछ मोहरों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के घर जाकर यह कहते हुए नई याचिका दी कि दया याचिका खारिज होने के बाद आरोपी को 14 दिन का वक्त दिया जाए। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दत्तू ने न्याय के तकाजे को सर्वोपरि रखते हुए रात 2.30 बजे सर्वोच्च न्यायालय में अदालत का कमरा खुलवाकर तीन न्यायाधीशों-दीपक मिश्रा, अमिताव राय और प्रफुल्ल पंत-की खण्डपीठ को इस मामले की तुरत सुनवाई कर फैसला देने को कहा। रात ढलती जा रही थी और फांसी का सुबह 7 बजे का समय नजदीक आ रहा था। आखिरकार एक घंटे तक दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद भोर में 5 बजे खंडपीठ ने वही फैसला फिर से दिया, कि फांसी की सजा बरकरार रहेगी। इसके फौरन बाद नागपुर जेल में याकूब को फांसी देने की तैयारियों में तेजी आ गई और ठीक समय पर देश से द्रोह कर 257 मासूमों की जान लेने के अपराध में साझीदार रहे याकूब को उचित सजा दी गई। प्रस्तुत है मुम्बई बम विस्फोटकों में याकूब के जुर्म और उसके किए से असीमित दर्द झेलने को मजबूर हुए कुछ मुम्बईवासियों की दर्दभरी यादों पर एक विस्तृत रपट।
ल्ल राहुल शर्मा
मुंबई में 1993 में हुए श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट के साजिशकर्ता याकूब मेमन को आखिरकार 30 जुलाई की सुबह 7 बजे फांसी दे दी गई, लेकिन फांसी देने से पूर्व देश मेंं कुछ सेकुलर नेताओं की जमात और बॉलीवुड की हस्तियों ने मेमन के प्रति सहानुभूति दिखाकर एक नई सियासत छेड़ने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।
याकूब मेमन को फांसी देने के साथ-साथ 22 वर्ष पूर्व हुए विस्फोट में मारे गए मृतकों के परिजनों की आस पूरी हो गई। लंबे अर्से से ये लोग पल-पल अपने परिजनों को याद कर हत्यारों को सबक मिलने की दुआ कर रहे थे। मुंबई में 257 निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतारने वाले और 713 लोगों को जख्मी करने वाले दोषी को अधिकांश लोग फांसी पर लटकाने की वकालत कर रहे थे। उनके अनुसार वास्तव में हमले में मारे गए लोगों के साथ यही सच्चा न्याय है।
1993 के बम विस्फोट के बाद मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई, टाडा की विशेष अदालत बनाई गई और सर्वोच्च न्यायालय तक दोषियों को सजा दिलाने में 20 वर्ष गुजर गए। 21 मार्च, 2013 में जब 20 वर्ष बाद याकूब को फांसी देने का फैसला सुनाया गया तो दो वर्ष से अधिक का समय उसकी दया याचिका में गुजर गया। बीते 9 अप्रैल को ही सर्वोच्च न्यायालय ने मेमन की पुनर्विचार याचिका खारिज करते हुए उसकी फांसी को सजा को बरकरार रखा था। इसके बावजूद देश में एक सुनियोजित तरीके से याकूब को फांसी से बचाने की कवायद शुरू कर दी गई। याकूब की ओर से राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास दोबारा दया याचिका भेजी गई, साथ ही 'डेथ वारंट' की सूचना विलंब से देने का हवाला देकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया। इस क्रम में गत 28 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय में जहां एक तरफ न्यायमूर्ति ए. आर. दवे ने 'डेथ वारंट' रद्द करने की याकूब की मांग को खारिज कर दिया वहीं दूसरी तरफ न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने याकूब की 'क्यूरेटिव' याचिका निपटाने की प्रक्रिया को गलत ठहरा दिया। दोनों न्यायाधीशों का मत अलग होने पर मुख्य न्यायाधीश एच. एल. दत्तू ने तीन न्यायाधीशों की नई पीठ का गठन किया। पीठ में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, प्रफुल्ल सी. पंत और अमिताव राय को चुना गया।
29 जुलाई को इस पीठ ने 5 घंटे तक चली सुनवाई के बाद निर्णय किया कि 'डेथ वारंट' में कोई चूक नहीं हुई है। इसके सही करार देने के बाद याकूब की फांसी का रास्ता साफ हो सका। उधर महाराष्ट्र के राज्यपाल ने याकूब की याचिका को ठुकरा दिया और राष्ट्रपति ने गृह मंत्रालय से विषय पर राय देने को कहा। गृह मंत्रालय से भी साफ हो गया कि याकूब की याचिका पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
लेकिन इसके बाद भी याकूब की फांसी पर सेकुलर सियासत कम नहीं हुई। 29 जुलाई की देर रात तक याकूब के पैरवी करने वाले वकील उसके बचाव के रास्ते तलाशते रहे। रात करीब 12 बजे वकील प्रशांत भूषण, आनन्द ग्रोवर, वृंदा ग्रोवर 12 अन्य वकीलों को लेकर मुख्य न्यायाधीश दत्तू के आवास पर पहंुच गए और याकूब को बचाने का अंतिम प्रयास किया। इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने दिन में मामले की सुनवाई कर चुकी तीन सदस्यी पीठ को असाधारण कदम उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय की अदालत नं. 4 में एक बार फिर से सुनवाई करने का आदेश दिया। देश के इतिहास में पहली बार देर रात दो बजे सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय को खुलवाया गया। रात 3 बजकर 20 मिनट पर सुनवाई शुरू हुई। एक घंटे की बहस के बाद आखिर सुबह पांच बजे फांसी को बरकरार रखने का निर्णय किया गया। इस सुनवाई के दौरान याकूब की ओर से वकील आनंद ग्रोवर ने दलील दी और 14 दिनों की मोहलत मांगी। इस पर भारत सरकार के महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने कहा कि याकूब को पहले ही काफी समय दिया जा चुका है और उसके बचाव में कोई नया तर्क नहीं दिया जा रहा है। साथ ही कहा कि बार-बार दया याचिका देना न्याय व्यवस्था का मजाक उड़ाने जैसा है, ऐसे व्यवस्था कैसे चल पाएगी। राष्ट्रपति के पास करने को अन्य कार्य भी हैं। गौरतलब है कि याकूब मेमन 1993 के श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों के बाद अपने परिवार के साथ पाकिस्तान फरार हो गया था। हमले से पूर्व उसने पाकिस्तान में रहकर ही पूरा प्रशिक्षण लिया था और बम लगाने के लिए वाहनों का इंतजाम भी कराया था। अवैध हथियार मुहैया कराने से लेकर विस्फोट कराने तक पूरा षड्यंत्र उसकी निगरानी में ही हुआ था। याकूब का पूरा परिवार ही इस प्रकरण में लिप्त रहा था। 1994 में याकूब मेमन को नेपाल के काठमांडू से गिरफ्तार करके भारत में सीबीआई के सुपुर्द किया गया था। 1993 विस्फोट के बाद से अंडरवर्ल्ड माफिया दाऊद इब्राहिम, याकूब का भाई टाइगर मेमन आज तक फरार हैं। याकूब को फांसी दिए जाने के बाद न केवल यह मृतकों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है, बल्कि पीडि़तों के साथ-साथ देश की न्यायपालिका में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति की जीत मानी जा रही है। इससे सभी के मन में देश की न्याय व्यवस्था के प्रति श्रद्धा और गहरी हो गई है।
12 मार्च 1993 को हुए थे बम विस्फोट
13 धमाके किए गए थे, मुंबई में दोपहर 1.30 से 4.10 बजे तक
257 लोगों की मौत
713 लोग हुए घायल
27 करोड़ रुपए की संपत्ति का हुआ था नुकसान
क्या थी याकूब की भूमिका
याकूब मेमन टाइगर मेमन का भाई था और1993 के मुंबई धमाकों के बाद परिवार के साथ देश से फरार हो गया था
टाइगर, दाऊद इब्राहिम के साथ याकूब मेमन ने बम धमाकों में अहम भूमिका निभाई थी
धमाकों के षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए हवाला के जरिये याकूब ने पैसे जुटाए
पाकिस्तान जाकर हथियार चलाने का प्रशिक्षण लेने वालों के लिए याकूब ने टिकट मुहैया कराए
धमाकों में इस्तेमाल किए गए12 बम याकूब के घर पर ही बनाए गए थे
याकूब मेमन को 1994 में भारतीय एजेंसियों ने गिरफ्तार किया था। गिरफ्तारी को लेकर भी याकूब का दावा था कि वह आत्मसमर्पण करने आया था
मेरे भाई-बहन 1993 के बम विस्फोट में मारे गए थे। याकूब को फांसी देने से 22 वर्ष बाद हमें न्याय मिला है। परिवार के लोग हर दिन अपने बच्चों के लिए मर मर कर जिए हैं, उनकी याद में आंसू बहाए हैं। याकूब सही मायने में फांसी का हकदार था और उसके प्रति रहम नहीं किया जा सकता था। वह निर्दोष लोगों की हत्या का दोषी था। देश में जो लोग उसके प्रति सहानुभूति रख रहे थे, वे अभी अपनों को खोने का दुख नहीं जानते हैं।
-विनायक देवरुखर, मुंबई
देर से ही सही, लेकिन याकूब को फांसी दूसरे आतंकवादियों के लिए सबक है। देश में कुछ सेकुलर नेता और बॉलीवुड से जुडे़ लोग याकूब मेमन की फांसी को बेवजह मुद्दा बना रहे थे। इस मामले पर चर्चा नहीं की जानी चाहिए थी। ये लोग सिर्फ हिन्दू-मुसलमान के बीच दूरी बढ़ाना चाहते हैं। ऐसा करने से केवल दोनों समुदायों में आपसी द्वेष बढ़ता है। कानून की नजर में सभी बराबर हैं। आतंकवादियों का मजहब से कोई सरोकार नहीं होता है। -कीर्ति अजमेरा, मुंबई निवासी
21 मार्च, 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई की विशेष अदालत की फांसी की सजा को बरकरार रखने का फैसला सुनाया
ल्ल याकूब की दया याचिका पिछले वर्ष राष्ट्रपति और राज्यपाल, दोनों ने खारिज कर दी थी
9 अप्रैल, 2014 को सर्वोच्च न्यायालय ने मेमन की दूसरी पुनर्विचार याचिका को खारिज करते हुए उसकी मौत की सजा बरकरार रखी
इसके बाद टाडा अदालत ने 30 अप्रैल को जारी किया 'डेथ वारंट'
याकूब मेमन की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील राजू रामचन्द्रन और टीआर अधिअर्जुना ने बताया 'डेथ वारंट' को गैरकानूनी, कहा-तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया
कहा, 'डेथ वारंट' 30 अप्रैल को जारी किया गया, लेकिन याकूब को उसकी सूचना 13 जुलाई को दी गई उसे समय से सूचित नहीं करना गलत
ल्ल महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने कहा, 'डेथ वारंट' गैरकानूनी नहीं है, क्योंकि इसे जारी करते समय याकूब मेमन की ओर से कोई भी दया याचिका लंबित नहीं थी
40 बार हो चुका है ऑपरेशन'
'याकूब मेमन को यदि फांसी नहीं दी जाती तो यह विस्फोट में मारे गए पीडि़तों और उनके परिवारों के साथ अन्याय होता। भविष्य में ऐसे आतंकवादियों को जल्द से जल्द फांसी दी जानी चाहिए। आज जब 22 वर्षों में याकूब को फांसी देने का समय आया तो लोग उसके पक्ष में आकर खड़े हो गए। एक बार जब सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति की ओर से याकूब की दया याचिका लौटा दी गई थी तो फिर दो दोबारा इस विषय पर चर्चा नहीं होनी चाहिए थी।
सलमान खान जैसे लोग याकूब को फांसी नहीं देने की वकालत कर रहे थे, जिन पर खुद ही मामले दर्ज हैं। वह खुद न्यायपालिका से अपने लिए गुहार कर रहे थे। देश में आतंकवादियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखी जानी चाहिए।' यह कहना था कीर्ति अजमेरा का।
वे आगे कहते हैं, 'मैं आज भी 12 मार्च, 1993 का वह भयावह दिन नहीं भूल पाता हूं। उस दिन में 'बंबई स्टॉक एक्सचेंज' में प्रवेश कर रहा था कि अचानक से विस्फोट हो गया और कुछ पलों के लिए मैं अचेत हो गया। होश आने पर मैंने पाया कि आसपास चारों तरफ खून से लथपथ लोगों के शव पड़े हुए हैं। कोई मर चुका था तो कोई मदद की गुहार लगा रहा था। विस्फोट के दौरान मेेरा दायां हाथ और कान शरीर से अलग हो चुके थे। मेरा चेहरा भी खराब हो चुका था। मुझे मदद के लिए कोई भी नहीं मिल रहा था। आखिरकार मैं हिम्मत कर अपने लटके हाथ के साथ सड़क की तरफ निकल पड़ा।
'वहां एक टैक्सी वाला मेरी मदद के लिए आगे आया और मुझे अस्पताल ले गया। दो अस्पतालों ने उपचार से मना कर दिया तक कहीं जाकर तीसरे अस्पताल में उपचार किया गया। डॉक्टर का कहना था कि खून अधिक बह जाने से मेरा हीमोग्लोबिन मात्र 4 रह गया था। मेरे मुंह पर 90 टांके आए थे। मेरा 7 माह तक लगातार उपचार हुआ और अब तक करीब 40 बार मेरा ऑपरेशन हो चुका है और आज भी कांच के टुकड़े मेरे शरीर में फंसे हुए हैं। इसके लिए लगातार मुझे स्वास्थ्य जांच के लिए अस्पताल जाना पड़ता है। हादसे के बाद से उपचार में आर्थिक बोझ पड़ने से मेरा परिवार बिखर गया। मैं बच्चों को न बेहतर शिक्षा दे सका और न ही अपने परिवार के स्तर को बेहतर बना सका।'
'22 बरस गुजरे न्याय की आस में'
11 वर्षीय वसंत को संस्कृत भाषा में बेहतर प्रदर्शन करने पर पुरस्कृत किया जाना था। उसी के लिए वह बड़ी बहन शशिकला के साथ पुरस्कार लेने घर से निकला था। 12 मार्च की दोपहर जब दोनों सेंचुरी बाजार के निकट पहंुचे तो विस्फोट का शिकार हो गए। वसंत कक्षा चार का छात्र था, जबकि शशिकला नर्सिंग का कोर्स कर रही थी। हादसे के बाद देशमुख परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। एक साथ परिवार के दो सदस्यों को खोने का दुख किसी विपदा से कम नहीं था।
उनके भाई विनायक चंद्रकांत देवरुखर का कहना है कि हादसे के बाद ही मुंबई पुलिस ने खुलासा कर दिया था कि विस्फोट मंे दाऊद इब्राहिम और याकूब मेमन आदि का हाथ है और 1994 में याकूब को गिरफ्तार भी कर लिया गया, लेकिन वह 22 वर्ष जीवित रहा। इससे बड़ा अन्याय मृतकों और उनके परिजनों के साथ नहीं हो सकता है।
उनका कहना है कि परिवार के सदस्यों से बिछुड़ने का दर्द वही जानते हैं और अब जब याकूब मेमन को फांसी देने का समय आया तो देश में लोग उनके प्रति सहानुभूति दिखा रहे थे। विनायक ने कहा कि 22 साल तक याकूब को जेल में कम से कम दो वक्त की रोटी तो नसीब हो गई। विस्फोट के बाद घर से बेघर हुए या जिनके परिवार उजड़े उनसे कभी किसी ने कुछ पूछा तक नहीं।
वे आगे कहते हैं, यदि याकूब का कोई दोष नहीं है तो फिर उसे जेल में रखने की आवश्यकता ही नहीं, उसे छोड़ ही देना चाहिए था। उन्होंने कहा कि देश की लचीली कानून प्रक्रिया होने के कारण आतंकवादी बरसों तक जीवित रहते हैं, जबकि कानूनी प्रक्रिया में परिवर्तन कर ऐसे लोगों को अविलंब कार्रवाई कर मुत्युदंड दिया जाना चाहिए। लेकिन हमारे देश की कानून प्रक्रिया को आतंकवादी और अपराधी बेहतर तरीके से जानते हैं। उन्हें मालूम है कि यदि पकडे़ भी गए तो आसानी से सजा नहीं होगी और हुई तो फिर अनेक सेकुलर संगठन और राजनीतिक उनकी मदद को आगे आ जाएंगे। 1993 के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादियों ने विस्फोट किए और निर्दोष लोगों की जान जाने का सिलसिला जारी रहा। यदि सख्ती कर दी जाए तो इन लोगों को सबक सिखाया जा सकता है।
याकूब को फांसी मिलने से अब सही मायने में मृतकों की आत्मा को शांति मिली है। देश में कुछ लोग आतंकवादियांे को संरक्षण देना चाहते हैं। याकूब मेमन के मुसलमान होने की बात छेड़कर बेवजह एक नया विवाद खड़ा किया गया था। बम विस्फोट के दौरान उसकी भूमिका और साक्ष्य स्पष्ट हो चुके थे कि निर्दोष लोगों की हत्या में उसका कितना बड़ा हाथ रहा है। विस्फोट में अपनों को खोने का दुख उनके परिजन ही जानते हैं।
– तुषार देशमुख, मुंबई
महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने याकूब की याचिका का विरोध करते हुए कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी आदेश को 'रिट' याचिका में चुनौती नहीं दी जा सकती है। उन्होंने कहा कि यह नहीं भूलना चाहिए कि यह मामला आतंकवाद से जुड़ा है
'हादसे ने छीन लिया मां को'
'12 मार्च को मेरी मां रोजाना की तरह महालक्ष्मी जिंदल कार्यालय के लिए घर से निकली थीं। दफ्तर से जब वह घर लौट रही थीं तो उन्हें याद आया कि उनकी घड़ी दफ्तर में ही छूट गई है। वह लौटकर दफ्तर गईं और घड़ी लेकर सेंचुरी बाजार उतरने के लिए 85 नंबर बस में सवार हो गईं। उस बस के साथ चल रही कार में हुए धमाके की चपेट में आने से बस में सवार लोग मौत का शिकार बन गए। देर शाम तब जब मां घर नहीं लौटीं तो अस्पतालों में संपर्क करने पर मालूम हुआ कि उनकी मौत हो चुकी है। घड़ी छूटने की बात मां के दफ्तर वालों से ही पता लगी थी।' तुषार ने बताया कि उस दिन सुबह स्कूल जाते समयआखिर बार उन्होंने मां को देखा था। 12 मार्च की रात उन्हें मां-पिताजी के साथ भोजन पर जाना था क्योंकि मां-पिताजी को अगले दिन पुणे निकलना था। उन्होंने बताया कि मां को खोने की कीमत वे ही जानते हैं। मुझे देश की न्यायपालिका पर पूरा भरोसा था। कानून की नजरांे में आतंकवादी का किसी धर्म या मजहब से कोई लेना-देना नहीं होता क्योंकि जिन लोगों ने विस्फोट किया, उन लोगों ने निर्दोष लोगों की हत्या करने से पूर्व एक बार भी नहीं सोचा था कि वे क्या करने जा रहे हैं? याकूब ही नहीं भविष्य में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त सभी दोषियों के साथ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। निर्दोष लोगांे की हत्या करने वालों के प्रति सहानुभूति रखने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।
देशद्रोहियों को सजा दिलाना ही मेरा उद्देश्य : निकम
देशद्रोही और आतंकवादियों को सबक सिखाने का हुनर रखने वाले महाराष्ट्र सरकार के जानेमाने वकील उज्जवल निकम की मजबूत पैरवी से ही कसाब को फांसी हो पाई थी। याकूब मेमन को फांसी दिए जाने पर एक बार फिर से वे काफी चर्चा में हैं। आतंकवादियों को सजा दिलाने के पीछे उनकी देशभक्ति की भावना को लेकर पाञ्चजन्य संवाददाता राहुल शर्मा से उनकी बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं:
ल्ल आतंकवादियों को सजा कराने के पीछे आपकी क्या भावना रहती है?
आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता और निर्दोष लोगों की जान लेने वाले को सबक सिखाना मेरा लक्ष्य रहता है। गुनाह करने वाले को उसकी सजा मिलनी चाहिए।
ल्ल याकूब मेमन की फांसी को टालने को लेकर देश में हुई राजनीति और टिप्पणी पर क्या कहना चाहेंगे?
लोकतंत्र में सभी को अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है, लेकिन राष्ट्रपति महोदय और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा याकूब की दया याचिका खारिज करने के बाद इस विषय पर टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए थी। कानून से आमजन की आस्था जुड़ी हुई है, ऐसी टिप्पणियों से उनकी भावनाएं आहत होती हैं।
ल्ल क्या देश में साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने वालों को यही सजा मिलनी चाहिए?
मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति, चाहे किसी भी पंथ या मजबह का क्यों न हो, यदि उसने देश की सुरक्षा-अखंडता को चुनौती दी है तो वह दोषी है और उसे सजा मिलनी ही चाहिए।
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