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तेरह साल की अबीहा ने पिछले दिनों दिल्ली के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। बीमार अबीहा के इलाज के लिए उसके पिता हामिद इमरान उसे लेकर पाकिस्तान से भारत आए थे। अबीहा नहीं बची, लेकिन हामिद इमरान के दिल में भारत के लिए दबा प्यार और बढ़ गया। इमरान के मन में बेटी का इलाज भारत आकर कराने का ख्याल भी उनके स्कूल के जरिए आया था जो सरदार चेत सिंह कोहली ने 1910 में पाकिस्तान के चकवाल इलाके में बनवाया था। इसी स्कूल से पढ़े एक भारतीय साथी की वजह से हामिद इमरान अपनी बच्ची अबीहा को इलाज के लिए भारत लेकर आए। अबीहा भारत से बहुत प्यार करती थी। उसने अपनी डायरी में भारत के बारे में काफी कुछ लिख छोड़ा है। और यही प्यार है कि भारत में बच्ची की मौत होने के बावजूद इमरान ने पाकिस्तान लौटकर वहां के अखबार द डॉन में लिखा-'मैं अपनी बच्ची की अचानक मौत का दर्द भूल नहीं सकता। लेकिन, उसी तरह भारत में मिले प्यार को भी मैं कभी नहीं भूल सकता।' इंटरनेट पर ये कहानी खूब पढ़ी जा रही है। ये छोटी सी कहानी भारत-पाकिस्तान की भौगोलिक कारणों से जुड़ी गर्भनाल की कहानी कह देती है।
लेकिन, यही गर्भनाल मोहब्बत और जंग, दोनों के पीछे की ठोस वजह भी रही है। अभी 10 जुलाई 2015 को रूस के उफा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ की मुलाकात दोनों देशों के बीच संबंधों को पटरी पर लाने के रास्ते क्या दिखाने लगी, पाकिस्तान के अतिवादी मैदान में आ गए। पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज ने इस्लामाबाद लौटकर वार्ता के महज तीन दिन बाद 13 जुलाई को ही अपने मुल्क के कट्टरवादी तत्वों की बांछें खिलाने के लिए उफा की गर्मजोशी को पलीता लगाने में कसर नहीं छोड़ी। अजीज ने बयान दिया कि कश्मीर को अलग रखकर बात करने का कोई मतलब ही नहीं है। मुम्बई हमले के साजिशकर्ताओं के खिलाफ सुनवाई तेज करने के अपने वायदे से तीन दिन में ही मुकरते हुए सरताज ने कहा कि मुम्बई हमलों पर पाकिस्तान को और सबूत चाहिए तभी कुछ हो सकता है। गौर करने की बात यह है कि इन्हीं सरताज और उनके प्रधानमंत्री शरीफ की मौजूदगी में पाकिस्तान के विदेश सचिव ने स्वीकारा था कि वे लखवी की आवाज की नकल भेजेंगे। लेकिन लखवी के वकील ने साफ मना कर दिया कि कोई नकल नहीं भेजी जाएगी।
पाकिस्तान की यह उलटबांसी वैसे आश्चर्यजनक भी नहीं है। '47 के बाद से उसका स्वभाव ऐसा ही रहा है। अमरीका का पिछलग्गू बने रहना, उसके चाबी सीधी घुमाने पर भारत की तरफ आंखें तरेरना और चाबी उल्टी घुमाने पर मीठी-मीठी बातों का झांसा देना। उसकी फितरत का सच यह भी है कि वहां फौजी तानाशाह रहा हो या राजनीतिक नेतृत्व, तूती उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई की ही बोलती है जिसका एकमेव लक्ष्य भारत को अस्थिर करना, उसे अशांत रखना और कश्मीर को येन-केन-प्रकारेण हथियाने की साजिशें करते रहना। ऐसे अनेक मौके आए जब भारत ने क्षेत्रीय शांति तथा दोनों देशों के विकास और सौहार्द के लिए दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया पर पाकिस्तान हमेशा अपनी बात झूठी करता गया।
भारत में पिछले साल सत्ता संभालने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शपथ लेने के दिन से ही पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते मीठे बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी। उन्होंने सबको चौंकाते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी शपथ ग्रहण समारोह का न्योता भेजा। वे आए भी। उसके बाद ढेर सारे भावनात्मक कदम आगे बढ़े, पर पाकिस्तान ने अपने रवैए से दूरी पैदा करने की ही कोशिश की। भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों की अगस्त 2014 में तय बैठक इस वजह से नहीं हो पाई क्योंकि भारत के प्रति नफरत का भाव रखने वाले हुर्रियत के नेताओं को पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने भारत की तमाम आपत्तियों के बावजूद अपनी दावत में बुलाया था। उन्हें पता था यह घटनाक्रम रिश्तों पर उल्टा असर डालेगा।
पाकिस्तान के इस रवैए पर मेजर जनरल (से़ नि़) गगनदीप बख्शी ने पाञ्चजन्य से बातचीत करते हुए कहा कि पाकिस्तानी कूटनीति को देखते हुए इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। उन्होंने कहा कि जब भी भारत वहां के राजनीतिक नेतृत्व से शांति के लिए कोई चर्चा-वार्ता करता है, उनकी आईएसआई और सेना के कमांडर हरकत में आ जाते हैं। शायद इस बार भी वही हुआ है। शरीफ के इस्लामाबाद लौटते ही वहां के कट्टरवादी तत्वों ने सरकार के अफसर से वही कहलवाया जो वे चाहते हैं। मेजर जनरल बख्शी का कहना था कि भारत की पड़ोसी देशों से दोस्ती कायम रखने की नीति एकदम सही है, लेकिन किसी देश की, खासकर पाकिस्तान जैसे देश की पुरानी चाल को परखकर ही हमारे नीतिकारों को आगे बढ़ना होगा। उसका कश्मीर की रट लगाना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जिस तरह से उफा में पांच सूत्र तय किए गए उससे तो लगता है उस वार्ता की तैयारी पहले से हो रही थी। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान किस तेजी से अपनी बातों से मुकर जाता है। हो सकता है वहां हुई वार्ता के पीछे रूस और चीन का कोई दबाव रहा हो, पर हमें किसी भी तरह के दबाव से परे रहते हुए, अपने राष्ट्रीय हित का ध्यान रखना होगा।
और पाकिस्तान ने कौन सा अब पहली बार उल्टी चाल चली है? कौन भुला सकता है 1999 में 20 फरवरी का वह दिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए थे। उन्होंने आगे बढ़कर पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, उस समय भी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ही थे। लेकिन पाकिस्तान के तत्कालीन फौजी जनरल परवेज मुशर्रफ ने मन ही मन साजिशें रचकर, सियासी नेतृत्व को छकाते हुए महज साढ़े तीन महीने बाद कारगिल की चोटियों पर युद्ध छेड़ दिया था। उस लड़ाई में बुरी तरह पिटा था पाकिस्तान।
लेकिन भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर अमरीका की थानेदारी की आदत पुरानी रही है। पाकिस्तान के लिए दिल में नरमाई लिए अमरीका ने उसकी हर गुस्ताखी को नजरअंदाज करते हुए न केवल उसे एफ-16 विमान दिए हैं, बल्कि अत्याधुनिक हथियार दिए हैं, करोड़ों डालर दिए हैं। अमरीका को सदा से पता है कि पाकिस्तान इन सबका इस्तेमाल भारत के खिलाफ ही करता रहा है। इधर राष्ट्रपति ओबामा भारत को भी अपनी शतरंजी चालों में उलझाता रहा है। अफगानिस्तान से जाने के बाद भी उसने वहां भारत की उपस्थिति के लिए जगह नहीं रखी है, जबकि भारत ने वहां अरबों रुपए का निवेश किया हुआ है। अमरीका ने वहां पाकिस्तान को डोर सौंपी। अफगानिस्तान के नए बने राष्ट्रपति गनी ने भारत से हथियारों की खरीद पर रोक लगाई हुई है। उनसे पहले राष्ट्रपति रहे करजई भारत के प्रति दोस्ताना रुख रखने वाले माने जाते थे, पर आज तो हालात कुछ और ही बयान करते हैं।
मेजर जनरल बख्शी की मानें तो भारत-पाकिस्तान संबंधों पर चीन की दखलंदाजी भी एक अहम भूमिका निभा रही है। पाकिस्तान से चीन के बहुत हित सधते हैं और चीन भी भारत के सामने एक सतत् परेशानी के तौर पर पाकिस्तान को उकसाता है। हू जिन ताओ के समय से लटका ग्वादर बंदरगाह का मामला आखिरकार जिनपिंग के जरिए चीन की झोली में चला ही गया। पाकिस्तान में चीनियों की अच्छी-खासी संख्या है। इसलिए भारत से पाकिस्तान की नजदीकी उसके नजरिए से ठीक नहीं रहेगी यही सोचकर शायद चीन ने लखवी के मामले में पाकिस्तान का पक्ष लिया।
हालांकि, आगे भी चीन पाकिस्तान को इस्तेमाल करके भारत पर दबाव बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ेगा। उसे पता है कि भारत की तरक्की की रफ्तार अब तेज हो रही है। ये अनुमान दुनिया भर की एजेंसियां लगा रही हैं। चीन साढ़े छह प्रतिशत के नीचे लुढ़कता दिख रहा है। जबकि, भारत साढ़े सात प्रतिशत के ऊपर जाता दिखता है।
कूटनीति के रास्ते से एक ओर चीन भारत और पाकिस्तान की नजदीकी का हामी दिखना चाहता है तो दूसरी ओर भारत की अर्थव्यवस्था को डगमगाए भी रखना चाहता है। शायद इसीलिए चीन की आधिकारिक न्यूज एजेंसी शिनहुआ पर लिखा गया कि 'रिश्तों में ये गर्मजोशी' दोनों देशों के लिए बड़ी उपलब्धि है।
पाकिस्तान के सूचना मंत्री परवेज राशिद का ये बयान बड़ा महत्वपूर्ण है कि अगर 1999 में परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट न किया होता तो, कश्मीर का मुद्दा अब तक सुलझ जाता। अच्छी बात ये है कि फिर से वही नवाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं। उससे भी अच्छा यह है कि भारत में आज एक राष्ट्रभक्त सरकार सत्ता में है। कुर्सी संभालते ही प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा कर दी थी कि हम अपने पड़ोसी देशों से दोस्ताना संबंध चाहते हैं। इसलिए उन्होंने सरकार के गठन के फौरन बाद से ही पड़ोसी देशों के नेताओं के साथ वार्ता और उन देशों की यात्रा करके एक स्पष्ट संकेत दिया था। पाकिस्तान के साथ भी एक नहीं कई बार मोदी सरकार ने साफ कर दिया है कि हम आपसी विश्वास और विकास की डगर पर बढ़ने के इच्छुक हैं, न कि तनाव और आतंकी माहौल के। पाकिस्तान में सत्ता प्रतिष्ठान को यह समझना होगा और आईएसआई के इशारे पर आएदिन सीमापार से होने वाली गोलीबारी से बाज आना होगा। क्योंकि आज दिल्ली की सत्ता रीढ़हीन नहीं, राष्ट्रभक्त है और जवाब सवाल की ही भाषा में देना जानती है। इसलिए हमें पाकिस्तान के हर तरह के रवैए को सही से भांपकर ही कूटनीति बनानी होगी।
लाहौर घोषणा पत्र (1999) में थे ये पांच बिन्दु
1. दोनों देशों के बीच शांति और स्थायित्व तथा दोनों देशों के नागरिकों के लिए विकास और समृद्धि का सिद्धांत साझा करना।
2. स्थायी शांति और सौहार्दपूर्ण संबंध तथा दोस्ताना रिश्ते दोनों देशों की जनता के महत्वपूर्ण हितों के लिए जरूरी, इससे वे बेहतर भविष्य के लिए अपनी ऊर्जा लगा सकेंगे।
3. दोनों देशों के सुरक्षा माहौल में परमाणु वाला आयाम देखते हुए दोनों देशों के बीच संघर्ष को दूर रखना दोनों की जिम्मेदारी है।
4. संयुक्त राष्ट्र के चार्टर तथा शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के विश्व में मान्य उद्देश्यों और सिद्धांतों के प्रति समर्पित रहना।
5. शिमला समझौते को उसकी मूल संकल्पना के अनुसार लागू करने के प्रति प्रतिबद्धता दोहराना।
उफा में भारत-पाकिस्तान द्वारा जारी किए गए सूत्र
1. आतंकवाद से जुड़े सभी मुद्दों पर बातचीत के लिए दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नई दिल्ली में मिलेंगे।
2. सीमा सुरक्षा बल और पाकिस्तान रेंजर्स के महानिदेशकों की जल्दी ही वार्ता होगी जिसके बाद दोनों देशों के सैन्य ऑपरेशन्स के महानिदेशक बैठक करेंगे।
3. दोनों देशों में बंदी बनाए गए एक-दूसरे के मछुआरों को 15 दिनों के अंदर उनकी नावों सहित रिहा किया जाएगा।
4. पांथिक पर्यटन सुगम बनाने के लिए सुचारु व्यवस्था बनाई जाएगी।
5. दोनों पक्ष मुम्बई हमले की सुनवाई में तेजी लाने के तरीकों और साधनों पर विचार करेंगे। इसमें आवाज के नमूने सहित अन्य अतिरिक्त सूचनाएं उपलब्ध कराना भी शामिल है।
फूंक-फूंककर कदम बढ़ाना होगा
जे. के. त्रिपाठी
पिछले दिनों उफा में सम्पन्न हुई शंघाई संगठन की शीर्षवार्ता के मौके पर भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों की वार्ता में कई मुद्दों पर विचार हुआ। वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान के अनुसार हालांकि दोनों देशों ने सारे लंबित मुद्दों पर बातचीत जारी रखने का निर्णय लिया, आतंकवाद के सभी रूपों की भर्त्सना की और इसे खत्म करने की दिशा में सहयोग करने पर सहमत हुए थे। उसके बाद भारत को लगा था कि मुम्बई हमले पर कार्यवाही तेजी से आगे बढ़ेगी, किन्तु इस मुलाकात के दो दिन बाद ही पाकिस्तान लगभग सभी मुद्दों पर पलटता दिखाई दिया। पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज का वह बयान, कि पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को कभी नहीं छोड़ सकता, उस देश के परंपरागत तौर-तरीके से कुछ भिन्न नहीं था। मुम्बई हमले के प्रमुख साजिशकर्ता, जिहादी लखवी की आवाज का नमूना देने के मामले में भी पाकिस्तान अपने कहे से पलट गया।
भारत में इस वार्ता को लेकर तीखी प्रतिक्रिया सुनने में आई। दरअसल अपनी ही स्वीकारी बातों से पलट जाना पाकिस्तान का यह इतिहास रहा है। विभाजन के बाद से ही राज्य संपत्ति के बटंवारे की बात न बढ़ाना, 1948 में कश्मीर से सेनाएं वापस बुलाने के सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव की अनदेखी करना, ताशकंद एवं शिमला समझौतों की धज्जियां उड़ाना, पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी की पहल पर हुई लाहौर वार्ता से उभरे सकारात्मक वातावरण को समाप्त करना आदि। ये कदम दर्शाते हैं कि पाकिस्तानी हुकूमत भारत से सम्बंध सुधारने की दिशा में कभी भी दृढ़ और प्रतिबद्ध नहीं रही है।
ऐसा क्यों होता है, यह जानने के लिए पाकिस्तानी प्रशासन के ढांचे को समझना आवश्यक है। पाकिस्तान के इतिहास में लगभग आधे समय तक सेना ने प्रत्यक्ष सैन्य तानाशाही के रूप में शासन किया और शेष आधे समय नेपथ्य से लोकतांत्रिक सरकार को कठपुतली की भांति नियंत्रित किया है। किसी भी देश में सेना को सर्वाधिक महत्वपूर्ण साबित करने के लिए आवश्यक हो जाता है कि किसी बाहरी आक्रमण का हौआ खड़ा किया जाए जिसका सामना सेना ही कर सकती हो। पाक सेना के लिए भारत से अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा और क्या हो सकता था? पाकिस्तान की सेना नहं चाहती कि दोनों पड़ोसी देशों में शांतिपूर्ण सम्बंध कायम हों और उसकी महत्ता खत्म हो जाए। इसीलिए वहां की जिस नागरिक सरकार ने भी सम्बंध सुधारने की कोशिश की उसका तख्ता पलट दिया गया। किसी ने सत्य ही कहा कि 'भारत एक देश है जिसके पास सेना है, जबकि पाकिस्तान एक सेना है जिसके पास एक देश है'। सेना के साथ आतंकवादी तत्वों का जुड़ना सेना को अधिक खतरनाक बना देता है।
उफा से लौटकर पाकिस्तान में दिया सरताज अजीज का बयान स्पष्टत: सेना, आतंकवादियों और उग्रपंथियों को संतुष्ट करने के लिए दिया गया था। हालांकि नवाज शरीफ के विदेश मामलों के सलाहकार सैयद तारिक फारुकी से कहा कि पाकिस्तान उफा में किए गए अपने वायदों पर कायम रहेगा और अपने दोस्तों को शर्मिंदा नहीं होने देगा। पाकिस्तानी समाचार पत्र 'द नेशन' ने तो यहां तक लिखा कि उफा में सहमत होने के बाद अपने कहे से पलट जाने से पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा।
यहां इस पर भी विचार करना समीचीन है कि यह मुलाकात क्यों हुई और इससे किस देश को क्या मिला? विगत अगस्त में दोनों देशों के विदेश सचिवों की वार्ता भारत द्वारा स्थगित कर दी गई थी क्योंकि उसके ठीक पहले भारत में पाक उच्चायुक्त से हुर्रियत नेताओं ने मुलाकात की थी। पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे को भड़काए रखना चाहता है इसीलिए इसे हर अन्तरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय सम्मेलन में उठाता है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि उफा वार्ता भारतीय कूटनीति की दृष्टि से सफल रही। इस वार्ता से तुरंत कुछ ठोस समाधान भले न निकले, फिर भी पाकिस्तान के पिछले रिकार्ड को देखते हुए अधिक सावधानी से कदम बढ़ाना अपरिहार्य होगा।
(लेखक जिम्बाब्वे में भारत के राजदूत रहे हैं)
आलोक गोस्वामी
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