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दोस्ती की राह, सहयोग की चाह

by
May 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 May 2015 14:13:08

 

 

 

जे. के. त्रिपाठी
केन्द्र में भाजपानीत राजग सरकार के एक साल पूरे होने पर स्वाभाविक है सरकार की विदेश नीति की स्थिति का जायजा लिया जाए। देखा जाए कि इस क्षेत्र में देश को क्या और कितना हासिल हुआ। मेरा मानना है कि अन्य क्षेत्रों के उलट विदेश नीति के परिणामों का आकलन एक वर्ष की छोटी समय सीमा में नहीं किया जा सकता। फिर भी जो परिणाम आए हैं उनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विदेश नीति की गति एवं दिशा दोनों ही राजग सरकार के इस एक वर्ष के कार्यकाल में काफी सकारात्मक रहे हैं।
समग्रता से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्देशन में भारतीय विदेश नीति को अपने लक्ष्य संपादन में सर्वथा एक नई ऊर्जा प्राप्त हुई है जिसका पिछले शासनकाल में स्पष्ट अभाव था। विदेश नीति के मुख्य उद्देश्य तब कमोबेश वही थे जो अब हैं, किन्तु अंतरराष्ट्रीय पटल पर भारत और उसकी विदेश नीति पर्याप्त रूप में परिलक्षित नहीं होती थी। इससे जन समुदाय, विशेषतया अप्रवासी भारतीयों में भारत की रुचि, उसकी प्रतिष्ठा, उसकी सफलताओं और क्षमता के विषय में पर्याप्त ज्ञान नहीं था। आज के युग में जहां गतिशील होना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना गतिशील दिखना, मोदी सरकार ने इस छवि में सुधार और प्रसार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति की है। जन राजनय के क्षेत्र में इन नए उपायों ने जहां विदेश नीति का कलेवर बदल दिया है वहीं आक्रामक प्रचार ने अप्रवासी भारतीयों को भारत के अधिक नजदीक ला दिया है।
स्मरणीय है कि इन प्रवासी भारतीयों में से ही कई अपने-अपने देशों के सांसद और गवर्नर भी हैं और उन देशों की विदेश नीति को भारत के पक्ष में मोड़ने में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं। अब अन्तरराष्ट्रीय रंगमंच पर भारत एक नए रूप में उभर रहा है। जहां एक ओर हम संयुक्त राज्य अमरीका, चीन, जर्मनी, जापान, फ्रांस, कनाडा और आस्ट्रेलिया सरीखे विकसित देशों के साथ बराबरी के स्तर पर बात करते नजर आते हैं, वहीं दूसरी ओर नेपाल, अफगानिस्तान, म्यांमार, बंगलादेश और मंगोलिया की सहायता को भी तत्पर दिखते हैं। इस बात को जोर-शोर से उछाला जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने एक वर्ष में 18 देशों की यात्रा की है। कहीं कहीं यह आलोचना भी की जा रही है कि इस दौरान विदेश-नीति ने जो भी प्राप्त किया वह बहुत कम था। लेकिन जल्दबाजी बहुत थी। प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं का विश्लेषण यह स्पष्ट कर देता है कि ये यात्राएं कितनी प्रासंगिक थीं। मोदी की अमरीका, नेपाल, ब्राजील, म्यांमार तथा आस्ट्रेलिया की यात्राएं बहुपक्षीय शीर्ष सम्मेलनों में भाग लेने के लिए थीं जो किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री के लिए अपरिहार्य होतीं। आस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा एवं अमरीका 'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' के सदस्य हैं और इस रूप में भारत के पारमाण्विक बिजली घरों को ईंधन प्रदान करने की दृष्टि से विकसित जी-8 समूह के सदस्य भी हैं। इस कारण इन देशों की यात्राएं प्रधानमंत्री के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं।
विगत तीन दशकों से भी अधिक समय से कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति आस्ट्रेलिया, फिजी, कनाडा या मंगोलिया नहीं गए थे।
इस एक वर्ष में भारतीय विदेश नीति के जो परिणाम आए हैं, उनसे सकारात्मकता जाहिर होती है। विश्व व्यापार संगठन में खाद्य सुरक्षा के मामलों पर भारत और अमरीका वर्षों से आमने-सामने थे। प्रधानमंत्री की अमरीका यात्रा के बाद अमरीका ने भारत के तर्कों को स्वीकार कर लिया। ओबामा ने खुलेआम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी का समर्थन किया। तकनीकी ज्ञान के हस्तान्तरण के विषय में समझौते हुए। फ्रंास, कनाडा और आस्ट्रेलिया की सरकारों ने परमाणु ईंधन देना स्वीकार किया। दो दशकों से अधिक समय से नए लड़ाकू विमानों की प्रतीक्षा कर रही भारतीय वायुसेना को न केवल 36 राफेल विमान तुरन्त प्रदान करने पर सहमति बनी, बल्कि शेष विमानों के भारत में निर्माण के रास्ते पर भी प्रगति हुई। चीन से भारत में 22 अरब डॉलर के निवेश के लिए 26 समझौते हुए, रेलवे में सुधार, प्रदूषण की रोकथाम, स्मार्ट सिटी आदि विषयों पर भी कई देशों से समझौते हुए हैं। रही बात विदेशी निवेश की तो यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि ऐसे निवेश रातोंरात नहीं किए जा सकते हैं। पहले आपसी आवश्यकताओं और परिवेश को सुधारा जाता है फिर निवेशक द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव को भारत सरकार के संबद्ध विभाग हर दृष्टि से तोलते हैं। इस प्रक्रिया में समय लगता है।
चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा-विवाद सुलझाने की दिशा में मोदी सरकार ने गंभीरता दिखाई है। यह विचारणीय है कि विगत सरकारों ने भी ऐसे जटिल पेच सुलझाने के लिए कदम-दर-कदम चलने के प्रयास किये थे। पहले पारस्परिक विश्वास संवर्द्धन के द्वारा छोटे और कम जटिल मुद्दे सुलझाए जाते हैं ताकि अधिक सौहार्दपूर्ण वातावरण में सीमा विवादों पर बातचीत हो सके। अब जब मोदी सरकार यही तरीका चीन के साथ अपना रही है तो विपक्ष का व्यर्थ के आरोप लगाने का कोई औचित्य नहीं रहता। चीन के साथ सीमा विवाद पर बात चल भी रही है। पाकिस्तान का आक्रामक रुख भारत-पाक सीमा विवाद सुलझाने में आड़े आ रहा है। कुल मिलाकर वर्तमान सरकार विदेश नीति के कार्यान्वयन में तेज किन्तु सतर्क गति से सही दिशा की ओर बढ़ रही है। ल्ल
(लेखक जिम्बावे में भारत के राजदूत रहे हैं।)

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