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वर्तमान में दो महिलाओं के विषय में इस्लाम के नजरिए से दिमाग में कुछ सवाल कौंधते हैं और आत्मविश्लेषण करने को कहते हैं। मैं यह बात कथित सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ एवं शीरीन दलवी के विषय में कह रहा हूं। दोनों मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और इस बात का समर्थन करती हैं कि बहुसंख्यकों का यह कर्तव्य है कि वे अल्पसंख्यकों का ध्यान रखें'। कथित सामाजिक कार्यकर्ता सीतलवाड़ मुसलमानों में एक जाना-पहचाना नाम है और यूं कहें कि इस्लामी दुनिया में 'मुजाहिदा' महिला योद्धा के रूप में चर्चित हैं, जबकि शीरीन दलवी एक आक्रमणकारी शिकारी की तरह भूमिगत होकर सक्रिय हैं। बेशक उन्होंने अपना समाचार पत्र 'अवधनामा' बंद कर दिया है,। तीस्ता सीतलवाड़ भारत में दंगाई मुसलमानों के मानव अधिकारों के लिए युद्ध छेड़े हुए हैं तो दूसरी ओर दलवी सभी अल्पसंख्यकों के लिए मुस्लिम बहुल देशों जैसे पाकिस्तान और बंगलादेश तक में इनके अधिकारों की वकालत करती हैं।
शीरीन दलवी मानवाधिकारों पर कह चुकी हैं कि जो मुस्लिम बहुल देश हैं वहां उनका कोई अन्य प्रतिद्वंद्वी संघर्ष करने वाला नहीं है। तसलीमा नसरीन के एक प्रश्न का जवाब देती हुईं दलवी कहती हैं 'कि मैंने कभी भी तसलीमा नसरीन के बारे में कुछ नहीं लिखा लेकिन मैं यह विश्वास करती हूं कि बहुसंख्यक समाज का कर्तव्य है कि वह अल्पसंख्यकों का ध्यान रखे।'
दलवी एक संपादक के तौर पर समाचार पत्र में दोनों पक्षों की बात को रखती हैं जबकि अन्य मुस्लिम समाचार पत्र ज्यादातर एक ही पक्ष को लेते हैं और दूसरे पक्ष को जानने तक की कोशिश नहीं करते। वे कहती हैं कि उन्हें जैसे ही अपनी गलती का एहसास होता है वे फौरन माफी मांग कर उस गलती को महसूस करती हैं। हैरानी की बात है कि चार्ली एब्दो ने हाल ही में मोहम्मद पैगंबर का व्यंग्य चित्र छापा था जिसे कई मुस्लिम समाचार पत्रों ने पहले पन्ने पर जगह दी। जबकि एक संपादक अजीज बर्नी कहते हैं कि यह गलती माफी लायक नहीं है। जिन समाचार पत्रों ने पैगंबर का व्यंग्य चित्र छापा है उनको अधिकतर मुसलमान नहीं पढ़ते और इन पत्रों के बारे में मुझे भी नहीं पता कि कब व्यंग्य छपा था। जिस पत्र की बात हो रही है उस 'अजीजुल हिन्द' का एक बड़ा पाठक वर्ग है, सिरीन दलवी के अवधनामा की अपेक्षा। जो व्यंग्य छपा है, उससे मुसलमानों की भावनाएं आहत हुई हैं और जिसने भी यह व्यंग्य छापा है वह बहुत बड़ा दोषी है। इस दृष्टि से तो बर्नी ज्यादा बड़े गुनाहगार हैं।
हम सभी प्रबुद्ध मुसलमान मानवाधिकारों, मजहबी स्वतंत्रता को महसूस करते हैं। हम कभी भी ऐसा महसूस नहीं करते कि हमने अपने अधिकारों के लिए हिंसा का रास्ता अपनाया हो और मुसलमानों की स्वतंत्रता पर किसी तरह की पूर्ण बंदिश यहां है। हम बात करते हैं हिंसा के विषय में खासकर मजहबी मुस्लिम बहुल देशों की। जहां पर उनके पदाधिकारी शरिया कानूनों को लागू करते हैं, जैसे पाकिस्तान और सउदी अरब।
क्या उन देशों में मुसलमानों के शरिया कानूनों को कोई चुनौती दे सकता है? और जो भी अन्य पंथ व मत के अनुयायी हैं वे उन देशों में मानवाधिकारों की बात कर सकते हैं और शरिया कानूनों या इस्लाम के नियम कानूनों को तोड़ने की सोचते भी हैं तो उनका हाल क्या होता है जगजाहिर है।
आज विश्वभर में बोलने की स्वतंत्रता सर्वोच्च स्थान पर है। और इसे प्रतिबंधित करना या इस पर लगाम लगाना संभव नहीं है। इसी बोलने की स्वतंत्रता को दबाने का उदाहरण है कि मेरी वेबसाइट 'न्यू एशियन एज' को तत्काल रूप से पाकिस्तान में प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके पाठकों के लिए यह किसी आघात से कम नहीं है। अन्तत: मजहबी स्वतंत्रता को लेकर इस्लाम में लड़ाई शुरू हो चुकी है और आज मुसलमान मजहबी स्वतंत्रता को लेकर संघर्ष कर रहा है तो वह सिर्फ इस्लाम के मिथ्या चरित्र के कारण। तीस्ता पूरी तरह से इस्लाम की पैरोकारी करती हैं और उनका कोई भी ठोस विचार या संस्कृति नहीं है।
आज मुसलमानों को इस्लाम के विमर्श में डुबकी लगाने को उकसाया जाता है। खासकर उनकी पुस्तक कुरान के लिए जिसमें स्पष्ट तौर पर लिखा है कि इस्लाम युद्ध करे अपनी मजहबी स्वतंत्रता को पाने के लिए अन्य मत-पंथों से। कुरान (22:40) में लिखा है 'अल्लाह ने स्थान-स्थान पर तुम्हें पैदा किया । तुम वहां पर अन्य मत-पंथों के पांथिक प्रतीकों को तबाह करो जिससे इस्लाम जिंदा रहे।' यह वाक्य पहली बार इसलिए कि हम दशकों से मजहबी स्वतंत्रता के लिए कोहराम मचाये हुए हैं, एक तरीके से कहें तो जिहाद। लेकिन जिस तरीके से इस्लाम में दिग्भ्रमित किया जाता है कि जिहाद से अल्लाह मिलता है,यह पूरी तरीके से गलत है।
भगवान पूजा आराधना से मिलता है चाहे वह किसी भी मंदिर या आस्था स्थल पर क्यों न की जाए। आज प्राय: हम भारत में देखते हैं कि हर राज्य में मस्जिद है और उस पर किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं है। लेकिन मुस्लिम बहुल देशों में अन्य मत-पंथ के आस्था स्थानों के लिए एक तरह से बिलकुल स्थान ही नहीं है। इसलिए मुसलमानों के छद्म युद्ध की बात करने वाली तीस्ता सीतलवाड़ अपने को मुसलमानों का 'हीरो' समझती हैं, वहीं शीरीन दलवी एक सामान्य महिला होने पर भी अपने अभियान में जुटी हैं लेकिन असल मायनों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करने वाली और जिहादियों के हमलों का शिकार तसलीमा नसरीन उनसे कई गुना प्रभावी हैं क्योंकि तसलीमा इस्लाम की सही बात को सही और गलत बात को गलत कहती हैं। -सुल्तान शाहीन
(लेखक - न्यू एज इस्लाम वेबसाइट के संपादक हैं)
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