|
हमारे देश में डा़ भीमराव अंबेडकर की छवि वंचितों के प्रतिनिधि के तौर पर है। भारत में समाज में से अस्पृश्यता मिटाने हेतु किए गए उनके प्रयास असाधारण हैं। देश की तकरीबन हर वंचित बस्ती में डा. अंबेडकर की प्रतिमा दिखाई देेती है, घर-घर उनकी तस्वीर होती है और उनको पूजा जाता है। हो सकता है आज की युवा पीढ़ी में अनेक उनके सिर्फ वंचितों के नेता होने के बारे में जानकारी रखते हों, पर ईसाई मिशनरियों के मतांतरण को राष्ट्रांतरण कहने का उनका आग्रह, संस्कृत का आग्रह एवं उससे भी अधिक उन्होंने भारतीय संविधान की रचना में भविष्य में राष्ट्रीय एकरूपता और एकात्मता के संभावित खतरों के बारे में जो चेतावनी जताई है उससे साफ है कि वे केवल वंचित वर्ग के नेता ही नहीं थे,अपितु संभावित खतरों से भारत राष्ट्र की रक्षा की चिंता करने में भी अग्रणी थे। भारतीय संविधान के मसौदे को संसद में रखने के वक्त दिया उनका भाषण संविधान के आशय जितना ही महत्वपूर्ण है। देश में छोटे छोटे राजनैतिक दल बनने के बारे में उनकी दी हुई चेतावनी में यह बताया गया था कि उन दलों के देश में सत्ता हथियाने के प्रयास में अनेक विदेशी शक्तियां उन्हें मदद करती दिखेंगी एवं उससे एक हजार वर्ष तक रही परतंत्रता की पुनरावृत्ति हो सकती है। अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति से गुजरते हुए और कई लोगों के विरोध का सामना करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय भावना के रक्षक की भूमिका अपनाई थी। शायद डा़ अंबेडकर का चरित्र पढ़ते हुए यही समझ आए कि उन संदभोंर् में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। लेकिन आज संविधान समिति के उस भाषण के करीब 70 वर्ष बाद जिस तरह से विदेशी ताकतों ने इस देश में घुसपैठ करने का एक भी अवसर नही गंवाया, उसे देखते हुए बाबासाहब द्वारा दी गई उस चेतावनी का महत्व तो समझ में आता है, साथ ही उनका असाधारण व्यक्तित्व भी स्पष्ट होता है।
'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक के 17वें अध्याय में वंचित विषय के आधार पर देश को विदेशी नियंत्रण के तहत लाने के प्रयासों की विस्तृत जानकारी है। इसमें यूरोपीय ताकतों यानी मुख्य रूप से चर्च संगठनों, स्केनडिनेवियाई देशों, बाल्टिक देशों की अगुआई एवं पूर्व की ओर जापान और दक्षिण कोरिया के कुछ संगठनों की मदद लेकर इस विषय के आधार पर देश का विभाजन करने का जो प्रयास किया गया उसका विस्तृत वर्णन है। देश में वंचित समस्या को सुलझाने के लिए बाबासाहब ने एक दिशा स्पष्ट की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उस दिशा में बढ़ना भी शुरू हुआ। मूल समस्या पुरानी एवं बड़ी होने के कारण ये सारी बातें क्रमश: ही होंगी, यह भी बाबासाहब के सामने स्पष्ट था। लेकिन विदेशी संगठनों ने कुछ स्थानीय लोगों को साथ लेकर यह विषय संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ के मानवाधिकार आयोग के सामने रखकर इस बहाने यहां अन्य देशों के निरीक्षक लाने, उनका समानांंतर प्रशासन लाने आदि के लिए प्रयास करना शुरू किया। विदेशी ताकतों की बार बार घुसपैठ वास्तव में आने वाले समय में भी एक गंभीर विषय होगा, क्योंकि यूरोपीय लोगों के बोझ से मुक्त होने के बाद बार बार छोटे-बड़े कारण उभारकर की जाने वाली ये घुसपैठ केवल भारत तक सीमित नहीं है।
भारत पर कभी अंग्रेजों का राज था। उसी तरह विश्व के आज के करीब 72 देशों पर भी ब्रिटिशों का राज था। राष्ट्रसंघ के सभी सदस्य देश कभी ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थे। इसके अलावा पुर्तगाल, स्पेन एवं इटली की भी अंग्रेजों के बराबरी के भूभाग पर सत्ताएं थीं। ऐसे सब मिलकर 125-150 देश हैं। उन कुछ देशों का विभाजन भी हुआ है एवं कुछ देश पड़ोसी देशों के हिस्से बन गए हैं, इसलिए यह संख्या 125 से 150 तक पहंुचती है। इन सभी देशों में कुछ मुद्दे हैं जिन पर कुछ असंतोष दिखता है। भारत में वंचित, द्रविड़, खालिस्तान, नागालैंड, कश्मीर की समस्या जैसे मुद्दों पर चर्चा की गई है। इन सभी समस्याओं की वर्तमान स्थिति 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक में लिखी गई है। यूरोप से स्वतंत्र हुए देशों पर फिर से अपना नियंत्रण पाने के लिए यूरोप ने जो बड़ी योजना शुरू की है, उसे पहचानकर उसका प्रतिकार करने के सिद्धांतों की पाठ्यपुस्तक के रूप में इस पुस्तक को महत्व प्राप्त हुआ है। 21वीं सदी में पुन: यूरोप के उस आक्रमण के खाके को समझना ही तो समय की मांग है, क्योंकि यह खाका केवल यूरोपीय प्रभुत्व की पुनर्स्थापना का नहीं है, बल्कि इस खाके जितनी ही व्यापक योजना खिलाफत की भी है। 'यूरो-मैगाप्लान' एवं 'आईिसस मैगाप्लान' भले ही एक दूसरे से टकराव में दिखते हों, लेकिन आज तक का अनुभव यह है कि किसी देश में एक दूसरे के बराबर होना सुनिश्चित होते ही वे उस देश में अपनी कार्रवाइयों की तरह ही भारत में उसकी 'विस्तार शाखा' शुरू करते हैं। इसलिए भारत को सचेत रहने की आवश्यकता है। पूरे विश्व में एक दूसरे के प्रति उनके 'मैगाप्लान' फिलहाल पूरे विश्व के मीडिया में आएदिन के समाचारों का विषय है। यह विषय वे भारत के संदर्भ में किस तरह अपनातेे हैं, यह दीर्घकालीन दृष्टिकोण से देखने का विषय है। इनमें से कुछ विषय चार-आठ दिनों के होते हैं, कुछ 10-12 वर्ष की अवधि के होते हैं तो कुछ अनेक सदियों के योजनाबद्ध प्रयास जैसे होते हैं। यह ध्यान में रखने की बात है।
द्रविड़ विषय को रखने के लिए यूरोपीय संगठनों ने यूरोप के विश्वविद्यालयों की मदद ली। उसी तरह वंचित विषय के लिए उन्होंने स्केनडिनेवियाई एवं बाल्टिक देशों के कम्युनिस्ट संगठनों की मदद ली। इसे कोरिया और जापान के संगठनों का सहयोग प्राप्त हुआ। इसका कारण यह है कि ये सभी देश कम्युनिस्ट देशों के पड़ोसी देश हैं। आज रूस की स्थिति चाहे जो हो, लेकिन उनके इस पड़ोसी देश में कम्युनिस्ट ईसाई संगठनों की बड़ी संख्या है। विश्व की सत्ता राजनीति में आज उन देशों का कोई महत्व नहीं है, इस बहाने उन्हें पुन: विश्व के एजेंडे का हिस्सा होने का अवसर मिला। स्केनडिनेवियाई देशों में नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड, आईसलैंड शामिल हैं तो बाल्टिक देशों में लातविया, एस्टोनिया और लिथुआनिया। यूरोपीय देशों को इससे अनजाने ही मिलने वाला फायदा यह है कि संयुक्त राष्ट्र के अनेक कार्यालय यूरोप में हैं एवं बहुत से अमरीका में भी हैं। इसलिए कई छोटी-मोटी चीजें वे वहीं करवा लेते हैं। संयुक्त राष्ट्र की सन् 2001 में डर्बन में हुई वर्ल्ड कांफ्रेंस ऑफ यूनाइटेड नेशन्स ऑन ह्यूमन राइट्स में 'भारत में द्रविड़' विषय भी रखा गया और वंचितों का विषय भी रखा गया। वास्तव में ये विषय वहां स्वीकारे नहीं गए, लेकिन इससे इस विषय को पूरे विश्व में अलग-अलग सेमिनारों में स्थान मिलना शुरू हुआ। वंचितों से जुड़े विषयों के लिए उन्होंने अनेक देशों में कार्यालय स्थापित किए। इस बहाने एक बात साफ हो गई कि इसमें इंटरनेशनल दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क-डेनमार्क, लूथेरन वर्ल्ड फेडरेशन-जिनेवा और वर्ल्ड काउंसिल ऑफ चर्चेस-जिनेवा जैसे संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसा करने के पीछे उनका यही प्रयास यह था कि भारत विश्व के नस्लीय विद्वेष वाले देशों की सूची में शामिल हो अर्थात् यह साबित हो कि यूरोप ने 18वीं सदी में दुनिया पर नस्लवाद नहीं थोपा था।
स्पष्ट है कि 18वीं सदी में विश्व पर यूरोपीय वर्चस्व बनाए रखने के लिए इसका जन्म हुआ था। 'विश्व का उद्गम यूरोप से होता है' एवं 'विश्व पर वर्चस्व बनाने' यानी उसे 'लूटने का अधिकार यूरोप को इसी इतिहास से मिला है', यह भ्रांति उन्होंने इसी में से पूरे विश्व में फैलायी थी। इतिहास के प्रत्यक्ष उदाहरणों से वह इतिहास भी नहीं टिका और विज्ञान की कसौटी पर नस्लवाद भी नहीं टिका। फिर भी आज तक पूरे विश्व में यूरोपीय वर्चस्व वाला इतिहास ही पढ़ाया जाता है। इस कारण एवं विज्ञान भी यूरोपीय पाठ्यपुस्तकों से आने के कारण आधी दुनिया में आज भी वही इतिहास एवं वही विज्ञान पढ़ाया जाता है। भारत भी इसमंे अपवाद नहीं है।
डर्बन परिषद में देश-विदेश की जातियों को अलग-अलग नस्ल का बताने का प्रयास हुआ, लेकिन वह टिक नहीं पाया। उस परिषद में और एक बात प्रकट हुई, वह यह कि भारत में ही विश्व के सभी नस्लीय-विद्वेषों का मूल है। पूरी दुनिया में यही बात फैलाने के लिए यूरोपीय देशों ने खूब दम लगाया। यूरोप के ज्यादातर देशों की संसदों में यह विषय उठाने का प्रयास करते हुए उसके जरिए भारत के गृह मंत्रालय पर कुछ नियम थोपने का अपना प्रयास उन्होंने जारी रखा था अर्थात अप्रत्यक्ष रूप यहां के कानून और व्यवस्था पर कब्जा करने का प्रयास जारी रखा था। सन् 2001 में हुई डर्बन परिषद एवं जिनेवा में जातियों को नस्लवाद से जोड़ने वाली सन् 2009 की परिषद एक ही विषय की यात्रा थी। इसमें भारत में ईसाई मिशनरियों की कुछ संस्थाओं ने भी बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया था। तमिलनाडु में थियोलॉजिकल सेमिनरी, लूथेरन गुरुकुल सेमिनरी, दलित पंचायत, नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित वूमेन, नेशनल केम्पेन ऑफ दलित ह्यूमन राइट्स का इनमें समावेश है। इस सबसे जो साहित्य उत्पन्न हुआ, उससे एट्रॉसिटी लिटरेचर' तैयार किया गया। इनमें दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क की स्थापना सन् 1998 में ब्रिटेन में की गई थी एवं इससे सन् 2000 में इंटरनेशनल दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क यानी आईडीएसएन नामक अंतरराष्ट्रीय संगठन की स्थापना की गई। इसका मुख्यालय कोपेनहेगन में रखा गया। इस माध्यम से अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन (आईएलओ), संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद और यूरोपीय देशों की संसदों के संयुक्त कामकाज, संगठनों और गठबंधनों में भी इस विषय का समावेश किया गया। संभावना है कि 500 वर्षों तक यूरोप के वर्चस्व तले रहे 125 देशों में से हर एक देश में दोष ढूंढकर एवं उसे वैश्विक स्तर पर उठाकर पुन: वहां अपना वर्चस्व कायम करने का उनका प्रयास अगली पूरी सदी में चलेगा। इसलिए यूरोपीय गुलामी एवं उनके द्वारा लूट की तपिश जिन्होंने झेली है, उन्हें इस ओर अधिक संदेह से देखना चाहिए। -मोरेश्वर जोशी
टिप्पणियाँ