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कमलेश पाण्डेय
अपनी एक कार्टून कृति में आर. के. लक्ष्मण दिखाते हैं कि 'चांद पर मानव प्रोजेक्ट' के लिए एक वैज्ञानिक उनके प्रसिद्ध प्रतीकात्मक आम आदमी को दिखाकर कहता है-ये रहा वह शख्स जो चांद पर भेजा जा सकता है, क्योंकि वह हवा-पानी, भोजन या छत के बिना मजे से जी सकता है। एक दूसरे कार्टून में कांटों के बिस्तर पर अधलेटा हंसता हुआ आम आदमी विदेशी पर्यटकों के आकषर्ण का केंद्र दिखाया गया है। एक सच्चा भारतीय मानवतावादी ही ऐसे करुणाजनक हास्यबोध का धनी हो सकता है।
कौन था वह लक्ष्मण का धोती और चेकदार-कोट-धारी, गंजा और मूंछों वाला आम आदमी? एक विशुद्ध भारतीय प्रतीक जो हर युग के शासकों की कथनी-करनी के विभेद का गवाह बना रहता है। उसे फ्रेम में देख कर कार्टून में उकेरी गई विडम्बना और मुखर होकर उभरती है। लक्ष्मण शासकों की सामंती मानसिकता पर व्यंग्य करते हुए कभी भी आम आदमी के सन्दर्भ को कटने नहीं देते। आम आदमी या एक खास शब्दावली में 'सर्वहारा' के अधिकारों के लिए संघर्ष पर अपना एकाधिकार समझाने वाले तमाम बुद्धिजीवी समूहों का वे अकेला जवाब थे। उनकी अभिव्यक्तियों में किसी राजनीतिक दल की प्रतिबद्घता की झलक नहीं आती थी, बस एक विशुद्घ मानवतावाद और भारतीयता से अटूट लगाव झलकता था। वे किसी को नहीं बख्शते थे। आजादी के शुरुआती दशकों में विकास के छद्म नारों और प्रयासों में छुपे भ्रष्टाचार के अंकुरों को कुरेद-कुरेदकर दिखाते हुए वे इतने प्रामाणिक लगते थे कि प्रधानमंत्री के पास भी सिवा ये कहने के कोई चारा नहीं बचता था कि भाई, मुझे भी मत बख्शो!
रेखाचित्रों के माध्यम से व्यंग्य की ऐसी तीक्ष्ण मारक शक्ति के पीछे उनकी भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के प्रति अगाध आस्था ही हो सकती है। वे अप्रतिम व्यंग्यकार थे जिनकी एक या दो पंक्तियों में ही विसंगतियों का पूरा सार उभर आता था। रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं को व्यापक सन्दभोंर् से जोड़ देने में उनका कोई सानी नहीं था। एक दीवार की ओर मुंह कर लघुशंका करते कुछ लोगों को देख उनका एक कार्टून चरित्र कह उठता है कि 'आश्चर्य है, इसके बावजूद भारत की जमीन में जलस्तर नीचे जा रहा है। उनके कार्टूनों में टिप्पणियों की भाषा कोई खास अहमियत नहीं रखती थी, क्योंकि वे आसानी से समझ में आती थीं और उनमें छुपे व्यंग्य भारतीय सन्दभोंर् में शाश्वत सत्य थे, बल्कि उससे भी आगे मानवता के उच्चतम आदशोंर् से प्रेरित होते थे। उनकी कृतियां कालजयी हैं क्योंकि अपनी जड़ों से जुड़ी, मानवीय भावों के सूक्ष्म अवलोकन से जन्मी और भारतीय संस्कारों की खराद पर परखी हुई हैं।
लक्ष्मण ने उस दौर में भारत के आम आदमी को केंद्र में रखकर तमाम राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों, राजनीतिक और सामाजिक परिपाटियों और अवमूल्यित होते नैतिक मानदंडों को विश्लेषित किया जब आजाद भारत में पुनर्निर्माण में लगे लोग विचारों तक के लिए दूसरे देशों और व्यवस्थाओं का मुंह जोहते थे और भारतीय समाज के उत्थान के मूल लक्ष्य से हट कर निजी अहम और स्वाथोंर् से प्रेरणा लेने लगे थे। साठ के दशक से शुरू हुए भटकाव लक्ष्मण के कार्टूनों में और तीव्रता से उजागर हैं। अपनी जबरदस्त चुनावी जीत के कप को गर्व से खोलतीं इंदिराजी को अन्दर भिक्षापात्र के साथ झांकता आम भारतीय दिखाई देता है। ऐसे आईने राजनेताओं को रोज दिखाकर लक्ष्मण उन्हें चेताते रहते थे कि बिना भारतीय दृष्टिकोण के विकास का सही लक्ष्य नहीं पाया जा सकता।
लक्ष्मण आजादी के बाद के सात दशकों के राजनीतिक उथल-पुथल और सामाजिक चेतनाओं से गुजरती भारतीय चेतना के वाहक हैं। उन्हें समझना हिन्दू-संस्कृति के उदात्त मूल्यों को देशकाल के सन्दभोंर् में समझना है, जो तथाकथित आधुनिकता से परे एक खुले भारतीय मस्तिष्क की संस्कार-जनित प्रतिक्रिया है। अपने भाई आर. के. नारायणन के साथ उन्होंने उस आदर्श भारतीय गांव मालगुडी की संकल्पना को आकृति दी जो एक सच्ची हिन्दू जीवन शैली की परम्पराओं और जीवन्तता का प्रतिरूप पेश करता है। आर. के. लक्षमण अपनी कृतियों में अमर रहेंगे। उनके कटाक्षों के जरिये हम भारतवासी अपनी सांस्कृतिक विरासत में छुपे मानवीय मूल्यों को समझने और उनसे विपर्यय करने वालों से वैचारिक संघर्ष करते रहने की प्रेरणा पाते रहेंगे।
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