त्रिदिवसीय दौरे के चार आयाम
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त्रिदिवसीय दौरे के चार आयाम

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Jan 31, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 31 Jan 2015 12:14:20

अमरीकी राष्ट्राध्यक्ष की भारत यात्रा पर काफी कुछ लिखा गया लेकिन यह काफी नहीं। गर्मजोशी भरे संबोधनों, चौंकाने वाली भंगिमाओं, लंबे-चौड़े 'फ्लीट' या 'टॉप ट्रेडिंग ट्वीट' की खबरों से इतर भी काफी कुछ है। कम से कम चार ऐसे आयाम हैं जो परस्पर गुंथे हैं। चलिए इस दौरे को चार अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं।
पहला नजरिया है अमरीका का। अमरीका यानी इच्छाओं का समुद्र। अमरीका यानी कारोबार। 2012 का भारतीय बजट उस अमरीका को बेचैन करने वाला था, जो भारत में एक बड़ा निवेशक है और दुनिया के सबसे बड़े बाजार में भारी संभावनाएं देखता है। 26 मई को राजग सरकार ने सत्ता संभालते ही अमरीका को साफ संकेत दिए कि दोनों देशों के लिए फलदाई राजनीतिक-आर्थिक संबंधों की राह पर बढ़ा जा सकता है और यह सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक है। 15 मिनट चाय पर चर्चा और मोदी-ओबामा की मुलाकात ने कारोबार की राह आसान कर दी। विभिन्न उपकरणों के भारत में निर्माण, रक्षा और ऊर्जा क्षेत्र में ऐसी सधी हुई तोलमोल अमरीका के कारोबारी स्वभाव को सुहाती है। तीन दिन का दौरा वेस्टिंगहाउस और जीई जैसी उन अमरीकी कंपनियों के लिए सीधे तौर पर फलदाई रहा है, जो आंध्र प्रदेश और गुजरात में परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने के लिए तैयार थीं किंतु ठिठक रही थीं। अमरीका के लिए दौरे की सीख। यदि भारत से कारोबार ठीक रखना है तो आतंकवाद सहित भारत को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर अपनी परिभाषा भी ठीक रखनी होगी।
दूसरा नजरिया है भारत का। कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यवहार-कुशलता अमरीका को भारत की तरफ मोड़ने में सफल सिद्ध हुई है। इस त्रिदिवसीय दौरे में भारत-अमरीका के शीर्ष नेताओं के हॉट लाइन से जुड़े रहने की बात तय हुई। सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता के लिए पहली बार भारत को अमरीकी राष्ट्रपति का समर्थन मिला। यह पहली बार है कि दुनिया के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक देशों के संबंध औपनिवेशिककाल के प्रतीकात्मक स्तर से ऊपर उठ गए। आतंकवाद को हर स्तर पर नकारते हुए ही व्यापार और समृद्धि ही राह पर बढ़ा जा सकता है, भारत के इस रुख की पुष्टि इस दौरे से हुई। भारत के लिए दौरे की सीख। झिझक तोड़कर बढ़ते हैं तो अपनी बात मनवा सकते हैं, फिर भले सामने अमरीका ही क्यों न हो।
तीसरा दृष्टिकोण है पाकिस्तान का। जहां भारत और हिन्दू विरोध की बात लोगों को पेट्रोल और बिजली उपलब्ध कराने से ज्यादा अहम हो, वहां इस दौरे से उपजी बेचैनी समझी जा सकती है। पाकिस्तान के लिए बराक ओबामा की भारत यात्रा इस लिहाज से ऐतिहासिक है कि इस बार कुछ ऐसा हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ। पहली बार अमरीका ने पाकिस्तान सरकार को तय तिथियों पर आतंकी हरकत न करने की चेतावनी दी और सत्ता-पोषित इस्लामी आतंकवाद पर मुहर लगा दी। पहली बार किसी अमरीकी राष्ट्राध्यक्ष ने भारत यात्रा के पहले या बाद में पाकिस्तान का दौरा नहीं किया। पहली बार दोनों देशों के साथ संतुलन साधने की बजाय विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ स्पष्ट रूप से खड़े होने का फैसला किया।
पाकिस्तान के लिए सीख। नफरत और आतंक की नर्सरी अब दुनिया बर्दाश्त नहीं कर सकती। भारत विरोध की बजाय पाकिस्तान के बारे में सोचने का वक्त।
चौथा दृष्टिकोण है चीन का। भारत के ईद-गिर्द अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटा चीन, रेशम व्यापार के सामुद्रिक रास्ते पर अधिकार में जुटा चीन इस दौरे से बेचैन है। मोदी और ओबामा एशिया प्रशांत और हिंद महासागर के बारे में बात करें। बात ही न करें, बल्कि 'विजन डाक्युमेंट' में इस क्षेत्र के भविष्य का नक्शा खींचें, यह बात चीन को परेशान करती है। दक्षिण चीन सागर में संयुक्त राष्ट्र के सामुद्रिक नियम-कानूनों की बात विस्तारवादी चीन को बेचैन करती है। चीन ने अपनी इस बेचैनी को छिपाया भी नहीं है। चीन के सरकारी मीडिया ने ओबामा के भारत दौरे के बीच ही यह कह डाला कि अमरीका की 'एशिया की धुरी' रणनीति मुख्यत: चीन के उभार को थामने की रणनीति है। भारत की 'लुक ईस्ट' नीति चीन को संतुलित करने का प्रयास है। चीन भारी पसोपेश में है।
चीन के लिए सीख। एक ही दिन (26 जनवरी, 2015) को करवटें बदलते चीन के लिए यह शांति से सोचने का वक्त है। एक ओर चीन का सरकारी मीडिया भारत और चीन को होड़ की बजाय सहयोग में संभावनाएं देखने पर जोर दे रहा रहा है (संदर्भ: ग्लोबल टाइम्स) और दूसरी तरफ भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल करने में सावधानी बरतने और सशर्त समर्थन की कूटनीति में से ड्रेगन को कोई एक राह पकड़नी की सलाह दे रहा है। (संदर्भ: शिन्हुआ)।
बहरहाल, 27 जनवरी को पालम स्थित सैन्य हवाई अड्डे से अमरीकी राष्ट्रपति उड़ान भर चुके हैं। एअरफोर्स वन के दरवाजे से बराक-मिशेल की 'नमस्ते' के बाद कूटनीति के नए अध्याय खुलेंगे। भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की आगामी चीन यात्रा उस भारत के बढ़ते कदमों की द्योतक है, जो सहयोग करने को तैयार है, समर्पण को हर्गिज नहीं। जो मित्र हैं, उनके लिए दरवाजे खुले हैं।

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