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देश में कन्वर्जन अथवा घरवापसी की इन दिनों गंभीर चर्चा हो रही है, वैसे इसमें कोई अनुचित बात नहीं कि जो लोग कभी भय, लालच या भ्रम के कारण अपना धर्म छोड़कर चले गए, अगर वे वापस आ जाएं तो इसमें न कोई अपराध है, न ही संविधान प्रदत्त अधिकारों का कोई उल्लंघन। इसमें तो मतभेद हो सकता है, हो भी रहा है, लेकिन देश के लाखों बच्चे ऐसे हैं जो सड़कों पर, स्टेशन के प्लेटफार्म पर, भिखारियों की टोली में, देह के धंधे में फंसे अपनी घरवापसी के लिए तड़प रहे हैं। कुछ तो ऐसे बच्चे भी हैं जो इतनी अल्पायु में उठा लिए गए कि उन बेचारों को अब याद भी नहीं होगा कि उनके माता-पिता कौन हैं और वे बच्चे किस गांव-शहर में पैदा हुए थे। सच्चाई यह है कि देश में प्रतिवर्ष लगभग एक लाख बच्चा गायब हो जाता है और इनमें से गायब होने वाली 55 प्रतिशत लड़कियां हैं। कुल लापता बच्चों में से 45 प्रतिशत ऐसे अभागे हैं जो कभी मिलते ही नहीं और सरकारें यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि ये बच्चे आकाश में विलीन हो गए या धरती की गोद में समा गए। कितने बच्चे मानव तस्करी का शिकार हो गए अथवा उनके अंगों को निकालकर उन्हें नकारा बनाकर धीरे-धीरे मौत के मुंह में जाने के लिए सड़कों पर फेंक दिया। अंगों की तस्करी करने वाले तो करोड़पति हो गए होंगे, पर ये बच्चे कीडे़-मकोड़ों से भी ज्यादा दयनीय जीवन जीने को मजबूर हो गए।
पिछले दिनों गृह मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार भारत में पड़ोसी देशों के मुकाबले ज्यादा बच्चे गायब हो रहे हैं। वर्ष 2011 से जून 2014 तक सरकारी जानकारी के अनुसार 3 लाख 25 हजार बच्चे गायब हुए। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार हमारे देश में हर आठवें मिनट में एक बच्चा गायब हो रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि लापता बच्चों में 55 फीसद लड़कियां होती हैं और इनमें से 45 प्रतिशत बच्चे कभी मिलते ही नहीं हैं। भारत में लापता होने वाले बच्चों की संख्या में महाराष्ट्र पहले नंबर पर है। उसके बाद मध्यप्रदेश, दिल्ली और आंध्रप्रदेश का स्थान है।
आज से लगभग दो वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने एक करोड़ सत्तर लाख लापता बच्चों की संख्या और उसके प्रति सरकारी बेरुखी को ध्यान में रखते हुए यह प्रतिक्रिया दी थी कि यह विडंबना ही है कि किसी भी सरकार को गायब बच्चों की चिंता नहीं, पर सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद भी डेढ़ लाख से अधिक बच्चे अब तक और गायब हो गए। राज्यों की कानून व्यवस्था की मशीनरी का बच्चों को ढूंढने पर कोई ध्यान नहीं। इसी कारण जिन राज्यों में लापता बच्चों और व्यक्तियों को ढूंढने के लिए अलग विभाग पुलिस में बनाया भी गया है, वहां पर इस कार्य के लिए विशेष प्रशिक्षित अधिकारी न के बराबर हैं। पिछली सरकार के केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने तो यहां तक कह दिया था कि बच्चों के गायब होने का दोष उनके माता-पिता का है, लेकिन उन्होंने भी यह ध्यान नहीं रखा कि जो बच्चों के अवैध व्यापार में लिप्त अपराधी गिरोह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों की तस्करी का काम कर रहे हैं क्या उन्हें लापता बच्चों के माता-पिता नियंत्रित कर पाएंगे? कुल मिलाकर स्थिति यह है कि आज भी देश में ऐसे असंख्य माता-पिता हैं जो अपने खो चुके बच्चों के लिए तड़प-तड़प कर रो चुके हैं।
अब प्रश्न यह है कि कौन इन अभागे बच्चों की घरवापसी करवाएगा? मेरा विश्वास है कि अगर हर प्रदेश और केंद्र की सरकार यह संकल्प कर ले कि इन बच्चों को घर तक वापस पहुंचाना ही है तो 50 प्रतिशत बच्चे तो केवल छह महीनों के सहृदय प्रयास से अपने घरों में पहुंच सकते हैं। ऐसा कोई भी गांव, शहर, महानगर नहीं जहां छोटे-छोटे भिखारी बच्चे न मिलते हों। ऐसी भी महिलाएं देखने को मिलती हैं जिनके साथ एक-एक दर्जन से ज्यादा बच्चे भिक्षा मांगते हैं और निश्चित ही वे उस महिला के अपने बच्चे नहीं हैं। कारखानों में और बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थानों में भी इन बच्चों को मजबूरी में मजदूरी करते देखा जाता है। बड़े-बड़े शहरों मंे कुछ ऐसे संगठन भी हैं जो घरों में काम करने के लिए बच्चों विशेषकर लड़कियों को भेजते हैं।
रेलगाडि़यों में विशेषकर भिखारी बच्चों की बहुसंख्या दिखाई देती है। सरकार यह निर्णय ले ले कि समाजसेवी संगठनों तथा प्रशासन की मदद से देश भर में जितने भी बच्चे सड़कों पर भिक्षा मांगते हैं, कूड़े के ढेर से रोटी चुनते हैं, धर्म स्थानों के बाहर लंगर की प्रतीक्षा में बैठते हैं उन सबको उठाकर किसी एक स्थान पर रखा जाए और फिर उनके माता-पिता, परिवार आदि के विषय में जानकारी ली जाए तो कम से कम आधे लापता बच्चे माता-पिता के पास पहुंच जाएंगे।
लज्जाजनक विषय है कि अपने देश में दिल्ली, कोलकाता, मेरठ आदि शहरों में देह व्यापार के अड्डे आज भी चलने की दूर-दूर तक चर्चा है। कौन नहीं जानता कि बहुत सी लड़कियां जब अपराधी उठा लेते हैं तो फिर उन्हें देह की मंडी में बेचा जाता है, जहां वे नारकीय जीवन जीने को विवश होती हैं। केंद्र और प्रांत सरकारों के सहयोग से देश के सभी देह व्यापार के अडडें की सघन जांच सख्ती से होनी चाहिए। जो लड़कियां माता-पिता से छीनी गईं, इन नारकीय मंडियों में बेची गईं उन्हें तो यहां से मुक्ति दिलवाना सरकार का कर्त्तव्य है और सरकार से संरक्षण पाना उन बेचारियों का भी अधिकार है। क्या हमारे देश का गुप्तचर विभाग इतना कमजोर और बेचारा है कि आज तक वह यह पता नहीं लगा सका कि देश के कितने बच्चे मानव तस्करी का शिकार हुए और कितने बच्चों के अंग निकाल कर दुनिया की मार्केट में बेचे गए। अच्छा हो सरकार बताए कि हमारे गुप्त तंत्र ने आज तक ऐसे कितने बच्चों को नरक से मुक्ति दिलवाई, उनकी घरवापसी करवाई।
एक जानकारी के अनुसार बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो छोटे-छोटे बच्चों को चुराकर भिखारियों को भिक्षा मांगने के लिए देते हैं, क्योंकि गोद में दुधमुंहा बच्चा देखकर भिक्षा देने वाले का दिल पिघलता है और इन भिखारियों का धंधा जोरों से चलता है। संविधान प्रदत्त अधिकारों में नागरिकों को अपनी सरकार से जीवन, संपत्ति और इज्जत की सुरक्षा पाने का अधिकार है। अपनी सरकारें ऐसे लाखों बच्चों को अगर यह सुरक्षा नहीं दे पातीं तो फिर न सरकार को सरकार कहलवाने का अधिकार है और न ही तीन-तीन शेरों वाली गाडि़यों में तिरंगा लहराकर चलने व्न';'ाले इस देश के शासकों और प्रशासकों को इन पदों पर रहने का कोई औचित्य है। आज की आवश्यकता यह है कि मोदी जी के नेतृत्व में हमारी केंद्रीय सरकार और सभी प्रांतों की सरकारें इन लापता बच्चों का पता ढूंढें। उन्हें अपने संरक्षण में लें और इनकी सुरक्षित घरवापसी करवाएं। यह ऐसा कार्य है जिसे पूरा करने के बाद देश के सभी नागरिकों, सभी राजनीतिक दलों, सभी विचारधाराओं के ध्वजवाहकों से धन्यवाद ही मिलेगा और उन करोड़ों माता-पिता की आत्मा को अपने बच्चे हृदय से लगाकर असीम आनंद की प्राप्ति होगी। –लक्ष्मीकांता चावला
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