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महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि 'मतांतरण सबसे भयंकर विष है'। ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है, जितनी पहले थी। ये विष कितना खतरनाक है और इसका प्रभाव कितने दीर्घकाल तक रह सकता है उसका एक उदाहरण हमें राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा प्रकाशित आठवीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक 'हमारे अतीत' के नौवें अध्याय में देखने को मिलता है। पृष्ठ 113 पर लिखा है कि संस्कृत की महान विद्वान पंडिता रमाबाई का मानना था कि हिन्दू धर्म महिलाओं का दमन करता है।
यहां हम महिला के लिए 'विदुषी' के स्थान पर 'विद्वान' जैसे शब्द के उपयोग करने जैसी त्रुटि की उपेक्षा करके एक कहीं गम्भीर विषय की चर्चा करने वाले हैं। इस वाक्य में कितनी धूर्तता छिपी है, उसे समझने के लिए आप अपने टीवी सेट को चला कर देखिए-सफेद चोगा पहने कोई महिला अथवा पुरुष आप को टूथपेस्ट अथवा बच्चों के स्वास्थ्य के लिए कोई पेय बेचता हुआ दिख जाएगा। इन विज्ञापनों के पीछे का मनोविज्ञान है कि जनसाधारण को जब कोई संदेश दिया जाता है तो उसको सत्य मानने की सम्भावना बढ़ जाती है यदि ऐसा लगे कि संदेश देने वाला कोई विशेषज्ञ है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे 'अपील टू अथारिटी' कहा जाता है। जब वयस्क लोग ही ऐसे झूठे विज्ञापनों में फंस जाते हैं तो 14-15 वर्ष के बच्चे जब अपनी इतिहास की पुस्तक में ये पंक्ति पढें़ंगे तो उनकी इसे सत्य मानने की संभावना तो बढे़गी ही क्योंकि कहने वाली संस्कृत की 'महान विद्वान' थी।
इस की दूसरी धूर्तता को समझने के लिए हमें रमाबाई का ही साक्ष्य ले लेना चाहिए। सन 1901 में हेलेन मायर्स नामक एक अंग्रेजी महिला ने 'पंडिता रमाबाई-द स्टोरी ऑफ हर लाइफ' नामक रमाबाई की जीवनी लिखी है। उस के पृष्ठ 19 पर वह लिखती है कि अपने पति के मरने के पश्चात जब वो मराठों की पुरानी राजधानी पुणे आई तो उसने महिलाओं को शिक्षित करने के महत्व पर अपना भाषण देना पुन: आरंभ कर दिया। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने शास्त्रों के अपने ज्ञान का सहारा लिया और उसने कहा कि सनातन ग्रंथों में महिलाओं को शिक्षित किये जाने का विधान है और महिलाओं की जो वर्तमान में उपेक्षित और अशिक्षित होने की दशा है वह एक आधुनिक विकृति है। उसका मानना था कि उच्च वर्ण की महिलाओं को विवाह से पूर्व संस्कृत व क्षेत्रीय भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए।
रमाबाई ने स्वयं एक पुस्तक लिखी थी- 'द हाई कास्ट हिन्दू वुमेन'। इसमें वो क्या लिखती है, वह भी पढ़ने योग्य है (पृष्ठ 57-58)-यूरोप और अमरीका में महिलाएं अपने पति को चुनती हैं, किन्तु यदि कोई महिला विवाह का प्रस्ताव रखती है तो इसे लज्जाजनक माना जाता है और पुरुष एवं महिलाएं इस व्यवहार पर अचंभित हो जाएंगी किन्तु भारत में, इस विषय में, महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त था। स्वयंवर की प्रथा ग्यारहवीं शताब्दी तक प्रचलन में थी, जिसमें महिलाएं आगे बढ़कर अपने लिए वर चुनती थीं और इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होता था और न ही इसे निर्लज्जता समझा जाता था। आज भी यह प्रथा कहीं-कहीं प्रचलन में है। बारहवीं सदी से हिन्दुस्थान पर आक्रमण करने वाले मुसलमान घुसपैठियों का दुस्साहस बाल विवाह प्रथा का प्रमुख कारण है।
आगे पृष्ठ 60 पर वह मनुस्मृति के नौवें अध्याय के श्लोक के संदर्भ में कहती है कि मनु ने कहा है कन्या विवाह योग्य होने के उपरांत भी अपने पिता के घर में मृत्यु पर्यन्त रह सकती है यदि कोई योग्य वर नहीं मिलता, किंतु किसी अयोग्य वर से उसका विवाह नहीं करना चाहिए। किन्तु दुर्भाग्य है कि वर्तमान के प्रचलन में इस नियम की उपेक्षा कर दी जाती है।
इसकी तुलना जब पाठक राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद एनसीईआरटी द्वारा बच्चों की पुस्तक में ऊपर लिखी पंक्ति से करेंगे तो समझ जाएंगे कि किस प्रकार इस संस्था का दुरुपयोग हमारे बच्चों को धर्म से विमुख करने के लिए किया जा रहा है। रमाबाई यहां हिन्दू धर्म को दोषी नहीं ठहरा रही बल्कि उस समय के प्रचलन को स्त्रियों के दमन का कारण बता रही है। इस एक पंक्ति की तीसरी धूर्तता यह है कि कहीं भी बच्चों को ये नहीं बताया गया कि रमाबाई अपनी युवावस्था में ही ईसाई बन चुकी थी। उसे पश्चिमी देशों से धन दिया जा रहा था और उसका मुख्य कार्य हिन्दुओं का इसाईकरण करना ही था। 29 सितंबर 1883 को रमाबाई को इंग्लैंड में ले जा कर, चर्च ऑफ इंग्लैंड ने उसे इसाई बना दिया था।
इसमें चौथी जो चाल है,वह है कि आप स्वयं जो कहना चाहते हैं, वह कहने पर कानून के लपेटे में आ सकते हैं, उसे किसी और के मुंह से कहलवा देना चाहिए। इसे 'थर्ड पार्टी रेफरेन्स' कहा जाता है। यदि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के विद्वान ये वाक्य कहते कि हिन्दू धर्म महिलाओं का दमन करता है तो उन्हें धार्मिक भावनाएं आहत करने के लिए न्यायालय में घसीटा जा सकता था किन्तु इसे किसी और के व्यक्तिगत विचार बता कर सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।
रमाबाई एक निष्ठावान हिन्दू पंडित की पुत्री थी जिन्हांेने अपनी बेटी को संस्कृत और कुछ शास्त्रों की शिक्षा दी थी। रमाबाई के अनुसार उसके पिता श्री अनंत शास्त्री ने उससे कहा था तुम मेरा सब से छोटा और सब से प्रिय बच्चा हो। मैंने तुम्हें भगवान को अर्पित कर दिया है तुम उसी की हो और उसी की ही रहना, और जीवन भर उस की सेवा करना। उन्हें क्या पता था कि उनके देहान्त के उपरांत उनकी ये बेटी मिशनरियों के लिए कार्य करने लगेगी। इसमें संदेह नहीं है कि रमाबाई ने छोटी सी आयु में ही अत्यंत दुखों का सामना किया था-छोटी सी आयु में अपने माता पिता, बहन, भाई और पति की मृत्यु का दु:ख उसे झेलना पडा था। एक छोटी आयु की विधवा को, जो एक छोटी बच्ची की मां भी थी, ईसाई बनने के क्या लाभ थे, उस पर चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा उद्देश्य केवल इतिहास के वितिकरण से है। रमाबाई के जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है ईसाई बनने से पूर्व और ईसाई बनने के पश्चात। ऊपर दिये गए उसके विचार उस समय के हैं जब वह ईसाई नहीं बनी थी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि रमाबाई ने मुंबई (तब बाम्बे) में शारदा सदन के नाम से एक आश्रम आरंभ किया था। ये सन 1889 की बात है जब शारदा नामक एक गर्भवती विधवा के नाम से यह आश्रम खोला गया था। जब शारदा ने रमाबाई के कहने पर ईसाई बनने से मना कर दिया तो रमाबाई ने उसे आश्रम से खदेड़ कर बाहर कर दिया था। उस समय शारदा ने अपने बच्चे को जन्म दिया ही था और वह वो मात्र ग्यारह दिन का था जब मां और बच्चे को बाहर निकाल दिया गया था। इसके बाद शारदा सदन को पुणे स्थानांतरित कर दिया गया। अमरीका से आए धन से ये फलने फूलने लगा। एक आदर्श हिंदू ब्राह्मण की बेटी को ईसाइयत की ओर धकेलने में केशवचंद्र सेन नामक एक बंगाली का भी हाथ था। इसे भी आठवीं की पुस्तक में एक समाज सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। केशव और रमाबाई से उसकी भेंट का उल्लेख भी हमें हेलेन की पुस्तक से ही मिलता है।
इंग्लैंड जाने से लगभग चार वर्ष पूर्व, कलकत्ता में, रमाबाई को पहली बार ईसाई ग्रथों की जानकारी हुई थी। ब्रह्म समाज के संस्थापक केशवचंद्र सेन ने उसे एक पुस्तिका दी जिस में सभी मतों के मुख्य बिन्दुओं का उल्लेख था। इन में से अधिकतम ईसाईयत के न्यु टेस्टामेंट (नया नियम) में से लिए गए थे। आइए अब रमाबाई की सनातन हिन्दू धर्म की समझ को भी जांच लें। अपनी पुस्तक 'द हाई कास्ट हिन्दू वुमेन' में आत्मा और परमात्मा के मिलन अथवा मोक्षके विषय में वो लिखती है कि इस सिद्घान्त के अनुसार, किसी व्यक्ति को ब्राह्मण का जन्म लेने के लिए चौरासी लाख बार जन्म लेना पड़ता है और एक ब्राह्मण के अतिरिक्त कोई भी मोक्ष का अधिकारी नहीं है। यदि वह परमात्मा के स्वरूप को जान ले तब भी नहीं।
हिन्दू धर्म के साधारण लोग भी, जिन्होंने भगवद् गीता, पतंजलि, न्याय दर्शन, वैशेषिक, उपनिषद में से किसी एक का भी ठीक से अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि रमाबाई का लिखा गया वाक्य असत्य है। वेदपाठियों का तो कहना ही क्या है। तो क्या इस 'महान विद्वान' ने इन ग्रंथों का अध्ययन नहीं किया था?
इसी प्रकार पृष्ठ 93 पर वह लिखती है कि हिन्दुओं के तैंतीस करोड़ भगवान हैं। ये वाक्य किसी जनसाधारण के मुख से तो उसकी अज्ञानता का परिचायक हो सकता है किन्तु यहां हम एक 'संस्कृत की महान विद्वान' की बात कर रहे हैं! जनसाधारण संस्कृत के शब्द 'कोटि' को करोड़ समझने की भूल कर सकते हैं किन्तु संस्कृत का एक साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि यहां शब्द 'कोटि' का तात्पर्य श्रेणी से है न कि करोड़ से। इससे तो दो ही निष्कर्ष निकलते हैं या तो वो संस्कृत और शास्त्रों की ज्ञाता नहीं थी और या वह अपने दान दाताओं को ध्यान में रखते हुए ये सब लिख रही थी। इस का निर्णय पाठक स्वयं कर सकते हैं।
जिन दिनों रमाबाई अमरीका और इंग्लैंड के पादरियों से धन लेने के लिए अपनी पुस्तक का प्रचार कर रही थी, उसी समय एक युवा संन्यासी अमरीका जाने के लिए हिन्दुओं से धन एकत्रित कर रहे थे। रमाबाई से ठीक विपरीत जीवन चरित्र है स्वामी विवेकानन्द का। उनका बचपन ईसाईयों द्वारा दी गई शिक्षा ग्रहण करते हुए व्यतीत हुआ था जबकि रमाबाई को उसके पिता ने हिन्दू रीति से पढ़ाने का प्रयत्न किया था। जहां विपत्तियों से ग्रस्त असहाय महिलाओं को इसाई बनाने का कार्य कर रही थी, वहीं स्वामी जी उन्हीं के गढ़ में जाकर सब से शिक्षित वर्ग को हिन्दू धर्म की महानता का लोहा मनवा रहे थे। जो केशवचंद्र रमाबाई को पुस्तकें दे रहा था, उसने स्वामी जी पर भी प्रयास किये थे। केशव के शिष्यों ने तो अमरीका में भी स्वामी के राह में हर प्रकार से रुकावटें डालने का प्रयास किया था।
ये स्वामी विवेकानन्द का ही शौर्य है कि आज भी मिशनरी अपने शिकार ढूंढने के लिए झुग्गी झोपडि़यों और आदिवासी क्षेत्रों में जाने पर विवश हैं जहां उनकी अशिक्षा का लाभ उठा कर उन्हें ईसाई बनाने के कृत्य चल रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द के विषय में इस पुस्तक में केवल एक ही पंक्ति है-रामकृष्ण मिशन का नाम स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा गया था। यह मिशन समाज सेवा और निस्वार्थ श्रम के जरिये मुक्ति के लक्ष्य पर जोर देता था। स्वामी विवेकानन्द की किसी उपलब्धि का कोई उल्लेख नहीं है। शिकागो में दिये भाषण का कोई उल्लेख नहीं है।
यदि ये उल्लेख कर दिया तो हमारे बच्चों का स्वाभिमान जाग जाएगा और वे भी कहने लगेंगे कि 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं'। स्वामी जी के जीवन पर तो एक पूरा अध्याय भी कम पड़ सकता है जिसे एक ही वाक्य में निपटा दिया गया है। ये वे पुस्तकें हैं जिन्हें गत दस वषोंर् से हमारे बच्चों को पढ़ाया जा रहा है। गांधी जी ने जिसे विष कहा था, वह 125 वषार्ें पश्चात भी धीरे- धीरे पूरे तन्त्र में व्याप्त हो रहा है। क्या इससे हम कभी मुक्त हो पाएंगे? -नीरज अत्री
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