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नरेन्द्र पिपलानी
सम्पूर्ण विश्व मे छ: हजार से भी अधिक भाषाएं तथा बोलियां हैं, जिन्हंे दो भागों में बांटा जा सकता है। एक संस्कृत व दूसरी विश्व की अन्य सभी भाषाएं अपभ्रंश संस्कृत हैं। संस्कृत से अपभ्रंश हुईं विश्व की सभी भाषाएं अपने शब्दों की व्युत्पत्ति विश्लेषण करने में पूर्णत: असमर्थ तथा असहाय हैं। शब्दों की व्युत्पत्ति व्याख्या में वे अर्थहीन अनुमान लगाते हैं या अज्ञात उत्पत्ति कहकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। इसके विपरीत संस्कृत भाषा अपने ही नहीं वरन् विश्व की प्रत्येक भाषा के शब्दों की व्युत्पत्ति व्याख्या वैज्ञानिक एवं तार्किक रूप से करने में पूर्णतह: सक्षम है।
मध्य आस्ट्रेलियाई रेगिस्तान मे 3-4 किलोमीटर लम्बी एक अकेली चटटन है, जिसके सैकडों मील दूर तक किसी भी पहाड़ या चटटन का नामोनिशान तक नहीं। आस्टे्रलिया के आदिवासी उसे 'उलूरू' कहते हैं जिसका अर्थ वे और दुनियां के बाकी लोग भी नहीं जानते हैं परन्तु संस्कृत में उलूरू का अर्थ है – उल + उरू अर्थात् 'ऊपर, ऊपर उठता हुआ + विस्तृत, बड़ा, वक्ष:स्थल अर्थात 'ऊपर उठा हुआ विस्तृत वक्ष:स्थल' या उभरी हुई चट्टान। दुर्भाग्य से संस्कृत भाषा मे 'उल' जैसे बहुत से शब्दों का लोप हो चुका है, कुछ अन्य शब्दों जैसे- उल्लास, उल्लंघन, उल्लोच, उलीचना इत्यादि मे 'उल' की स्मृति शेष रह गई है। 'ऊपर' के अर्थ में 'उल' शब्द का अधिकाधिक प्रयोग अरबी, हिब्रु, तथा अफरीकी भाषाओं में आज भी प्रचलित है।
प्राचीन चीनी भाषा में 'पानी के देवता' के लिए 'गोन्ग' शब्द 'गंगा' का ही अपभं्रश है। अरबी भाषा का शब्द 'मस्जिद' संस्कृत से ही बना है। मस्ज + ईड क्रमश: अर्थ 'स्नान करना+ प्रार्थना करना अर्थात स्नान के बाद प्रार्थना या नमाज। अरब देश मंे पानी के अभाव में पूर्ण स्नान की परम्परा अर्द्घस्नान की बन गई। इसी प्रकार मानव की अन्तिम क्रिया कब्र में दफनाना संस्कृत के मही+अत अर्थ 'मिटटृी, पृथ्वी, भूमि + प्राप्त होना अर्थात् 'मिट्टी को प्राप्त होना' अपभ्रंश होकर 'मय्यत' बन गया। तीव्रता से लगातार 'महीअत' का उच्चारण करने पर यह 'मय्यत' उच्चारित होगा। कालान्तर मंे संस्कृत के विद्वानों ने भी संस्कृत उच्चारण को हानि पहंुचाई। उन्हांेने शब्द के मध्य मंे आने वाले स्वरों 'अ, इ, उ' को व्यन्जन के रूप में प्रयोग न कर मात्राओं में परिवर्तित कर दिया,जबकि भारत से विश्व में फैलने वाले मानव समूहों ने अपभ्रंश संस्कृत में ऐसा नहीं किया । उन्होंने संस्कृत के मूल रूप को बनाए रखा। उद्गम से ही संस्कृत एकाक्षरी शब्दों की यौगिक भाषा है। यौगिक संस्कृत यही रूप यूरोपीय भाषाओं में भी दिखाई देता है। अंग्रेजी शब्द 'रायट्' अर्थात 'दंगा, बलवा, फसाद, उत्पात' संस्कृत के दो शब्दों ऋ+ उत का योग है जिसका क्रमश: अर्थ 'उत्तेजित होना या करना + तीव्रता से' अर्थात तीव्रता से उत्तेजित होना या करना । दुर्भाग्य से योरोपीय देशो ने संस्कृत 'ऋ तप + उत वज-रायट्' की तरह अधिकाशं शब्दों के उच्चारण को 'करप्ट' सही उच्चारण अशुद्व, बिगाडना भ्रष्ट कर दिया है।
यूरोपीय विद्वान पर्वतीय देश ग्रीक या ग्रीस शब्द का अर्थ तथा व्युत्पत्ति आज तक ढूंढने मे सफल नही हो सके । वे भूल चुके हैं कि उनके भारतीय पूर्वजों ने हिमाचल तथा उत्तराखण्ड जैसे पहाड़ी प्रदेश का नाम 'गिरिका' तथा 'गिरिस' रखा था। ईराक की टिगरिस नदी तल से ऊपर दोनों तटांे पर बसे 'मोसुल' नगर का नामकरण इराकियों के भारतीय पूर्वजों ने किया था। संस्कृत के 'मुस् +उल' अर्थ क्रमश:'बंटा हुआ, विभक्त + ऊपर' अर्थात तल से ऊपर दो भागों मे बंटा हुआ नगर।'पिता' को दक्षिण भारत तथा 'कोरिया में 'अप्पा' और अरबी, हिब्रू भाषा में 'अब्बा' कहा जाता है। संस्कृत 'अप व अब' का अर्थ 'जल' है अर्थात 'जल व भोजन का प्रबन्ध करने वाला, पालन पोषण करने वाला अप्पा या अब्बा।
प्राचीन मिस्र की चित्रलिपीय भाषा में 'आकाशीय बिजली' को शुद्घ संस्कृत शब्द 'विद्युत' ही कहा जाता था परन्तु आज यूरोपीय में विद्वान इसे 'विदजत' कहते हैं लेकिन इस विदजत शब्द का अर्थ नहीं ढूंढ पाये। 'विशाल जल राशि' के लिए संस्कृत शब्द है। 'पाय्यम' आज भी मिस्र मे विशाल झील को 'फाय्यम' कहा जाता है, जिस प्रकार अंग्रेजों ने 'प्रपक्त' को 'परफेक्ट' बना दिया है। यूरोपीय तथा अरबी के अनेक शब्दों मंे 'प' ध्वनि दीर्घ होकर 'फ' में परिवर्तित हो चुकी है। वेदो में 'सर्प' के लिए प्रयुक्त संस्कृत शब्द 'नहुष' प्राचीन हिब्रू भाषा में अपभ्रंश होकर सर्प के अर्थ में 'नहश हो गया, जबकि 'लेटने या सोने' के लिए संस्कृत शब्द 'शय' हिब्रू मंे अपभ्रंश न होकर 'शय' ही बना रहा। अफ्रीका के केन्या देश की राजधानी नैरोबी के पास ही केन्या पर्वत एक सुप्त ज्वालामुखी है, जिसको वहां के वनवासी 'किणिया गिरी' के नाम से पुकारते हैं। हजारों वर्ष पूर्व जब भारतीय जनसमूह वहां पहुंचा था उस समय इस ज्वालामुखी पर्वत से अग्नि की क्षीण ज्वालाआंे के साथ चिंगारियां निकला करती थीं। संस्कृत भाषी केन्या के पूर्वजों ने इसे 'कणिया + गिरी' नाम दिया। संस्कृत मे आग या पानी के सूक्ष्म कण रूपों को कणिया तथा 'गिरी' को पहाड़ कहते हैं। इस प्रकार आग की कणिया निकालने वाला पर्वत अपभ्रंश होकर 'केन्या' बन गया। प्राचीन काल से तन्जानिया मे अफ्रीका की सबसे ऊंचीं चोटी को वहां के वनवासी भारतीयों के वंशज 'किली मन्जारो' के नाम से पुकारते हैं। यह पर्वत चोटी वर्षभर बर्फ से आच्छादित रहती है। यूरोपीय विद्वान 'किली मन्जारो' का अर्थ शतुरमुर्ग बताते हैं। शतुरमुर्ग के सफेद डेनांे की समानता वे बर्फ से करते हैं। तंजानिया के वनवासी भी 'किली मन्जारो' का अर्थ नही जानते। संस्कृत शब्द किली + मन्जारम का अर्थ 'कोई भी नुकीली वस्तु, खूंटी, भाला, फन्नी,कील + सफेद मोती, सफेद फूलों का गुच्छा अर्थात् 'सफेद फूलांे के गुच्छों वाली चोटी' है।पचास हजार बर्ष पूर्व जब भारतीय यूरोप तक विस्तारित हुए, उससे हजारों वर्ष पहले ही वे सभ्य और विकसित हो चुके थे। वे व्यापारिक लेन-देन में पारंगत थे। उन बनिया, व्यापारियों तथा उनकी संस्था को 'बणक- बाणक' कहा जाता था। आज भी यूरोप मे 'बाणक' स्ंास्थाओ को ठंदा ही कहा जाता है। प्राचीन काल से उत्सव तथा आनन्द के अवसर पर बर्तन या भांडे बजाने का प्रचलन है जो भारतीयो के साथ-साथ विश्व की सभी सभ्यताओ में आज भी स्थापित है। कहने का अर्थ है कि विश्व की किसी भी भाषा का कोई भी प्राचीन शब्द ऐसा नहीं, जो संस्कृत की व्युत्पत्ति की परिधि से बाहर हो। ल्ल
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