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सुरों में नाटकीय उतार-चढ़ाव लाइए, आक्रामक भाव-भंगिमा बनाइए,अब आवाज को फटने की सीमा तक ऊंचा कीजिए, शेष काम सुनने वालों की भीड़ में शामिल आपके लोग संभाल लेंगे। ये भाषण देने का भुट्टो खानदान का अपना अंदाज है। बिलावल भुट्टो अपने नाना जुल्फिकार अली भुट्टो और मां बेनजीर भुट्टो के अंदाज में भावविहीन मसखरी के साथ चीख रहे थे -'जब हमने कश्मीर का नाम लिया, तो सारा हिन्दुस्थान चीख उठा। इसलिए, क्योंकि वे जानते हैं कि भुट्टोइज्म को दुनिया मानती है। जब एक भुट्टो बोलता है, तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता', फिर बिलावल ने दो नारे पढे़-
'मैं बेटा हूं कश्मीर का, मैं बेटा हूं बेनजीर का'
'बिलावल भुट्टो का है एलान,कश्मीर बनेगा पाकिस्तान'
इस दौरान पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के कार्यकर्ता भीड़ में उन्माद जगाने में लगे रहे। इस भाषण में आपको दो बातें ध्यान में आएंगी। एक, भारत की तरह पाकिस्तान में भी राजनैतिक वंशवाद की परंपरा है; और दो, पाकिस्तानी राजनीति की कश्मीर ग्रंथि। बिलावत की मां, बिलावल के नाना भी कश्मीर पर आग उगलते रहे थे। नवाज शरीफ भी दुनिया में कश्मीर पर विरह राग छेड़े हुए हैं। तो पूर्व तानाशाह परवेज मुशर्रफ भी बयान देते हैं कि 'कश्मीर हमारे खून में है, कश्मीर में लड़ने के लिए लाखों लोग तैयार बैठे हैं।'
पाकिस्तान मुस्लिम लीग का चुनावी घोषणा पत्र कहता है कि 'जम्मू-कश्मीर मामले को सुलझाने के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव (13 अगस्त 1948) के अनुसार विशेष प्रयास किए जाएंगे। इसमें क्षेत्रीय लोगों की आकांक्षाओं का ध्यान रखा जाएगा।' पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का घोषणापत्र कहता है- 'हम क्षेत्र में स्थिरता और शांति स्थापित करने के लिए काम करेंगे परंतु जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपने नैतिक और कूटनीतिक समर्थन पर कोई समझौता नहीं करेंगे। कश्मीर हमारा केन्द्रीय मुद्दा है।'भारत के बुद्घिजीवियों के बीच आधुनिक और सेकुलर समझे जाने वाले और पाकिस्तान में 'सूट-बूट वाला तालिबान' कहलाने वाले इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ भी पीछे नहीं है। पार्टी का घोषणा पत्र कहता है कि 'कश्मीर मुद्दा पाकिस्तान के लिए एक प्रमुख राष्ट्रीय महत्व का विषय है।' जनरल परवेज मुशर्रफ ने भी एक राजनैतिक दल बनाया है, नाम है ऑल पाकिस्तान मुस्लिम लीग पार्टी । इसके चुनावी घोषणा पत्र के अनुसार, 'कश्मीर मुद्दे को सुलझाए बिना इस क्षेत्र में शांति संभव नहीं है। जब तक सियाचिन, सर क्रीक और कश्मीर का मामला उलझा हुआ है, शांति की कोई संभावना नहीं है।'
पाकिस्तान में हर एक रहनुमा, चाहे वह राजनैतिक हस्ती हो या सेना का कोई निरंकुश तानाशाह, कोई इमाम-मुफ्ती हो या तहरीक-ए-तालिबान अथवा लश्करे-तैय्यबा का कोई सरगना, कश्मीर सबकी जुबान पर है। पाकिस्तान की जमात-ए-इस्लामी, फजल-उल-रहमान की जमायत-उलेमा-ए-इस्लाम, दिफा-ए-पाकिस्तान, मुत्तहिदा-कौमी-मूवमेंट, सब में कश्मीर पर एक जैसी आक्रामकता है। पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों का विश्वास है कि कश्मीर पर भावनाएं भड़काए बिना राजनीति नहीं की जा सकती। अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान जनरल परवेज मुशर्रफ ने एक भारतीय चैनल को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि कश्मीर पाकिस्तान की राजनीति की अनिवार्यता है। पाकिस्तान में कश्मीर की बात किए बिना कोई दल सत्ता में नहीं आ सकता। सुनने में यह साफगोई से कहा गया सच लगता है, लेकिन इसके कई अर्थ और कई आयाम हैं। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान के जन्म के समय से ही कश्मीर पाकिस्तान की राजनीति का प्रमुख मुद्दा रहा है, परंतु हाल ही में सामने आए दस्तावेज बता रहे हैं कि संभवत: पश्चिमी देशों के जम्मू-कश्मीर से जुड़े सामरिक हितों के कारण ही पाकिस्तान का जन्म हो सका।
द्वितीय विश्व युद्घ समाप्ति की ओर था। 1945 तक आते आते युद्व के केंद्र में रहे देश इटली, जर्मनी और जापान पराजय की ओर बढ़ रहे थे। कम्युनिस्ट रूस और उसके पुराने विरोधी अमरीका और ब्रिटेन, जो युद्घ की परिस्थितियोें के कारण दुर्घटनावश सहयोगी बन गए थे, अब फिर एक बार नाज़ी जर्मनी के सिकुड़ते प्रभाव क्षेत्र पर हक जमाने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। अप्रैल 1945 में नाज़ी जर्मनी की 'थाउजेंड इयर राइख' अंतिम सांसें गिन रही थी और पूर्व से सोवियत रूस की लाल सेना तथा पश्चिम से अमरीका और ब्रिटेन के नेतृत्व में बढ़ रहीं मित्र राष्ट्रों की सेनाएं बर्लिन पर पहले कब्जा करने की होड़ में लगी थीं। रूसी सफल रहे और बर्लिन स्टालिन के हाथों में चला गया। पुरानी दरार फिर चौड़ी हो गई। युद्घ समाप्ति के बाद अमरीका और ब्रिटेन रूस को पश्चिम एशिया के तेल क्षेत्रों और गर्म पानी के समुद्रों तक पहुंच बनाने से रोकना चाहते थे।
इसके लिए उन्हें एक सैनिक अड्डे की आवश्यकता थी। अपनी सामरिक स्थिति के कारण जम्मू-कश्मीर सबसे उपयुक्त स्थान था। पाकिस्तान के लिए ब्रिटिश सरकार से मोल-तोल कर रहे जिन्ना इस सौदे के लिए तैयार हो गए। बदले में ब्रिटेन उन्हें पाकिस्तान देने को राजी हो गया। इसलिए जब कश्मीर के भारत के साथ जाने की संभावनाएं प्रबल होने लगीं तो ब्रिटिश सूत्रों के इशारे पर जिन्ना ने कश्मीर में कबायली घुसपैठ कराई और दिल्ली में बैठे लॉर्ड माउंटबेटन भारतीय सेना की रवानगी में अडं़गे डालकर पाकिस्तान का सहयोग करते रहे। आगे का इतिहास सबको ज्ञात है।
जिन्ना की मौत तथा प्रथम प्रधानमंत्री की हत्या के बाद पाकिस्तान की पंजाबी मुस्लिम फौज ने इस्लाम के इस तथाकथित किले को अपनी छावनी बना डाला। लोकतांत्रिक व्यवस्था को धता बताकर कुर्सी उलटने वाली फौज ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए भारत विरोध का दैत्य खड़ा किया और स्वयं को रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। भारत के प्रति नफरत को सुलगाए रखने के लिए कश्मीर मुद्दा ईंधन बन गया। वैसे भी इस्लामी पाकिस्तान से सटा हुआ मुस्लिम बहुल कश्मीर पाकिस्तान के जन्म की अवधारणा को चुनौती देता था। 1964 तक पाकिस्तान कश्मीर को लेकर कूटनीतिक दाव खेलता रहा। फरवरी-मई,1964 में कश्मीर मुद्दा संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में चर्चित विषय था, परंतु अंतत: असफलता हाथ लगने पर कुंठित पाकिस्तान ने कश्मीर में सैनिक हस्तक्षेप की योजना बनाई। फौजी शासक अयूब खान की घरेलू मोर्चे पर बढ़ रही मुसीबतों ने भी उन्हें मजबूर किया। फलस्वरूप 1965 की सर्दियों में कश्मीर में पाक फौज ने घुसपैठ की, जिसकी अंतिम परिणति 1965 के भारत-पाक युद्घ के रूप में हुई। सत्रह दिन की लड़ाई के बाद 10 जनवरी 1966 को अयूब खान और लाल बहादुर शास्त्री के बीच ताशकंद समझौता हुआ। कुछ कारणों के चलते अयूब खान ने जुल्फिकार अली भुट्टो को अपनी कैबिनेट से निकाल दिया। भुट्टो ने अयूब खान पर 'कश्मीर को बेच देने' का आरोप लगाया। हंगामा इतना बढ़ा कि अयूब खान को कुर्सी छोड़नी पड़ी।
1971 में भारत के हाथों शर्मनाक पराजय झेलने और बंगलादेश के रूप में पाकिस्तान का आधे से ज्यादा भू-भाग खोने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत के साथ 2 जुलाई 1972 को शिमला समझौता किया और उनके ऊपर भी विपक्ष ने 'कश्मीर को बेचने' का आरोप लगाया। भुट्टो को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा-'एक मुसलमान के रूप में मैं अल्लाह की कसम खाता हूं कि हमने कश्मीर पर कोई गुप्त समझौता नहीं किया है। कश्मीर पर हमारी नीति नहीं बदली है।' पाकिस्तान को तोड़ने और कश्मीर को बेचने के आरोप लगा कर जनरल जि़या-उल-हक ने भुट्टो को मौत के घाट उतारा और भारत को जिहादी आतंकवाद के माध्यम से 'हजार घाव देने की नीति' शुरू की। बाद में फौज की खींची हुई रेखा को लांघने के कारण नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो, दोनों ने अपनी सत्ता गंवाई। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नई दिल्ली आए नवाज शरीफ ने जब पाकिस्तानी नेताओं की परंपरा को तोड़ते हुए हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं से मिलने में रुचि नहीं दिखाई तो पाकिस्तान के असली आका पाकिस्तानी फौज की भृकुटि तिरछी हुई। आने वाले महीनों में सारी दुनिया ने देखा कि किस प्रकार अराजकता पैदा करके शरीफ के पर कतर दिए गए। हाल ही में परवेज मुशर्रफ का बयान आया है कि 'हमारे पास कश्मीर में लड़ने के लिए पाक फौज के अलावा और भी दूसरे विकल्प हैं। हम कश्मीर में भारत पर आगे और पीछे से हमला कर सकते हैं। हम मुसलमान हैं और मोदी मुस्ल्ि ाम विरोधी तथा पाकिस्तान विरोधी हैं।'
पाकिस्तान में सब जानते हैं कि पाकिस्तान के पूर्व प्रमुख के मुंह से पाकिस्तानी फौज का वर्तमान प्रमुख बोल रहा है। सारी दुनिया में सेनाएं अपनी बात रखने के लिए सेवानिवृत्त जनरलों का उपयोग करती हैं। फिर ये तो 'अल्लाह और आर्मी का मुल्क' पाकिस्तान है। साथ ही मुशर्रफ जब सेना में थे तब वर्तमान सैन्य प्रमुख राहिल शरीफ उनके कृपापात्र छोटे भाई के रूप में मशहूर थे। वर्षों से मुकदमे झेल रहे मुशर्रफ की किस्मत ने फिर पलटी मारी है। आज उनका मुंहबोला छोटा भाई पाकिस्तान का 'सूत्रधार' है। सबको इशारा मिल चुका है, इसलिए नवाज शरीफ से लेकर नौसिखिए बिलावल भुट्टो तक, सबके गलों से एक ही सुर निकल रहा है।
द्विपक्षीय वार्ता पर भारतीय रुख
भारत के सख्त ऐतराज के बाद भी पाकिस्तान ने कश्मीर के अलगाववादियों को मंच देने और कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास किया। बदले में भारत सरकार ने पाकिस्तान के साथ सचिव स्तर की द्विपक्षीय वार्ता रद्द कर दी। इस पर अनेक मत व्यक्त किए जा रहे हैं। मीडिया पंडितों का एक वर्ग सरकार के इस कदम को 'चूक' बता रहा है। मोदी सरकार के इस कदम का पाकिस्तान पर क्या असर है, इसे समझने के लिए पाकिस्तान की पूर्व राजदूत (अमरीका) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की पिछली सरकार में मंत्री रहीं शेरी रहमान के लिखे एक लेख 'मोदीज ग्रेटा गार्बो मूमेन्ट्स ऑन काश्मीर' के अंश प्रस्तुत हैं-
'सचिव स्तर की वार्ता रद्द होने के बाद इस्लामाबाद प्रतीक्षा कर रहा है कि नई भाजपा सरकार की पाकिस्तान नीति कई असुविधाजनक निष्कर्ष सामने लाने वाली है। भारत का नया नेता पाकिस्तान से कह रहा है कि उसका राजदूत कश्मीर की हुर्रियत कांफ्रेंस से बात नहीं कर सकता। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के राजदूत ने कुछ नया किया है। ये प्रक्रिया तो दोनांे पक्षों द्वारा दो दशकों से ज्यादा समय से चलाई जा रही है। दुर्भाग्य से नुकसान होना शुरू हो चुका है। नई दिल्ली का पाकिस्तान को साफ संदेश है कि कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के लिए बोलने को कुछ नहीं है।' शेरी आगे लिखती हैं, 'भारत और पाकिस्तान की सरकारें अनौपचारिक रूप से इस दिशा में काम करती रही हैं। 2004 का चार सूत्रीय कश्मीर फार्मूला एक शुरुआत था, जिसमें कश्मीरियों और हुर्रियत की सहमति शामिल थी। इसमें सीमा पार (वास्तविक नियंत्रण रेखा) व्यापार, कश्मीर को स्वायत्तता, असैन्यीकरण शामिल थे।' शेरी रहमान की यह स्वीकारोक्ति पूर्व संप्रग सरकार के गृहमंत्री द्वारा कश्मीर की 'आजादी और स्वायत्तता' पर दिए गए वक्तव्यों और सरकार द्वारा भेजे गए तीन सदस्यीय वार्ता दल की सिफारिशों की याद दिलाती है। शेरी रहमान आगे लिखती हैं, 'नवाज शरीफ रक्षात्मक मुद्रा में हैं, क्योंकि उन्होंने मोदी के आग्रह पर हुर्रियत के नेताओं से न मिलने का नासमझी भरा काम किया। पाकिस्तान के जनरल, जिन्हें भारत शांति की राह में वास्तविक अवरोध के रूप में देखता है, कश्मीर पर नवाज के इस नीति पलट से या (नवाज की) इस 'घोषणा' पर कि पाकिस्तान परंपरागत युद्घ लड़ने की स्थिति में नहीं रह गया, शायद ही खुश हों।'
शेरी के आगे लिखे शब्द शायद भारत में कुछ लोगों को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करें। वे लिखती हैं, 'इस आपदा में आशा की एकमात्र किरण भारतीय मीडिया से उठी कुछ आवाजें हैं। उन्हें भी लगता है कि कश्मीर पर अकेले चलने का भारत का रास्ता सही नहीं है।' इस पर आगे टिप्पणी करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।
दुविधा में खाकी
इमरान खान और मौलाना ताहिर उल कादरी को मोहरा बनाकर नवाज शरीफ की गुस्ताखियों से निपटने के बाद सैन्य अधिष्ठान ने अपनी बादशाहत कायम होने के कूटनीतिक संकेत भी दे डाले। औपचारिक रूप से (व्यावहारिक रूप से नहीं) आईएसआई पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के अंतर्गत काम करती है। परंतु इस बार जब नये आईएसआई प्रमुख रिजवान अख्तर की नियुक्ति हुई तो नियुक्ति की घोषणा सेना ने की। इस घरेलू खतरे से निपटने के बाद फौज ने जब बाहर नजर डाली तो उसे संकट के बादल दिखाई दिए। वह कश्मीर में कूटनीति के मोर्चे पर पिछड़ रही थी। न केवल कश्मीरी अलगाववादियों की पीठ सहलाते उसके हाथ को मरोड़ दिया गया था, बल्कि कश्मीर मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी घास नहीं डाल रही थी। घाटी में सक्रिय आतंकियों को भी सुरक्षा बल तगड़ी मार मार रहे थे। दूसरी ओर क्षेत्र में लोकतांत्रिक भारत का बढ़ता कद और अंतरराष्ट्रीय मंच पर जमती धाक पाक जनरलों की रीढ़ में कंपन पैदा कर रही थी। इसका असर पाकिस्तानी मानस पर भी होना तय था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा और चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा पाकिस्तानी मीडिया में छाई रही। अमरीका में मोदी के भव्य स्वागत और नवाज शरीफ की अनदेखी पर पाकिस्तानी समाचार चैनलों पर खूब रोना-धोना हुआ। मंगलयान ने भी खूब सुर्खियां बटोरीं। यह सब पाकिस्तान में कायम फौज की हुकूमत के लिए तो कतई अच्छा नहीं है। पाकिस्तान की सैन्य रणनीति के अहम मोहरे अफगानिस्तान में भारत का बढ़ता प्रभाव फौज को दु:स्वप्न दिखा रहा है। इराक और सीरिया में 'इस्लामिक स्टेट' द्वारा की जा रही नृशंसता पर सारी दुनिया में क्रोध पनप रहा है, जबकि पाकिस्तानी फौज द्वारा पाले-पोसे गए दहशतगर्द 'इस्लामिक स्टेट' की मोहब्बत की कसमें खा रहे हैं। ऐसे में दुनिया एक दिन पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा करने वाली है। फिर बलूचिस्तान से लेकर पाक कब्जे वाले कश्मीर तक बगावत मचल रही है। मीडिया सेंसर के द्वारा मामले को दबाकर रखा गया है।
इन परिस्थितियों में फौज ने वही पुराना रास्ता पकड़ा- सीमा पर तनाव। वे ऐसा अनेक बार कर चुके हैं। पहले सीमा पर तनाव पैदा करो। फिर इस तनाव की आड़ में अमरीका के साथ उसके आतंक विरोधी अभियान में चल रहे सैन्य अभियानों (अफगानिस्तान और अपने सीमांत इलाकों) में असहयोग प्रारंभ करो और फिर अमरीका द्वारा भारत पर वार्ता शुरू करने का दबाव बनवाओ। लेकिन इस बार कुछ अलग हो गया। इस बार जब पाकिस्तान ने भारतीय चौकियों और गावों पर गोलाबारी शुरू की तो उसे कई गुना भारी जवाब मिला। गोलियों के बदले गोले (मोर्टार) दागे गए। पाकिस्तान सेना को भारी नुकसान हुआ। पाकिस्तानी सीमा के कई किलोमीटर अंदर तक तबाही हुई। पाकिस्तानी जनरल सकते में आ गए। उन्होंने परमाणु युद्घ की हवा भी उड़ाई, पर वह बेअसर रही। इस सदमे से उबरने में रावलपिंडी को कई दिन लग गए। पाकिस्तान का अगला कदम यही लगता है कि वह बरसों से चल रहे छायायुद्घ को अब नयी ऊंचाई देने की कोशिश करेगा और जिया उल हक की अपराजेय शत्रु को हजार घाव देने की रणनीति पर तेजी से काम करेगा। परंतु उसकी दुविधा का अंत होता नहीं दिखता, क्योंकि भारत हजार घावों पर हजार पट्टियां बांधने की पुरानी नीति से आगे बढ़ चुका है और दुनिया उसके साथ खड़ी हो रही है। – प्रशांत बाजपेई
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