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देश में प्रमुख रूप से दो वर्ग राष्ट्र, राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र और उसको पुष्ट करने वाली स्वतंत्र न्याय-व्यवस्था के खुले विरोधी हैं। एक तो शुद्घ मुल्ला पार्टी के लोग हैं। ये लोग विश्वभर में कार्यरत सामान्य इस्लामी नीति के अनुसार काम कर रहे हैं यानी जब तक देश की जनसंख्या का 30 प्रतिशत और राजनैतिक रूप से प्रबल और अपरिहार्य न हो जाओ, दबे पैरों आगे बढ़ो, का पालन कर रहे हैं। अत: अभी स्वयं सामने बहुत कम आते हैं। दूसरे इनके वोटों, समर्थन के लिए लालायित वर्ग के इशारे, सहारे पर चलने वाले लोग हैं। ये लोग अधिक मुखर कुकरहाव करते करते हैं। अखबारों में प्रलाप, टीवी की बहसों में अल्पसंख्यकवाद का मरकट-नृत्य, सेमिनारों में फर्जी फांय-फांय, हर दिखाई देने वाली जगह पर आंखों में प्याज का पानी लगाकर घडि़याली आंसुओं का प्रचंड प्रदर्शन इनका दैनंदिन कार्यक्र्रम है। मुलायम सिंह की विशिष्ट शैली में कहूं तो-'हाय दैय्या रे माड्डाला रे़,नासपीटे ने जे हाल कद्दिया, तेरे कीरे परैं' टाइप हास्यास्पद कोलाहल दशकों से करते आ रहे हैं। मगर एक अजीब सी बात पिछले एक-डेढ़ माह से देखने में ये आई कि समाचार-पत्रों के पन्ने, टीवी की बहसों में ये लोग बहुत कम दिखाई देने लगे। शायद उन्हें अहसास हो गया था कि केंद्र में भाजपा के आने में इनकी इन विचित्र हरकतों का भी हाथ है। आखिर एक झूठ को कितना ताना जा सकता है?
अब दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में हुए मजहबी उन्माद ने इन्हें फिर कुकरहाव का अवसर दे दिया। उनके अनुसार, 'मुसलमानों को दूध,सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी करने या काम पर जाने के लिए बाहर निकलने में दिक्कत हो रही है, दाढ़ी देखते ही सुरक्षाकर्मी सावधान हो जाते हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, चवालीस लोग हिंसा के दौरान गिरफ्तार किये गए, उनमें सत्रह लोग ही हिन्दू हैं। क्या यह ब्योरा एकतरफा होता जा रहा है या यह दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश है? यह सच है पत्थरबाजी दो तरफ से हुई, घायल दोनों ओर के लोग हुए हैं। घर छोड़ कर दोनों तरफ के लोग भागे हैं। डर दोनों तरफ है। क्या इससे यह नतीजा निकलता है कि ये एक दंगा था, भारत का चिरपरिचित साम्प्रदायिक दंगा? कारण भी प्रेमचंद के समय से जाना हुआ-मंदिर-मस्जिद, नमाज और भजन। किरदार तो वही थे, लेकिन एक बड़ा फर्क था और उसको नजरअंदाज करना घातक होगा। त्रिलोकपुरी में बीस नंबर ब्लॉक की मस्जिद के पचास कदम सामने इस बार दुर्गा-पूजा के समय एक अस्थायी माता की चौकी बैठा दी गयी। उसकी अवधि बढ़ती गयी। जाहिर है, मुसलमानों में इस अवधि-विस्तार से बेचैनी बढ़ी क्योंकि इसके इरादे को लेकर वे बहुत निश्चिन्त नहीं थे।'
इसी तरह की पंक्तियों से अपूर्वानंद का यह लेख आगे बढ़ता है और इसकी धार यहां गिरती है-'यह एक बड़ी सामाजिक इंजीनियरिंग का हिस्सा है जिसके तहत उन समुदायों में हिन्दूपन भरने का प्रयास हो रहा है, जो पिछले दो दशक से खुद को राजनैतिक रूप से हिन्दू से अधिक अपनी जातीय पहचानों से जुड़ा महसूस कर रहे थे। त्रिलोकपुरी ही नहीं, दिल्ली की अन्य बस्तियों में भी, पिछले विधानसभा चुनावों में वंचितों और पिछड़ों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया, ऐसा विश्लेषकों ने बताया। अगर दिल्ली पर कब्जा करना है तो इस जनाधार को खींचे बिना सफलता संभव नहीं है'।
इस ढंग के लेखन और इस प्रकार की पत्रकारिता देशवासियों के लिए कोई नयी बात नहीं है। देश दशकों से यह निर्लज्ज प्रलाप सुनता आया है। इस समस्या का एक तो सबसे सरल और इन जैसा लिखने वालों की दृष्टि में उपयुक्त हल यह है कि हिन्दू मंदिर न बनायें, पूजा न करें बल्कि इस्लाम ही क्यों न कुबूल कर लें। यह कोई नई घटना नहीं है और इसका अपयश हिन्दुओं के माथे मढ़ना भी कोई नई बात नहीं है। यहां मेरे 'सांप्रदायिक' और 'दुष्ट मन' में
कुछ प्रश्न उठे हैं (अपनी पैंतीस-चालीस साल की उर्दू गजल की साधना के बाद भी मैं तब
तक सांप्रदायिक ही कहलाऊंगा जब तक मेरा सम्पूर्ण, शारीरिक, मानसिक, आत्मिक खतना न हो जाये)।
क्या त्रिलोकपुरी में दूध, सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी करने या काम पर जाने के लिए बाहर निकलने को प्रशासन और पुलिस हिन्दुओं को विशेष छूट दे रही है? क्या पुलिस ने संदिग्ध हिन्दुओं की जगह मासूम मुसलमानों को गिरफ्तार किया है? क्या माता की चौकी बिठाने के लिए हिन्दू समाज के लोगों को मस्जिद के इमाम से अनुमति लेनी चाहिए थी? माता की चौकी, मंदिर जैसे हिन्दू उपासना स्थल क्या पहाड़ों की गुफाओं, कंदराओं में बनाये जाने चाहिएं,जिससे मुसलमानों को आरती की आवाज न सुनाई दे, उन्हें ऐतराज न हो? क्या माता की चौकी मुसलमानों की निश्चिंतता की दृष्टि से बिठानी चाहिए? क्या त्रिलोकपुरी स्वतंत्र भारत का हिस्सा नहीं है? क्या त्रिलोकपुरी सऊदी अरब का हिस्सा बन गयी है जहां शरिया कानून लागू होते हैं और इसका कारण त्रिलोकपुरी में मुस्लिम जनसंख्या का बढ़ जाना है?मुंशी प्रेमचंद, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, शरत चन्द्र, सआदत हसन मंटो, ठाकुर पुंछी, किशन चन्दर जैसे सैकड़ों प्रतिष्ठित हिन्दू लेखकों और मुस्लिम लेखकों ने भी मुस्लिम उद्दंडता को केंद्र बनाकर हिन्दू-मुस्लिम समस्या यानी मुस्लिम वैमनस्य पर कहानियां लिखी हैं। कल्हण, विद्यापति जैसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्होंने कविताओं में इस भयानक परेशानी पर लिखा है। कल्हण मंदिरों में तुकार्ें द्वारा मल-मूत्र के घड़े फिंकवाए जाने का उल्लेख करते हैं। विद्यापति तो अपनी काव्यपुस्तक 'कीर्ति लता' में जौनपुर के शर्की बादशाह के काल में स्वयं पर गोमांस के टुकड़े फेंके जाने की जानकारी देते हैं। भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तम्भ चैतन्य महाप्रभु बंगाल के नवाबों के द्वारा कोड़ों से पिटवाए जाते हैं। नौवीं पादशाही गुरु तेग बहादुर जी के साथी मतिदास दिल्ली में आरे से दो हिस्सों में चीर दिए जाते हैं,भाई सतिदास खौलते तेल में तलवाये जाने के बाद कोयलों में भून दिए जाते हैं, भाई दयालदास जीवित जला दिए जाते हैं और अंत में गुरु तेग बहादुर जी का शीश काट दिया जाता है। मुसलमान बनने से इनकार करने पर 7 साल के बच्चे वीर हकीकत राय की बोटियां नोंच ली जाती हैं।
बंधुओ, त्रिलोकपुरी की यह घटना कोई अनूठी और पहली घटना नहीं है। यह ऐसी लाखों घटनाओं की विराट श्रंृखला की एक बहुत छोटी कड़ी है। इस्लाम अपने जन्म के दिन से ही सारे संसार में ऐसी नृशंस हत्याओं के माध्यम से ही फैला है। आइये, कुरआन के बाद सबसे सम्मानित पुस्तक बुखारी का सन्दर्भ देखें। ये मोहम्मद के शब्द हैं जो अबू हुरैरा ने कहे-
अबू हुरैरा से रिवायत है: मोहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया-'मुझे संक्षिप्त मगर व्यापक अर्थ के सन्देश के साथ भेजा गया है, और मैं आतंक से विजयी बनाया गया हूं'। (सन्दर्भ:बुखारी-खंड4,वॉल्यूम52,हदीस 220)। बीबी जैनब, जो मोहम्मद साहब की अपनी बेटी थीं और मुसलमान नहीं बनीं, के लिए मुसलमानों का व्यवहार देखिये-
'बीबी जैनब बिन्ते-मोहम्मद:आप नबी करीम की सबसे बड़ी बेटी थीं, आपका जन्म मोहम्मद साहब पर कुरआन अवतरित होने के क्रम के कोई 10 साल पहले हुआ था और आपकी शादी अबू अल आस से कुरआन उतरना शुरू होने से पहले हुई थी यानी आप की उम्र शादी के समय कोई 9 साल के आस-पास थी। जब नबी पाक मक्का से मदीना जा रहे थे तो आपने अपने गैर मुस्लिम पति को छोड़ पिता के साथ चलने से इनकार कर दिया। आपके पति ने बद्र की जंग में नबी करीम के खिलाफ हिस्सा लिया और गिरफ्तार कर लिए गए। मुसलमान फौज ने आपके शौहर की रिहाई के लिए फिरौती की मांग रखी। तब आप ने अपने गले का हार देकर उनको रिहा करवाया था। यह हार आपको आपकी शादी के समय आप की मां हजरत खदीजा (मोहम्मद की पहली पत्नी) ने दिया था। पति ने रिहा होने के बाद मुसलमान फौज के साथ किये गए वादे के अनुसार आपको मदीना भेज दिया, जहां कुछ ही वक्त बाद आपकी मौत हो गयी। (सन्दर्भ:1-इब्ने-साद सेगमेंट, वॉल्यूम 4, भाग 8, पृष्ठ क्र. 341,प्रकाशक: दरअलसात, कराची। 2-रीस्टेटमेंट ऑफ हिस्ट्री ऑफ इस्लाम, लेखक-सैयद अली असगर रजवी, सी.ई.-570 से 661)
कर्बला, जिसमें बहत्तर लोग मारे गए और जिसके कारण चौदह सौ साल बाद आज भी मुहर्रम मनाया जाता है, से कहीं बड़े नरसंहार बनू कुरैजा, जिसमें मोहम्मद ने बूढ़ी महिलाओं सहित कुछ इतिहासकारों के अनुसार, छह सौ से सात सौ और कुछ इतिहासकारों के अनुसार, आठ सौ से नौ सौ यहूदी मार डाले, बच्चों और लड़कियों को गुलाम बनाकर मुसलमानों में बांट दिया। (बुखारी, वॉल्यूम 5, बुक 59, नंबर 362)
अपने हिस्से में आई लड़कियों में से रयतह बिन्ते-हिलाल और जैनब बिन्ते-हैयान को अपने दामाद और चचेरे भाई अली को अपनी स्वतंत्र इच्छानुसार भोगने के लिए भेंट में दिया। अपने ससुर और बाद में खलीफा बने उमर इब्नेे-खत्ताब को भी एक अनाम लड़की दी जो उसने अपने बेटे अब्दुल्लाह को दे दी। मोहम्मद साहब के सभी साथियों को लड़कियां मिलीं। (द हिस्ट्री ऑफ तबरी वॉल्यूम 8, पृष्ठ क्र. 29-30)
कुरआन के बाद इस्लामी सन्दर्भ ग्रंथों में सबसे प्रतिष्ठित किताब बुखारी में मोहम्मद साहब को जिस बात से परेशानी नहीं है और वह खुलकर आतंक, लूट-मार, हत्याओं का पक्ष लेते दिखाई देते हैं, उस पर अपूर्वानंद जैसे लोगों को आपत्ति है। हिन्दू लम्बे समय से इतने पीडि़त रहे हैं, दबे-कुचले रहे हैं कि खंडित स्वतंत्रता के बाद बचे-खुचे हिस्से में भी खुलकर सांस नहीं ले पा रहे, डर हड्डियों तक में बैठ गया है। कोढ़ में खाज यह है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में शक्ति, अर्थात एकमुश्त वोट देना, को मुसलमान पहचानते हैं और देश के उस वर्ग को वोट देते हैं जो उनकी उद्दंडता को उनका अधिकार मानता है। ये लूट-मार, झगड़े, हत्यायें, हिंसा इस्लाम का ही हिस्सा हैं और इस्लामी किताबों में बड़े सम्मान से दर्ज हैं। आखिर अपूर्वानंद जैसे लोग कब चेतेंगे? क्या तब जब आग त्रिलोकपुरी से बढ़कर इनके ए़ सी़ सज्जित पॉश मकानों तक पहुंचेगी? मगर तब चेतकर भी क्या होगा? -तुफैल चतुर्वेदी
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