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बीसवीं और इक्कीसवीं सदी विकसित विज्ञान की सदी मानी जाती है। सूचना तकनीक, जैविक तकनीक और नैनो तकनीक का इतना विस्तार हुआ है कि आज तक के विज्ञान के पूरे विकास को पीछे धकेलते हुए विकास के नए आयाम हमारे सामने आए हैं। माना जाता था कि विज्ञान का विकास अथवा नए आयाम औद्योगिक उत्पादन में वृद्घि, औषधि उत्पादन जैसे क्षेत्रों तक सीमित होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है,यह प्रयोग तो कुछ मनुष्यों के दिमाग के साथ भी चल रहा है। नई-नई दवाइयों के प्रयोग पहले चूहे, मेंढक अथवा खरगोश पर किए जाते थे। इसमें नया कुछ भी नहीं पर सबसे अधिक ख्याल इसी बात का रखना होता था कि प्रयोग से जुड़ा चूहा गलती से बाहर जाकर दूसरे स्थानीय चूहों में न घुलमिल पाए। आज मनुष्यों को भी चूहों की तरह नियंत्रित प्रयोगशाला जैसे माहौल में परिमार्जित करके उन्हें देशों में भेजकर वहां अलगाववादी, विद्रोही जहर फैलाने की हरकत खुलेआम जारी है। जहां विकास की शुरुआत अभी होनी है, ऐसे गरीब देशों में कम्युनिस्ट 'चूहे' छोड़कर उन छोटे देशों के युवाओं में मिस वर्ल्ड, मिस पैसिफिक की दीवानगी फैलाकर अलग अलग तरह के फैशन और नशे में युवा पीढ़ी को फंसाना उनका काम है।
ये उदाहरण कुछ बढ़े-चढ़े भले प्रतीत हों लेकिन सच्चाई यही है कि कई अमरीकी विश्वविद्यालयों में ऐसे प्रयोग बडे़ पैमाने पर हो रहे हंै। उन विश्वविद्यालयों में एक तरफ गिनीपिग, व्हाइट रैट, ड्वार्फ लैम्ब जैसे पशुओं पर रसायनों और दूसरे भयंकर जहर की 'माइक्रो डोज' दी जाती हैं वहीं दूसरी तरफ वामपंथी विचारों की पृष्ठभूमि वाले परिवारों में से किसी एक को चुनकर उसे अमरीका के विश्वविद्यालयों की शैली में कम्युनिस्ट प्रशिक्षण देकर भारत जैसे देश में से राष्ट्रवाद को उखाड़ फेंकने के प्रयोग पर लगाया जाता है। यह करते हुए जितना ध्यान बायोटेक्नोलॉजी की प्रयोगशाला में सफेद चूहों के ट्राली से बाहर न निकल जाने का रखा जाता है उतना ही ध्यान 'थर्ड वर्ल्ड'में अस्थिरता निर्माण करने के लिए तैयार किए गए जिहादी आधार वाले 'लेफ्ट मिलिटेंट ड्वार्फ' पर रखा जाता है कि कहीं वे स्थानीय युवाओं में न घुलमिल जाएं। इसके लिए उन्हें मोटी छात्रवृत्ति देकर भारत में भेजा जाता है। पिछले 20 वर्ष में ऐसे 10 हजार से अधिक 'व्हाइट रैट' विश्व में अपने 'डेडिकेटिड वायरस' फैलाने में जुटे हैं।
दूसरे देशों के लिए इस तरह के 'लैब एक्टिविस्ट' बनाने का काम महासत्ताओं की प्रतियोगिता में शामिल अन्य देश भी करते हैं। कोई भी देश महासत्ता मुख्य रूप से विश्व के अन्य देशों पर नियंत्रण जमाकर ही बनता है। यह केवल अच्छे विदेश संबंधों,आर्थिक सहकार,औद्योगिक व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों से नहीं बनता, बल्कि विश्व के अधिकाधिक देशों अथवा बहुतांश देशों के महासत्ता पर निर्भर होने की अपरिहार्यता पर आधारित होता है। इससे भी साफ तौर पर कहना हो, तो विश्व के अधिकाधिक देशों द्वारा किसी न किसी कारण से आर्थिक विषय का प्रवाह महासत्ता की ओर बढ़ाना, ही उनका मकसद होता है। अर्थात् ये योजनाएं पंचवर्षीय स्तर पर चलाने में कोई समझदारी नहीं होती बल्कि ये कुछ दशकों अथवा कुछ सदियों तक की होती हैं। अमरीका ही कुछ सदियों पुराना होने के कारण उसकी सदियों लंबी योजनाएं कम हैं, लेकिन वेटिकन काउंसिल, ब्रिटिश सरकार अथवा चर्च ऑफ लंदन की अनेक सदियों की योजनाएं चल रही हैं। वे मुख्य रूप से भारत जैसे देशों को केन्द्र में रखकर ही चल रही हैं। किसी भी देश को चैन की नींद न सोने देना, यही उनका छुपा मकसद होता है। भारत जैसे 60-70 वर्ष पूर्व स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले देश को भी बेचैन रखना ही वह मकसद है। इसलिए उनके विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाओं में इस तरह के लोग तैयार किए जाते हैं।
ऐसे 'प्रयोगशाला' में तैयार हुए कई वामपंथी विचारक आज भारत में कार्यरत हैं। इनमें शिकागो विश्वविद्यालय की मार्था नुस्बौम, लिज मैक्केन, रोमिला थापर जैसों का उल्लेख किया जा सकता है। इन सबके कामों की ओर ध्यान दिलाने का कारण यह है कि पश्चिमी संस्थाओं से संबंधित ये लोग भारत के ऐसे व्यक्तियों एवं संस्थाओं से जुड़े हैं, जो कुछ वक्त पहले तक यहां के उग्रवादी गुटों से संबंधित थीं। इन लोगों के साथ ही मीरा नंदा, विजय प्रसाद, अंगना चटर्जी जैसों में से कुछ जिहादी गुटों से मेलजोल रखते हैं। इन सभी गुटों में एक समान सूत्र है और वह यह कि इस देश के बिखरे हुए घटकों को उभारकर यह दिखाना कि भारत एक बिखरा हुआ भूभाग है। एक देश में रहकर दूसरे देश के नाम पर तीसरे देश के लिए काम करने वाले इन लोगों की गतिविधियों पर हमेशा नजर रखने की जरूरत होती है। फिलहाल एक तरह से भारत और विश्व के कई अग्रणी देश एक महत्वपूर्ण बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। भारत में जिहादी, चर्च-तत्व और माओवादियों की संयुक्त उग्रवादी कार्रवाइयां असम से लेकर ओडिशा, आंध्र तक जारी थीं। देश में महत्वपूर्ण सत्तांतर होने के कारण ये उग्रवादी कार्रवाइयां फिलहाल कुछ रुकी हुई प्रतीत होती हैं। लेकिन चर्च-तत्व, माओवादी एवं जिहादी, ये केवल उग्रवादी कार्रवाइयां करने पर ही रुकने वाले नहीं हैं। पिछले 60 वर्ष से जिहादी सोच के राजनैतिक गुट किसी ना किसी रूप में सत्ता संभालने वाली कांग्रेस सरकारों को समर्थन देते आ रहे थे। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये तीनों ताकतें विश्व की बड़ी शक्तियों की प्रतिनिधि थीं। इसलिए असम, ओडिशा अथवा आंध्र में उन्होंने संयुक्त कार्रवाइयां शुरू कीं।
मार्था नुस्बौम यूं तो शिकागो विश्वविद्यालय में कानून विषय की प्रोफेसर हैं लेकिन उन्हें भारत में प्रगतिशीलता का बाना ओढ़कर काम करना ही भाया। वे अपने आपको अमर्त्य सेन की शिष्या कहलाने लगीं। उनका दृष्टिकोण है कि 'भारत में जो पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित वर्ग है वही सभ्य समाज है। इन सभी लोगों का एक और आग्रह होता है कि 'संस्कृत भारतीय भाषा नही है। यह भाषा आर्य यूरोप से लाए हैं। वेद भी हाल का ही साहित्य है। जो भी भारतीय है वही बुरा है। छह वर्ष पूर्व मुंबई पर पाकिस्तानी उग्रवादियों ने जो हमला किया था, वह भारत में मुसलमानों पर जारी अत्याचारों का परिणाम था।' इन जैसे लोगों की गतिविधियों को गौर से देखने की वजह यह है कि अमरीकी संस्थानों के अनुदान से भारत में जो प्रकल्प चलते हैं,जैसे मीडिया, विश्वविद्यालय और संस्थाएं, वे ऐसे लोगों को सर-आंखों पर बिठाते हैं और इसलिए उनकी वैश्विक स्तर के विचारकों में गिनती की जाती है। शिकागो विश्वविद्यालय में तैयार होकर 'वैश्विक विचारक' बनने वाली एक और महिला हैं लिज मैक्केन। भारत में घटित किसी भी अप्रत्याशित घटना के लिए किस तरह भारतीय संस्कृति ही उत्तरदायी है, यह वे कम्युनिस्टों की भाषाशैली में बताती रहती हैं। वह कहती हैं, 'भारत बाल नरबलि का देश है।'
रोमिला थापर के लेखन से भारतीय पाठक भलीभांति परिचित हैं, लेकिन वे भी इसी तरह पश्चिमी संस्कारों वाली 'प्रगतिशील' महिला हैं। उनके हर वक्तव्य का संदेश यही होता है कि 'भारत कोई देश नहीं है, वह तो पूर्व एवं पश्चिम की अनेक संस्कृतियों के टुकड़ों का एक समूह है।' पिछली सदी में अग्रेंजों के सत्ताकाल में यही कल्पना ब्रिटिश नौकरशाह और जेसुइट मिशनरियों ने रखी थी। उनका उद्देश्य यही था कि भारत के सांस्कृतिक विभाजन की शुरुआत दक्षिण के एक राज्य से हो इसलिए बिशप काल्डवेल ने यह प्रयास किया। स्वतंत्रता के उपरांत इस विचार को आगे ले जाने वाले उनके प्यादोंं में से हैं रोमिला थापर। कुछ जेसुइट संस्थाएं यही विचार अपनी पद्घति से रखती रहती हैं। लेकिन उनके मंडन में सीमाएं होती हैं। माइकल बारनेस, विस्कांेसिन विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया विभाग के प्रोफेसर रॉबर्ट एरिक फ्रायकेन्बर्ग भी इसका पूरक लेखन ही करते हैं। पिछली तीन-चार सदियों में ब्रिटिश नौकरशाह, ईसाई मिशनरी और पिछले 100 वर्ष के दौरान अमरीकी विश्वविद्यालयों में दक्षिण एशिया अध्ययन विभाग के प्रोफेसरों ने जो विचार इस संदर्भ में आगे रखे हैं, वे कमजोर न होने पाएं, उनमें नए संदर्भ जोड़ते हुए, भारत में स्वतंत्रता के बाद के समय की कुछ बातों का संदर्भ देकर इस तरह पेश किया जाता है कि वह विषय 21वीं सदी में ताजा लगे। 'संत' थॉमस सन् '52 में आया था, यह कल्पना अब झूठी साबित हो चुकी है। फिर भी उसे सच मानकर अनेक सिद्घांत गढ़े जाते हैं। जिस अनुपात में ये विचार रखे जाते हैं उसी अनुपात में पश्चिमी जगत के नए नए सम्मान सौंप जाते हैं।
मीरा नंदा भी इसी तरह की एक विचारक हैं। वे स्वामी विवेकानंद और वंदेमातरम् के गीतकार बंकिमचंद्र पर भारतीय संस्कृति का झूठा महिमामंडन करने का आरोप लगाती हैं। हाल में पश्चिमी देशों में भारतीय योग, आयुर्वेद का प्रसार करने वाली कई संस्थाएं आगे आई हंै। वे वहां बंद हों, उनका ऐसा ही प्रयास होता है। 'भारतीय संस्कृति नाजिज्म की प्रेरणास्रोत है', यही संदेश उन्हें देना होता है। हार्टफोर्ड के ट्रिनिटी कालेज में इंटरनेशनल स्टडीज के निदेशक प्रो़ विजय प्रसाद भी इस सूची में हैं। 'हिंदुइज्म इज फासिज्म' और 'रेसिज्म', यही उनके विचारों का सार होता है। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज तो इसी काम के लिए जानी जाती है। इस संस्था की अंगना चटर्जी पली-बढ़ी तो अरविंद आश्रम में हैं, लेकिन इस संस्था का उपयोग उन्होंने पूरी तरह से भारतीय संस्कृति के विरोध के लिए किया।
ये लोग महासत्ताओं की चिह्नित इलाकों में 'वन मैन आर्मी' की तरह होते हैं। दुर्भाग्य से, आज तक उनका प्रतिवाद नहीं हुआ था। अब हर मोर्चे पर उनका प्रतिवाद किए जाने की आवश्यकता है। 'बेक्रिंग इंडिया' पुस्तक ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं, लेकिन भारत के कई विश्वविद्यालयों, मीडिया समूहों, राजनैतिक दलों और गैर सरकारी संगठनों में ऐसे लोग महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं। इन लोगों का प्रतिवाद करना ही समय की मांग है। देश की स्वतंत्रता कायम रखनी है तो इस तरह के विचारकों का असली चेहरा सामने लाना आवश्यक है ।–मोरेश्वर जोशी
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