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पिछले 65 वषोंर् में भारत की राजनीति के केंद्र में कम्युनिस्टों, जिहादियों और यूरोपीय साम्राज्यवादियों की शह पर पलती देशद्रोही सोच ही हावी रही थी । समाज में भी उसी का असर दिखता था। पूरे विश्व में महासत्ता बनने के लिए एक दूसरे के विरोध में भीषण युद्ध लड़ने वाले ये घटक राष्ट्रवादी शक्तियों को सत्ता में न आने से रोकने के लिए अधिकाधिक सहयोग से काम कर रहे थे। कम्युनिस्टों ने अपने चीन एवं पुराने सोवियत इलाके से जिहादियों और विस्तारवादी चर्च संगठनों को दूर तो रखा ही, लेकिन अनेक अथोंर् में उनसे शत्रु जैसा बर्ताव भी किया। चीन में आज उसका हर पल अनुभव हो रहा है। पश्चिमी देशों तथा यूरोप और चर्च संगठनों की मुस्लिम देशों के विरोध में अथवा पिछले कुछ वषोंर् में उग्रवादियों के विरोध में मुहिम के चलते कट्टर शत्रुता रही है। लेकिन भारत एक ऐसा देश है जहां ये घटक भारत की स्थिरता के विरोध में लगातार एकजुट होकर काम कर रहे हैं। ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण पुस्तक के अनुसार, इन तीनों वैश्विक महासत्ताओं की स्पर्धा में जो उग्रवादी संगठन हैं वे भी अपने आवश्यक अस्त्र भंडारों प्रशिक्षण शिविरों, सूचना तकनीक एवं पूरे देश में छिपने के स्थानों का एक दूसरे को फायदा पहंुचा ही रहे हैं, साथ ही लोकतंत्र एवं संगठनात्मक प्रक्रिया में भी वे एक दूसरे के खास साथी हैं। जहां जहां उनकी संयुक्त सरकारें होती हैं वहां वहां उनकी आपसी शत्रुता का उन पर अधिकांशत: असर नहीं होता। चुनावों के उनके घोषणापत्र मामूली बदलाव के साथ ज्यादातर एक से ही होते हैं, क्योंकि वहां पहले स्थानीय राष्ट्रीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय भावना को उखाड़ना ही उनका एजेंडा होता है।
खुली घुसपैठ
अगर इस देश का भविष्य उज्ज्वल बनाना हो तो इस संयुक्त साजिशी मुहिम की ओर ध्यान देना आवश्यक है। आज तक उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सत्ता में रहने का लाभ हुआ है। आने वाले समय में उन्हें विरोधी खेमे में काम करना होगा। इससे उनके उग्रवादी संगठनों के अधिक आक्रामक होने की संभावना तो है ही, उनकी राजनीतिक भूमिका भी उस नीति की पूरक ही होगी, इसकी संभावना है। इस तरह का चलन उन्होंने विश्व में कहीं जारी रखा है अथवा नहीं, यह देखना वास्तव में आवश्यक है। भारत में उन्होंने पिछले 60 वषोंर् में कौन कौन से क्षेत्र अपने काबू में किए हैं एवं किस तरह खुद को इस देश की चिंता करने वाला दिखाना जारी रखा है इसका भी जायजा लेना होगा। संबंधित देशों में वांशिक विवाद एवं तनाव किस तरह खड़े करने हैं और उनमें से अपना राजनीतिक स्वार्थ किस तरह साधना है, इसी में लगे रहना उनका उद्देश्य रहा है। इस देश के कौन कौन से क्षेत्रों में उन्होंने इसका प्रयोग किया है, यह देखना आवश्यक है। मुख्य रूप से शिक्षा क्षेत्र, मीडिया और गैर-सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ में उन्होंने बड़े पैमाने पर घुसपैठ की है। पिछले 60 वषोंर् में उनके काम का जायजा लिया जाए तो इसी माध्यम से उन्होंने इस देश में राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में पंगुता लाने का मकसद ही सामने रखा था। अर्थात् देश में सत्तांतर होते ही उनका लक्ष्य समाप्त हुआ, ऐसा बिल्कुल नहीं है। लेकिन कल तक केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों में अपना स्वतंत्र स्थान बनाकर काम करने के ये मामले अब सीमित हांेगे,इसमें कोई संदेह नहीं है।
कौन देता है उन्हें वित्तीय सहायता?
ऐसे संगठन किसी की वित्तीय सहायता के बिना नहीं चल सकते। ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण के लेखक डा़ राजीव मल्होत्रा का कहना है कि ब्रिटिशों के समय में ही इसका आरंभ हुआ। विश्व में अनेक स्थानों पर ऐसे प्रयोग जारी रहते हैं। एक महासत्ता प्रतिस्पर्धी द्वारा दूसरे प्रतिस्पर्धी के विरोध में मोर्चा खोलने के लिए तीसरे प्रतिस्पर्धी के स्थानीय गुट की मदद लेने का चलन पूरे विश्व में हमेशा जारी रहा है। लेकिन जो देश इस चाल को समझते हैं वे इस पर फौरन नियंत्रण कर लेते हैं। भारत में पिछले छह दशकों में कांग्रेस जंगली घास की तरह हर तरफ फैली है। यद्यपि वह दिखने में अतिप्रचंड लगे, लेकिन जिस तरह से वह फैली है, उसका अगर जायजा लिया जाए तो उसे उसी पद्घति से नियंत्रित करना संभव है। उसकी थाह लेने के लिए पहले उन्हें वित्तीय आपूर्ति करने वाले आकाओं का पता लगाना होगा।
भारत में इन घटकों को एक साथ लाने में चर्च संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है क्योंकि उन्हें मुख्य वित्तीय आपूर्ति करने वाले संगठन चर्च संगठन ही हैं। 1950 का वर्ष केंद्र में रखा जाए तो उससे पूर्व एवं उसके बाद विश्व के 50 से अधिक देश यूरोप के दबाव से मुक्त हुए थे। तब यूरोपीय देश, मुख्य रूप से ब्रिटेन, अलग अथोंर् में यूरोपीय सामर्थ्य के प्रतीक अमरीका एवं सबके लिए अनेक सदियों तक पूरे विश्व में काम करने वाले चर्च संगठनों ने पूरे विश्व में अत्यंत सुनियोजित रूप से भारत में उग्रवादी संगठनों और राजनीतिक दलों के लोगों को मदद करना शुरु किया। अर्थात् उनका उद्देश्य तीन सूत्रीय था। एक तो संबंधित देशों में उन पर 200, 300 या 400 वषोंर् तक गुलामी लादने वाले देशों के लिए बदले की भावना पैदा न हो पाए। वैसे वे अकेले देश ही अथवा विश्व के अधिकाधिक देश आक्रामक मुद्रा में आ जाएं तो वे 300 वषोंर् की लूट भी वापस लेने के लिए आगे आएंगे। तो उन देशों में एकता पैदा होने देने में बाधा लाना का पहला उद्देश्य था। दूसरा था उन देशों को हमेशा बड़े देशों पर निर्भर रखना ताकि वहां के युवाओं में आत्मविश्वास न पनप पाए। तीसरा आज यद्यपि यूरोपीय देश फिर से उन सभी देशों को गुलाम बनाने जैसी स्थिति में नहीं हैं लेकिन उनके हिसाब से, किसी भी क्षण वह स्थिति बनी तो उन देशों पर पहले जैसा आधिपत्य बनाना संभव होना चाहिए। इस काम के लिए भारत में यहां के विचारकों, मीडिया, विश्वविद्यालयों और एनजीओ में बडे़ स्तर पर और सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर भी पंगुता लाने के लिए वित्तीय आपूर्ति करने वालों में अमरीका स्थित क्रोवेल ट्रस्ट अगुआ था। उसी तरह अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी इसमें सतत निवेश करती रहीं।
इन सबके कामों की एक केन्द्रीय सोच देखी जाती है। यही मानने के लिए वे तैयार नहीं होते कि भारत एक संघीय देश है। उनके प्रतिपादन के लिए पूरक होने वाली बातें सिद्घ करने के कार्यक्रम उन्हें मदद करने वाले मीडिया, विश्वविद्यालय और संस्थाएं बीच बीच में चलाते हैं। अर्थात् यदि किसी भी देश में कुछ सामाजिक समस्याएं होती हैं, उन समस्याओं को वे वैश्विक समस्या का रूप देते हैं। भारत में वंचित समाज की कुछ समस्याएं हैं। उनके लिए स्वतंत्र स्थान निर्माण करने के लिए वे अमरीका में ही एक व्यवस्था खड़ी करते हैं। उनका मीडिया उसका बखान करता है। भारत में तो अधिकांश मीडिया समूह चर्च संगठनों की मदद से खड़े हैं, जिस कारण वे उनका बढ़-चढ़कर प्रचार करते हैं। भारत के संघीय स्वरूप को विखंडित करने के लिए वे किसी से भी हाथ मिलाने के लिए तैयार रहते हैं। जिहादी संगठन एवं कम्युनिस्ट संगठनों से हाथ मिलाने के साथ ही भारत में उन्होंने दो मोचोंर् पर काम जारी रखा है। एक तो सेकुलर चेहरे वाले संगठनों की मदद से यहां के इतिहास, सामाजिक मुद्दों और महिलाओं के क्षेत्र में काम करने वाली एक व्यापक मशीनरी खड़ी करना और दूसरा प्रत्यक्ष मतांतरण कराना। मतांतरण व्यापक एवं स्वतंत्र रूप से चर्चा करने का विषय है। लेकिन यहां के समाज में विभाजन कराने के लिए यहां के अल्पसंख्यक मतावलंबियों के संगठन, यहां की जाति व्यवस्था से आहत घटक और नए सिरे से अपनी पहचान खोजने वाली महिलाओं में काम करने के लिए उन्होंने पिछले 50 वषोंर् में अनेक संस्थाएं, संगठन एवं आंदोलन खड़े किए।
केवल भारत विरोधी अध्ययन
यह सब कुछ करते हुए कुछ बातें नजरअंदाज करना और कुछ बातों पर अधिक जोर देना, यह उनका सीधा सीधा एजेंडा है। एक तो यहां के वंचित समाज द्वारा अस्पृश्यता की भयंकर पीड़ा सहने के बावजूद रामायण, महाभारत एवं उपनिषदों के निर्माण में उनका बड़ा हिस्सा है, इसका उल्लेख भी वे नहीं करते। अमरीका एवं यूरोप के हर विश्वविद्यालय में कम से कम एक विभाग दक्षिण एशियाई अध्ययन के लिए होता है तथा भारत के विभाजन को सींचकर उसमें बढ़ोतरी करना ही उनका दृष्टिकोण होता है। इसलिए वहां संभालने में आसान सा लगने वाला विषय यानी भारत में वंचित, महिलाएं एवं अल्पसंख्यक भारत की संस्कृृति, इतिहास एवं सामाजिक व्यवस्था के सबसे बड़े शिकार बताए जाते हैं एवं उसके लिए कुछ ह्यउद्घारकह्ण कार्यक्रम चलाना ही भारत की मदद करना है, यह फैलाया जाता है। इसलिए दक्षिण एशिया के किसी भी विषय का अध्ययन करने वाला विश्वविद्यालय इन्हीं में से किसी विषय का चुनाव करता है। अस्पृश्यता इस समाज की बड़ी समस्या है एवं उसे यहां के समाज के सभी घटकों को एकजुट होकर सुलझाना है,यह विषय उनमें से कोई नहीं उठाता। अगर कहीं कोई वंचित लेखक विभाजित होने की मंशा जताता वक्तव्य दे दे, तो उसे तुरंत प्रचारित किया जाता है। भारतीय समाज में पहले व्याप्त जाति व्यवस्था, सती, दहेज प्रथा आदि का उल्लेख कर ह्यकिस तरह भारत एक संघ होने के लिए अयोग्य हैह्ण, यही दृष्टिकोण सामने लाया जाता है। अमरीका के मेडिसन स्थित विस्कॉनसिन विश्वविद्यालय की पिछले 25 वषोंर् की रपटें देखें तो उपरोक्त उदाहरणों के बल पर वे यही दर्शाती हैं कि ह्यभारत देश हो ही नहीं सकताह्ण।
भारतीयों का महत्व
पिछले 10-15 वषोंर् में पश्चिमी देशों का स्वरूप एवं आर्थिक स्थिति बदलने के कारण इस तस्वीर में काफी बदलाव हुआ है। वहां की तकनीकी आवश्यकताओं की पूर्ति में भारतीयों ने काफी योगदान दिया है। प्रतिकूल परिस्थिति में यहां के युवाओं ने विदेशों में अपने कौशल का सिक्का जमाया है। मूलभूत विषयों पर शोधकार्य अथवा सूचना तकनीक की बड़ी बड़ी चुनौतियां भारतीय युवाओं ने स्वीकारी हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने अनेक क्षेत्रों में अपना वर्चस्व बनाया है। पिछले 50 वषोंर् में पूरे विश्व में भारत की छवि कुछ ऐसी थी कि यहां कोई काम ढंग से नहीं होता, यहां के शोधकार्य एकदम मामूली होते हंै। इसलिए भारतीयों के मन में धारणा यह बनी है कि अपने देश में विकास के लिए कुछ चाहिए तो उसे आयात करना ही एकमात्र विकल्प है। इसलिए यहां आयात करने पर ही जोर दिया गया। लेकिन विदेशों में भी हमारे युवा अच्छा काम कर सकते हैं, यह स्पष्ट होने के कारण सभी संदर्भ बदलने लगे हैं। लेकिन इसके साथ साथ जो विदेशी संगठन यहां के जिहादी, कम्युनिस्टों की मदद से देश को विखंडित करने का काम कर रहे हैं, उनकी कार्रवाइयों को भी उजागर कर उन पर नियंत्रण करना चाहिए। -मोरेश्वर जोशी
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