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जापान, फ्रांस और चीन के छात्रों में जो अपने राष्ट्र और सभ्यता के प्रति गौरव का भाव है, उसका श्रेय वहां की इतिहास की पुस्तकों को भी जाता है। इन तीनों राष्ट्रों के बच्चों को यह बताया जाता है कि उन्हें एक प्राचीन और गौरवमयी सभ्यता धरोहर के रूप में मिली है। परिणामत: ये बच्चे अपने आप पर जापानी, फ्रांसीसी अथवा चीनी होने का गर्व करते हैं।
यहां तक कि वर्तमान अमरीका और आस्ट्रेलिया जैसे वे राष्ट्र, जिन्होंने स्थानीय निवासियों का नरसंहार और वहां की प्राचीन सभ्यता का विनाश कर के नए राष्ट्र की स्थापना की है, अपने देश के विद्यार्थियों के समक्ष एक गौरवमयी इतिहास ही प्रस्तुत करते हैं। यह प्रस्तुतिकरण वहां की भावी पीढ़ी को अपने अमरीकी अथवा आस्ट्रेलियाई होने पर गर्व करने में सहायक होता है। इसके विपरीत, हमारे देश की पुस्तकें, जो 2005-06 में प्रकाशित हुई हैं, पूरे विश्व में अपवाद हैं। ये समाज को विखंडित करने और राष्ट्रीय एकता को समाप्त करने लिए लिखी गई हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद द्वारा तैयार की गईं वर्तमान पुस्तकें ऊपर दिये तीनों उद्देश्यों के विपरीत कार्य कर रही हैं। उदाहरण के लिए,हमारे देश की सातवीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक में लिखा है, ह्यहिंदुस्तान में दक्षिण भारत का समावेश कभी नहीं हुआ।ह्ण ऐसे छ्द्म वाक्यों का प्रचलन ईसाई मिशनरियों ने किया था,जिनके उद्देश्य से सभी पाठक भलीभांति परिचित हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनावों से पहले अपने भाषण में कहा था कि हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है जो यह सिद्घ करना चाहता है कि भारत का जन्म 1947 में हुआ था। कदाचित वे इसी वर्ग विशेष की बात कर रहे थे, जिसने आज ह्यएनसीईआरटीह्ण जैसी संस्थाओं पर अधिकार कर लिया है।
जन साधारण के पास इतना समय ही नहीं है कि वे यह देखें कि उनके बच्चों को पढ़ाई के नाम पर क्या परोसा जा रहा है। उनका यह विश्वास होता है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं तो लोकहित में ही कार्य करेंगी, क्योंकि उनका गठन इसी उद्देश्य के लिये किया गया है। बहुत से लोग ऐसा विश्वास कर लेते हैं कि यदि ऐसी एक शीर्ष संस्था कुछ कह रही है तो वह सत्य ही होगा।
देखते हैं ऐतिहासिक तथ्य
लगभग 2500 वर्ष पूर्व जब यूनान (वर्तमान ग्रीस) से अलक्षेंद्र (अलेक्जेंडर अथवा सिकंदर) ने भारत पर आक्रमण किया और हार गया था, उस के आक्रमण का एरिअन नामक व्यक्ति ने विस्तार से विवेचन किया है। इस विवेचन में उस ने भारत की सीमाओं का भी उल्लेख किया है। एरिअन अपने समय का एक महान चिंतक, सेनापति और इतिहासकार था। इसी प्रकार, एरिअन से लगभग एक शताब्दी पूर्व स्ट्रैबो नामक एक अन्य यूनानी चिंतक और भूगोलशास्त्री ने भी भारत की सीमाओं का विस्तृत वर्णन किया है। अलक्षेंद्र के मरने के उपरांत, सेल्युकस निकाटौर ने मेगस्थनीस नामक एक अन्य यूनानी को अपने राजदूत के रूप में चंद्रगुप्त प्रथम के यहां नियुक्त किया था। परिणामस्वरूप वह चंद्रगुप्त के समय पाटलीपुत्र (वर्तमान पटना) में आता जाता रहता था। अपने अनुभवों के आधार पर उसने ह्यइंडिकाह्ण नामक पुस्तक में भारत की सीमाओं का वर्णन किया है। इन सभी के अनुसार ह्यभारत की दक्षिणी सीमा समुद्र तक जाती है।ह्ण यह इस तथ्य को स्थापित करने के लिये पर्याप्त है कि भारत, जिसे यूनानी इंडिका अथवा इंडिया कहते थे, दक्षिण में समुद्र तक एक ही राष्ट्र था। इस एकता की निरंतरता को स्थापित करने वाला किसी विदेशी द्वारा दिया गया साक्ष्य केवल मेगस्थनीस ने दिया हो, ऐसा नहीं है।
ग्यारहवीं सदी में भारत में आया मुसलमान लेखक अल-बेरुनी अपनी पुस्तक ह्यकिताब उल हिन्दह्ण में लिखता है कि हिन्द एक ऐसा समतल भूभाग है, जिसके दक्षिण में हिन्द महासागर है और अन्य तीन दिशाओं में ये ऊंचे पर्वतों से घिरा है, जिन से बहने वाला जल इसे सींचता है। ये पर्वत पूर्व से पश्चिम में चीन, तिब्बत, काबुल, बामियान, खुरासान और अजरबैजान से होते हुए रोमन साम्राज्य तक जाते हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के विद्वानों को लगता हो कि इन यूनानी और मुसलमान लेखकों ने इतिहास का भगवाकरण कर दिया है? हमारे इस महान देश की इस सदियों पुरानी अखण्डता को छिपाने के लिए इन विद्वानों को जिस स्तर पर जाना पड़ा है उस के लिए एक और उदाहरण देखिए-इसी पुस्तक में लिखा है कि सन् 1318 में कवि अमीर खुसरो ने इस बात पर गौर किया था कि इस देश के हर क्षेत्र की एक अलग भाषा है: सिंधी, लाहौरी, कश्मीरी, द्वारसमुद्री (दक्षिण कर्नाटक में), तेलंगानी (आंध्र प्रदेश में), गूजरी (गुजरात में), मअबारी (तमिलनाडु में), गौडी (बंगाल में), अवधी (पूर्वी उत्तर प्रदेश में) और हिंदवी (दिल्ली के आस पास के क्षेत्र में)। अमीर खुसरो ने आगे बताया है कि इन भाषाओं के विपरीत एक भाषा संस्कृत भी है जो किसी विशेष क्षेत्र की भाषा नहीं है। यह एक प्राचीन भाषा है जिसे केवल ब्राह्मण जानते हैं, आम जनता नहीं। जब सूचना के अधिकार के अन्तर्गत, परिषद से उपरोक्त अंश से संबंधित मूल लेख और उसके अनुवाद की प्रति की मांग की गई तो लेखक को उत्तर मिला कि संबद्घ फाइल विभाग के पास उपलब्ध नहीं है। अन्य शब्दों में इस का अर्थ होता है कि हमें जो करना है करते रहेंगे, तुम भाड़ में जाओ। खुसरो के अनुसार, ह्यक्योंकि मैं हिन्द में जन्मा हूं, इसलिए मुझे इसकी भाषाओं की प्रशंसा में दो शब्द कहने की अनुमति दें। यहां पर प्रत्येक जनपद में अपनी एक विशिष्ट भाषा है, जो किसी अन्य से उधार नहीं ली हुई है। सिन्धी, लाहौरी, कश्मीरी (डोगरों की भाषा), द्वार समुद्री, तिलंगी, गुजराती, मअबारी, गौडी, अवधी, हिन्दवी। ये सभी हिन्द की भाषाएं हैं, जो प्राचीन काल से प्रचलित हैं।ह्ण इस अनुच्छेद की पहली और अन्तिम पंक्ति को ध्यान से देखेंगे तो आप को आभास होगा कि ये दोनों पंक्तियां हिंद की अखण्डता को स्थापित भी करती हैं। खुसरो इस से अगली पंक्ति में जो लिख रहा है उसे भी देखें-ह्यलेकिन एक अन्य भाषा है, जो इन सब से विशेष है, जिसे सभी ब्राह्मण प्रयोग करते हैं।ह्णअब तनिक इस वाक्य की तुलना ह्यएनसीईआरटीह्ण द्वारा छपे वाक्यों से कर के देखें। शब्दों के हेर-फेर से संस्कृत की महानता को दर्शाने के स्थान पर एक ऐसा भ्रम बुना जा रहा है कि मानो अकेले ऐसे राष्ट्र हैं जिस में सरकारी इतिहास के माध्यम से देश के गौरव को धूल में मिलता हुआ देख रहे हैं। यह बेहद शर्मनाक है। ल्ल
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