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तिथि : 30/9/14 एजेंडा : साझे रणनीतिक हिट चुनौती : भारत के हितों को दृढ़ता से रखना होगा |
तिथि : 15/06/14 एजेंडा : द्विपक्षीय संभंध सुदृण करना चुनौती : अनेक लंबित परयोजनायो पर काम शुरू |
तिथि : 05/09/14 एजेंडा : परमाणु करार पर आगे बढ़ना चुनौती : यूरेनियम उपलब्ध होगा संधि के तहत |
तिथि : 01/08/14 एजेंडा : भारत का रणनीतिक हिट आंकना चुनौती : सहयोग, मोदी की यात्रा का एजेंडा |
तिथि : 30/08/14 एजेंडा : सांस्कृतिक संभंध सुदृण करना चुनौती : विकास कार्यक्रमों में सहयोग, साथ बढ़ने का वादा |
तिथि : 03/08/14 एजेंडा : साझे हिट में नए आयाम जोड़ना चुनौती : चीन के प्रभाव में कमी प्रचंड ने मोदी का जादू माना |
भारत में भाजपानीत राजग सरकार बनने के बाद विदेश नीति में सकारात्मक बदलाव देने में आ रहा है। खासकर भारत-चीन संबंधों में एक नई पहल दिखी है। चीन की भारत में दिलचस्पी बढ़ी है, चीन के विदेश मंत्री अभी भारत आए ही थे। शपथ ग्रहण समारोह में हमारे पड़ोसी देशों के राष्ट्र प्रमुख आए थे। ऐसा पहली बार हुआ था। इससे दक्षिणी एशिया में संदेश गया कि हम संबंधों को अगे बढ़ाने में पहल करना चाहते हैं। जिन देशों, जैसे मारीशस आदि में भारतीय मूल के लोग रहते हैं उनसे हमें अच्छे संबंध बनाने हैं। इस सरकार से पहले सत्ता में रहीं सरकारें मिली जुली थीं, किसी एक पार्टी का इतना वर्चस्व नहीं था, लेकिन अब जो राजग सरकार बनी है इसमें भाजपा प्रमुख दल है और नेता भी 1947 से बाद जन्मी पीढ़ी से हैं। मेरे ख्याल से ये बदलते भारत की तरफ संकेत करने वाली चीजंे हैं।
नरेन्द्र मोदी ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान को चुना। हमारे उस देश से कुछ खास संबंध हैं। हम जब भी मदद की जरूरत पड़ी,भूटान ने हमेशा हमारा साथ दिया है। उस देश से हमारे पुराने और प्रगाढ़ संबंध हैं। दिसम्बर 2003 में हमारे उत्तर-पूर्व में जब विद्रोही गुटों की समस्या उठी थी, तब भूटान ने मदद की थी। वहां उनके गुप्त अड्डों को ध्वस्त किया था।
नेपाल जाकर प्रधानमंत्री मोदी ने एक तरह से चीन को संकेत दिया कि अब उसकी मनमानी नहीं चलने वाली कि जब चाहे नेपाल में दखल दे। मोदी ने जता दिया कि अब हम नेपाल के साथ दिल खोलकर आगे बढ़ने को तैयार हैं। पहले हमारे यहां एक शंका रहती थी कि कहीं नेपाल हमें चीन का हौव्वा तो नहीं दिखा रहा है। मोदी के वहां जाने से अब वह हौव्वा खत्म हो गया है। साथ ही प्रधानमंत्री ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को बंगलादेश और म्यांमार भेजा। इससे संकेत गया कि मोदी सरकार दक्षिण एशिया में अपनी भूमिका पुख्ता तरीके से निभाएगी।
जापान की बात करें तो उस देश के साथ पहले की सरकारों के दौरान भी संबंध बढ़ ही रहे थे। लेकिन इसमें दो बातें खास हैं। एक, प्रस्तावित दिल्ली-मुम्बई कॉरिडोर का करीब 45 प्रतिशत हिस्सा गुजरात के गुजरता है। गुजरात ने अपनी तरफ से इसकी 80 प्रतिशत तैयारी कर ली थी और बता दिया था कि जैसे ही इस पर काम शुरू होगा, गुजरात उसमें पूरी तैयारी से खड़ा होगा। दूसरा, गुजरात के मुख्यमंत्री के नाते भी नरेन्द्र मोदी का जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ व्यक्तिगत संबंध रहा है। इस वजह से जापान, जो अभी तक इस दिशा में आगे नहीं बढ़ पाया था, अब दिल खोल कर आगे बढ़ रहा है। हालांकि परमाणु मुद्दे पर अभी भी जापान की तरफ कुछ अड़चनें हैं। खासकर फुकूशिमा हादसे के बाद से तो जापान इस ओर ज्यादा सतर्क हो गया है। लेकिन उनकी घरेलू नीतियों में आगे चलकर बदलाव आया तो भारत के साथ उस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि भारत पर पूर्वी एशियाई देश हमेशा ही 'पश्चिम की तरफ रुझान' को जो लेबल लगाते रहते थे, अब उसमें उन्हें बदलाव दिखा है। जापान के साथ तो हमारे प्राचीन सांस्कृतिक संबंध हैं।
अब जल्दी ही मोदी अमरीका जाने वाले हैं। हम जानते ही हैं कि भारत की तरफ अमरीकी दृष्टि में बदलाव आया है। वे जानना चाहते हैं कि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की रीति-नीति कैसी है। अभी अमरीका के विदेश मंत्री, वाणिज्य मंत्री और रक्षा मंत्री भारत आए थे। अमरीका ने भारत को लेकर अपनी सोच बदली है।
राष्ट्रपति ओबामा ने खुद फोन करके नरेन्द्र मोदी को बधाई दी, उन्हें आने का न्योता दिया। साफ है कि ओबामा कदम आगे बढ़ाना चाहते हैं। वे उम्मीद बाधें है भारत के साथ उनका रक्षा सहयेाग तो चलता रहे। चाहते हैं परमाणु मुद्दे पर भारत की सिविल सोसायटी के विरोध, खासकर भोपाल कांड के बाद से साफ इनकार के स्वरों में अगर कोई बदलाव वे करा पाएं तो उनकी नजर से बेहतर होगा। वे पर्यावरण परिवर्तन के मुद्दों पर भी भारत को अपने पाले में लेना चाहते हैं। हालांकि अमरीका ने अभी तक यह नहीं कहा है कि हम चीन पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें भारत हमारे साथ आए।
पाकिस्तान की भारत में आतंकवाद को उकसाने की नीति के बावजूद अमरीका का उसे शह देना भारत की दृष्टि से सही नहीं है। भारत अभी अमरीका का मित्र बना है, 'गैर-नाटो' सहयोगी देश का दर्जा अभी हमें नहीं मिला है। भारत ने अभी तक उसके लिए कोई इच्छा भी नहीं दिखाई है। यह सही है कि अमरीका पाकिस्तान की गलतियों को नजरअंदाज करता रहा है। एक तरफ तो पाकिस्तान लादेन को अपनी छावनी में पनाह देता रहा, हक्कानी गुट को पालता रहा है,भारत के मित्र देश अफगानिस्तान को हमेशा अस्थिर करने की कोशिश करता रहा है। चीन को पाकिस्तान अपना सबसे विश्वसनीय दोस्त मानता है। भारत को अमरीका से साफ कहना चाहिए कि उसने पाकिस्तान को इतना बढ़ावा दिया है कि वह कई मुंह वाला दानव बन गया है। दूसरा, अफगानिस्तान से जाने के बाद उसे पाकिस्तान के हाथ में छोड़ना हमें मंजूर नहीं होगा। अगर पड़ोसी देशों को मिलाकर अफगानिस्तान की सहायता का कोई गुट बना सकते हैं तो अमरीका को बनाना चाहिए।
भारत को कहना होगा कि म्यांमार, चीन, सहित तमाम एशियाई देशों और ईरान के साथ उसके संबंधों को अमरीका, सकारात्मक रुख से देखे। ईरान के साथ तेल कुंओं की खोज के हमारे सहयोग को अमरीका के कारण नुकसान उठाना पड़ा है। शाहबहार बंदरगाह के जरिए हमारे उत्तरी कॉरिडोर के मुद्दे को ठेस लगी। अमरीका बर्मा के साथ हमारी पाईपलाइन का विरोध करता है। बर्मा में गैस क्षेत्र में 30 प्रतिशत हिस्सा भारत का है, पर अमरीकी दखल की वजह से बर्मा ने वह भी चीन को दे दिया। भारत के हितों को अमरीका को अपने हित समझकर चलना होगा, तभी द्विपक्षीय संबंध चल पाएंगे। हमें उनसे साफ-साफ बात करनी होगी और बताना होगा कि इसके बिना भारत की जनता उनके साथ नहीं आएगी। –शशांक
(लेखक भारत के विदेश सचिव रहे हैं)
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