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सवाच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय खंड-पीठ का फैसला आ गया है कि उत्तर प्रदेश सरकारी भाषा संशोधन कानून 1989 संविधान सम्मत है और राज्य में उर्दू को सरकारी काम-काज की दूसरी भाषा घोषित करने का फैसला सही था। इस वाद और इस पर आये फैसले का कारण उत्तर प्रदेश में बने इस कानून के खिलाफ उत्तर प्रदेश हिंदी सम्मेलन का न्यायालय में अपील करना था। कुछ पत्रकारों और समाचारपत्रों ने इसे 'हिन्दू-उर्दू की लड़ाई अब तक जारी है' का नाम दिया है। इसके पक्ष में 2001 की जनगणना के आंकड़े आये हैं कि हिंदी, बंगला, तेलुगु और तमिल के बाद उर्दू छठे स्थान पर है। 2001 की जनगणना के अनुसार पूरे देश की जनसंख्या का 5़ 01 प्रतिशन भाग उर्दूभाषी है अर्थात देश के पांच करोड़ से अधिक व्यक्तियों ने स्वयं को उर्दूभाषी लिखवाया है। ध्यान देने वाली बात यह है कि उत्तर प्रदेश में देश के उर्दूभाषियों की आबादी का केवल एक चौथाई भाग ही रहता है। शेष लोग बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु इत्यादि प्रदेशों में रहते हैं। मैं मुशायरों में इन क्षेत्रों में खूब घूमा हूं। यहां मदरसों में उर्दू मजहबी कारणों से पढ़ाई जाती है, मगर कम ही लोग अपने बच्चों को इस दकियानूसी शिक्षा के लिए भेजते हैं। आपसी बातचीत में सब लोग स्थानीय भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। हां अपशब्द उर्दू में ही बोलते हैं, शायद इसका कारण उर्दू की गालियों में जो विशिष्ट भौगोलिक चित्रण, लैंगिक इच्छा, धर-पटक और एक दूसरे के निकट सम्बंधी बनने की इच्छा व्यक्त करने तथा पिता, बहनोई, दामाद बनने का पवित्र विचार है, वैसी गुणवत्ता और इच्छा की अभिव्यक्ति तथा संतुष्टि स्थानीय भाषाओं में नहीं हो पाती होगी।
ज्ञातव्य है कि केवल मुसलमानों ने ही उर्दू को अपनी मातृभाषा लिखवाया है। आइये विचार करें कि स्थानीय भाषा के बोलने वाले इन मुसलमानों ने स्वयं को उर्दूभाषी क्यों लिखवाया होगा? कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र का स्थानीय मुसलमान बहुसंख्य रूप से बुनकर है। तांबे-पीतल का काम करता है यानी छोटे-मोटे काम करता है। ये सारे लोग मतांतरित हैं। इनके पुरखे हिन्दू थे, जाहिर है वे सभी स्थानीय बोलियां बोलते थे तो अब क्या हो गया कि मुसलमान बनने के बाद इनकी मातृभाषा मलयालम, तेलुगु, तमिल, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मराठी, इत्यादि की जगह उर्दू बनने लगी, ये लोग स्थानीय बोलियों में बात करते हैं, मगर स्वयं को स्थानीयता में समरस नहीं करते। वे अपनी अलग पहचान क्यों बना रहे हैं ?
भारत की तमाम भाषाओं के मिश्रण का परिणाम उर्दू है। ढेरों बोलियों, बाणियों, साखियों के समरस होने के कारण, व्यापारियों, साधुओं, नाथों, फकीरों के व्यापक जनसम्पर्क के कारण एक बोली उभरी। उसको कपड़छन किया गया, जिसका परिणाम उर्दू है। ये किसी भी नई भाषा के उभरने, बनने, संवरने की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी तरह कन्नड़, तमिल, तेलुगु का वर्तमान स्वरूप बना है। इनके भाषायी क्षेत्रों के सीमांत से लगती मराठी इन भाषाओं से प्रभावित है तो मनमाड, जालना, औरंगाबाद से लगते इलाकों की मराठी हिंदी प्रभावित भाषाएं इसी तरह रूप-स्वरूप बदलने का कार्य करती हैं। इसमें किसी का विरोध भी नहीं होता तो उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने उत्तर प्रदेश में उर्दू के काम-काजी भाषा बनाये जाने के विरोध में न्यायालय में जाने का काम क्यों किया ? क्या संस्थान के लोग इतने भोले हैं कि वे इतनी सी सामने की बात देख-समझ नहीं सकते ?
मित्रो ये विवाद बहुत पुराना है। इस पर विचार करने के लिए इसकी जड़ तक जाना होगा। मैं यहां कुछ बहुत प्रसिद्ध पंक्तियां उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा…
इलाही खाना-ए-अंगरेज गिर जा
ये गिरजाघर ये गिरजाघर ये गिरजा
शेख ने मस्जिद बना मिस्मार बुतखाना किया
हैं वही काफिर नहीं मुश्ताक जो इस्लाम के
मेरे इन पंक्तियों के चयन से ये मत मान लीजियेगा कि मैंने एक चतुर वकील की तरह अपनी बात मनवाने के लिए कुछ तथ्य इस तरह एकत्रित किये हैं, जिससे मुकदमा जीता जा सके। जी नहीं यही उर्दू का मूल स्वर है। पहले शेर में ब्रिटिश भारत में रहे लोअर कोर्ट के जज अकबर इलाहाबादी बड़े आलंकारिक रूप से ईसाइयों के गिरजाघर के गिर जाने की दुआ मांग रहे हैं। दूसरी पंक्ति में एक तरह की समस्यापूर्ति और शायरी के नियमों के अनुसार हर हिन्दू-मुसलमान शायर इसका प्रयोग अपनी गजल में करने के लिए बाध्य है। इसमें कहा गया है कि मुल्ला ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद बना ली। तीसरी पंक्ति में कहा गया है कि जो इस्लाम के प्रति इच्छुक नहीं वह काफिर है।
मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूं कि उर्दू भारतीय बोलियों-भाषाओं के कपड़छन से बनी है। इसके सर्वनाम, क्रियापद इत्यादि सभी कुछ भारतीय हैं, मगर कपड़छन का कपड़ा विदेशी ईरानी-तुर्की-अफगानी है। उर्दू का मानस और वातावरण भारत भर ही नहीं पाकिस्तान और बंगलादेश में ईरानी, तुर्की, मुगल विजय के घमंड और इस पूरी शताब्दी से देवबंदी, बरेलवी मदरसों और तब्लीगी जमातों का बनाया-बिगाड़ा जा रहा वातावरण है। बंगाली जड़ें बहुत मजबूत हैं, उन्होंने ऐसे किसी भी झांसे में आने से इंकार कर दिया। ढाका के लोगों को ये गौरव प्राप्त है कि उन्होंने इस्लामी विश्व के सबसे बड़े विद्वानों में से एक मौलाना मौदूदी को उर्दू की हिमायत करने पर जूतों के हार पहनाये थे और हार के विभिन्न भागों से उनकी सार्वजनिक धुनाई की थी और अंतत: वे तंग आकर पाकिस्तान से अलग हो गये। मराठी, कन्नड़, तेलुगु, तमिल, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली बोलने वाला वर्ग अपने आपको उस भाषा को बोलने वाला बता रहा है जो उसकी है ही नहीं, उसे आती ही नहीं़ उर्दू और उर्दू का वातावरण भारतीयों को अपनी जड़ों से अलग करना चाहता है। ये विष इतना अधिक है कि उर्दू के सभी हिन्दू शायर मुस्लिम मानस का तुष्टिकरण करते रहे हैं। फिराक गोरखपुरी, जो उद्दंडता की सीमा की चरम-सीमा को पार जाते हुए शायर थे, हमेशा हिंदी को, हिंदी कविता को, हिंदी कवियों को अपशब्द बोलते थे। उनके अनुसार हिंदी गंवारों की भाषा थी। मैं स्वयं कई बार अपने काव्य गुरु स्वर्गीय कृष्ण बिहारी नूर से उलझ चुका हूं। एक अवसर पर मैं लखनऊ में उनके कमरे में बैठा हुआ था। चर्चा में उन्होंने अपनी मौसी और मामी के लिए खाला और मुमानी शब्द का प्रयोग किया। मैं उन्हें भौंचक्का होकर देखता रहा।
मैं स्वयं गजल का ठीक-ठाक जाना-पहचाना शायर हूं, मगर क्या मुझे गजल में अपनी योग्यता मनवाने के लिए अपने पिता को अब्बा जान, मौसी को खाला, मामी को मुमानी कहना आवश्यक है ? बंधुओ! आवश्यक है, अगर मैं गजल का अच्छा शायर होने के साथ-साथ स्वयं को आधा-पौना मुसलमान प्रकट न करूं इस्लामी संस्कृति न ओढूं, न दिखाऊं तो मुझे उर्दू के वातावरण में कोई टिकने नहीं देगा। ये घोर साम्प्रदायिक वातावरण मुझे अछूत बना देगा। उर्दू के सबसे बड़े माने जाने वाले शायर इकबाल का कलाम अमुस्लिमों के लिए शब्दश: विष-भरा है। उसे बड़ा माना ही इसीलिए जाता है कि वह पाकिस्तान के मूल चिंतकों-जनकों में से एक था। वह इस्लामी श्रेष्ठता, इस्लामी उम्मा यानी अलगाववाद के गुण गाता था।
इसका परिणाम देखिये। जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला अपने राम-काव्य में भगवान राम के वन-गमन का वर्णन करते हुए लिखते हैं 'रुखसत हुआ वो बाप से लेकर खुदा का नाम' भगवान राम के लिए रुखसत हुआ और महाराज दशरथ के लिए बाप शब्द, भगवान राम जो स्वयं ईश्वर का अवतार हैं के लिए खुदा के नाम को लेकर विदा हुआ जैसा गलत प्रयोग उर्दू में अपने को मनवाने के लिए आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है। जब तक तुफैल चतुर्वेदी में चतुर्वेदी बाकी है, उर्दू का वातावरण उसका मानसिक खतना करने में लगा रहता है। मुझे यहां अपने पहली बार पाकिस्तान जाने की एक घटना याद आती है। पाकिस्तान के किसी शायर ने हम भारत के शायरों से कहा कि पाकिस्तान ने उर्दू को ये शायर दिया-वो शायर दिया, ये लेखक दिया-वो लेखक दिया, ये आलोचक दिया-वो आलोचक दिया। हिन्दुस्थान ने उर्दू को क्या दिया। एक भारतीय मुस्लिम शायर का तुरंत जवाब था, हिन्दुस्थान ने उर्दू को पाकिस्तान दिया।
यहां उपयुक्त होगा कि एक ही बोली की इन दोनों शैलियों की तुलना की जाये। इससे विषय अधिक स्पष्ट हो सकेगा। अमीर खुसरो तथा कुछ अन्य आचायोर्ें के बहुत प्रसिद्ध दोहे देखिये…
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने रेन भई चहंु देस
कागा सब तन खाइयो चुनि-चुनि खइयो मास
दुइ नैना मत खाइयो पिया मिलन की आस
कागा नैन निकास ले पिया पास ले जाय
पहले दरस दिखाय दे पाछे लीजो खाय
अब उर्दू के सबसे बड़े माने जाने वाले दो शायर मीर और गालिब के शेर देखिये…जाता है यार तेगबकफ गैर की तरफ
ऐ कुश्ता-ए-सितम तिरी गैरत को क्या हुआ …मीर तकी मीर
आमदे-सैलाबे-तूफाने-सदा-ए-आब है
नक्शे-पा जो कान में रखता है उंगली जादह से ़..़ गालिब
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ये दोहे अपने मूल स्वरूप में फारसी लिपि में लिखे गये हैं और इनके रचनाकार भी मुस्लिम हैं। आप या कोई भी इन्हें उर्दू कहेगा या हिंदी ? ये वह भाषाई स्वरूप है जो भारत की तमाम भाषाओं के मिश्रण का परिणाम था। ढेरों बोलियों, बाणियों, साखियों के समरस होने के कारण, व्यापारियों, साधुओं, नाथों, फकीरों के व्यापक जनसम्पर्क के कारण ये बोली उभरी।
उर्दू मूलत: इस भारतीयता से ओतप्रोत भाषा को फारसी की फोटोकॉपी बनाने का प्रयास है। उर्दू भारतीय भाषाओं पर फारसी-तुर्की की कलम है और ध्यान रहे कलम पेड़ का मूल चरित्र पूरी तरह बदलने के लिए लगायी जाती है। ये गंगा-यमुनी सभ्यता नहीं है। गंगा-दजला या यमुना-फुरात की सभ्यता को मिलाने का कार्य है और इस सायास कोशिश के साथ ये काम है कि गंगा पर दजला और यमुना पर फुरात हावी हो जाये। उर्दू भारत के मतांतरित हिन्दुओं को पहले मुसलमान फिर कट्टर मुसलमान और अंतत: तालिबानी बनने का एक और इस्लामी उपकरण है।
उर्दू पढ़ायेगा कौन?..़ मदरसे का मुल्ला़ उसका प्रशिक्षण क्या है ?़… तालिबानी सोच। उर्दू के पढ़ने और बढ़ने से हिंदी या अन्य हिंदुस्थानी भाषाओं की ही हानि नहीं हुई है अपितु हिन्दुस्थान की भी भयंकर हानि हुई है। इसके कारण ही उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान न्यायालय में गया।
न्यायपालिका को सायास जनसामान्य से दूर रखा गया है, किन्तु ऐसा नहीं हो सकता कि उसे समाज के विभिन्न हिस्सों का मानस क्या है इसका पता न हो। उसमें जैसी अराष्ट्रीय धारा बह रही है उसे बदलने के लिए उसे भी योगदान करना चाहिए। उसके फैसले संविधान के दायरे के साथ-साथ राष्ट्र के दूरगामी हित की दृष्टि से भी देखे जाते तो कितना अच्छा होता।
राष्ट्रविरोधी कायार्ें को रोका जाना आवश्यक है। पाकिस्तान का आंदोलन, उसमे मारे गये लाखों लोग, करोड़ों लोगों का विस्थापन क्या एक बार पर्याप्त नहीं है जो दोबारा वही पौधा रोपा जा रहा है ? राजनीतिकों के तो क्षुद्र स्वार्थ हैं, जिसके चलते वे ऐसा कर रहे हंै। मेरे देखे इसका एक ही हल है कि उर्दू की लिपि स्थानीयता के हिसाब से देवनागरी या वहीं की कोई आंचलिक की जाये और इसे पूर्ण रूप से भारतीय बनाया जाये, बन जाने के लिए बाध्य किया जाये। -तुफैल चतुर्वेदी
लेखक दूरभाष : 9711296239
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