|
सितंबर माह में चर्चा का बाजार गर्म हुआ, कि भारत अंतरराष्ट्रीय जिहादी आतंकवाद के निशाने पर आ गया है। इराक और सीरिया में जारी आईएसआईएस की बर्बरता की पृष्ठभूमि में ये खबरें ज्यादा सुर्ख होकर दिख रही हैं, परंतु सवाल ये है कि क्या खतरे के ये संकेत पहली बार दिख रहे हैं? भारत की ओर तनती दिख रही इस बंदूक के ट्रिगर पर किसकी उंगली है? और, भारत की प्रतिरक्षा नीति के केंद्र में किसे होना चाहिए? फिर, भारत पर इस्लाम की अंतिम और संपूर्ण सैनिक विजय का सिद्घांत 'गजवा-ए-हिंद' हजार साल से भी ज्यादा पुराना है। सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी से लेकर अहमद शाह अब्दाली और दुर्रानी तक एवं पिछले साठ सालों से भारत के लिए ज़हर बो रही पाक फौज़ तक, सभी अपने आप को गजवा-ए-हिंद करने वाला वह काल्पनिक लश्कर बताते आए हैं, जिसके हर सिपाही को ईनाम के रूप में जन्नत मिलने का आश्वासन तथाकथित रूप से पैगम्बर ने दिया हुआ है।
11 सितंबर 2001 को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए घातक आतंकी हमले के बाद से अमरीका और नाटो देशों की सेनाएं और खुफिया एजेंसियां अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को खोज रही थीं। अमरीका ने इस अभियान में अरबों डॉलर और आधुनिकतम युद्घ तकनीक झोंक दी थी। दसियों हजार जानें गईं। दस साल बाद 2 मई 2011 की सुबह समाचार चैनलों पर 'ब्रेकिंग न्यूज' शुरू हुई कि 'पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन मारा गया।' गौरतलब बात ये है, कि ओसामा सालों से पाकिस्तान मिलिटरी एकेडमी के सवा किलोमीटर के दायरे में रह रहा था। उसका 12 से 18 फुट ऊंची दीवारों से घिरा बंगला आसपास के मकानों से आठ से नौ गुना बड़ा था- जिसकी बालकनी की मुंडेर भी 7 फुट ऊंची थी। इतनी विशेषताओं से युक्त पाकिस्तान के अति सुरक्षित इलाके में बना ये बंगला अमरीका और नाटो की 'साथी' पाक फौज तथा आईएसआई के अंदर कोई कौतूूहल या संदेह जगाने में असफल रहा था, और अमरीका ने ओसामा को मारने के लिए जब वहां धावा बोला, तो आतंक विरोधी अभियान के अपने 'अहम साथी' पाकिस्तान की फौज को इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी। इस घटनाक्रम के आधार पर अंतरराष्ट्रीय जिहादी आतंकवाद, विशेषकर अल कायदा और तालिबान के साथ पाकिस्तान के खाकी तंत्र के रिश्तों की गहराई नापी जा सकती है।
सितंबर 2014 के प्रथम सप्ताह में अल कायदा के वर्तमान प्रमुख अयमन अल जवाहिरी का एक वीडियो सामने आया, जिसमें उसने आस-पड़ोस के साथ भारत को निशाने पर लेने की बात कही है। जैसा अपेक्षित था, मीडिया इस समाचार पर टूट पड़ा। इस गहमागहमी में कई सवाल अनछुए रह गए। जैसे कि ये वीडियो कितना पुराना है? क्या जवाहिरी जिंदा है? ये वीडियो मीडिया तक कैसे पहुंचा? ऐसे और कितने वीडियो पहले आ चुके हैं? और, ये वीडियो कहां रिकार्ड किया गया?
ओसामा बिन लादेन के कथानक का पटाक्षेप जिस तरह से हुआ, उसे देखकर दिमाग भिड़ाया जा सकता है कि कहीं जवाहिरी की धमकी का वीडियो पेशावर, एबटाबाद, पाक के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर या गिलगित-बाल्टिस्तान में तो नहीं तैयार किया गया? ये किसी तरह की भविष्यवाणी नहीं है, लेकिन जिन्हें ये कल्पना की बहुत ऊंची उड़ान लगे उन्हें अफगानिस्तान में डेढ़ दशक से चल रहीं 'आतंक विरोधी' लड़ाई की एक दिलचस्प घटना के बारे में जानना चाहिए। 2010 के आसपास अमरीकी जासूसों को पाकिस्तान के दक्षिण वजीरिस्तान में अल जवाहिरी के ठिकाने का पता चला। इस ठिकाने से वह बड़े-बड़े हमलों का संचालन कर रहा था। इस जानकारी को आईएसआई और पाक फौज के साथ साझा किया गया। बड़ी तैयारियों के साथ होटलनुमा इस अड्डे पर हमला किया गया, पर हमले के पहले ही आईएसआई जवाहिरी को दूसरी किसी सुरक्षित जगह पर पहुंचा चुकी थी। इस घटना के बाद अमरीकियों ने पाकिस्तानियों के साथ जानकारी साझा करना बंद कर दिया।
जिहादी आतंक के खतरे के सभी आयामों को समझने के लिए कुछ और बातें जानना उपयोगी रहेगा। जैसे – 9/11 को न्यूयार्क में वर्ल्ड टे्रड सेंटर पर हमला करने वाले आतंकियों तक 90 लाख रुपए तत्कालीन आईएसआई प्रमुख के निर्देश पर पहुंचाए गए थे। ये पैसा कोलकाता के एक धनी व्यापारी का अपहरण कर प्राप्त की गई 10 करोड़ की फिरौती से आया था। अपहरण करने वाला माफिया मूलत: उत्तर प्रदेश का था, जो दुबई से नेटवर्क का संचालन कर रहा था। तालिबान के प्रमुख मुल्ला उमर को आईएसआई ने तालिबान का प्रमुख बनाया था। आज अफगानिस्तान में सबसे दुर्दांत और मजबूत तालिबान समूह का नेता हुसैन हक्कानी, जिसने अफगानिस्तान में आत्मघाती हमलों की शुरुआत की, वह 80 के दशक से आईएसआई के लिए काम कर रहा है। 7 अक्तूबर 2001 को जब अफगानिस्तान में तालिबान पर अमरीका और सहयोगी देशों के हमले शुरू हुए तब पाकिस्तानी सेना के विमानों ने जिन हजारों तालिबानों को बचाकर सुरक्षित पाकिस्तान पहुंचाया उनमें हुसैन हक्कानी भी था। पाक फौज के अधिकारी तालिबान को सैनिक प्रशिक्षण और आसरा देते आए हैं, आज भी दे रहे हैं।
पाक फौज तालिबान को अफगानिस्तान के भविष्य के रूप में देखती है। पाक फौज इस क्षेत्र में अपना दबदबा बनाने, और भारत को प्रभावशाली भूमिका में आने से रोकने के लिए, अफगानिस्तान पर फौलादी पकड़ होना जरूरी मानती है। इस काम के लिए तालिबान उसका औजार है। चीन इसमें उसके साथ है, जिसकी नजर अफगानिस्तान की खनिज संपदा पर है। 9/11 में जब आईएसआई की संलिप्तता के प्रमाण सामने आए, तब अमरीकी प्रशासन ने परवेज मुशर्रफ को चेता दिया था कि या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ हैं। पाक फौज अमरीकी क्रोध के आगे अलकायदा के पदातियों को झोंककर तालिबान को बचाती रही, फिर भी अलकायदा के नेतृत्व को कोई नुकसान नही पहुंचने दिया। अमरीका के नेतृत्व वाली मित्र देशों की सेनाएं स्वयं से जितने आतंकियों को मार सकीं, मारती रहीं। पाक सेना ने भी अपने पाले पोसे 'बच्चों' की हत्याएं कीं, पर ये दंड सिर्फ उन जिहादियों के लिए था, जो पाक फौज के बताए गए दिशा-निर्देशों पर चलने में असहज महसूस कर रहे थे। फरवरी 2010 में तालिबान के दूसरे क्रमांक के नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को आईएसआई ने कराची से गिरफ्तार किया।
गनी का कसूर ये था कि वह आईएसआई की मर्जी के बिना अफगानिस्तान सरकार के साथ युद्घ विराम की बात आगे बढ़ा रहा था। नवंबर 2008 में अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा अगवा कर लिया गया था। रोड्स बताते हैं कि किस प्रकार उन्हें बंधक बनाकर अफगानिस्तान से पाकिस्तान ले जाया गया, जहां सड़कों पर हथियारबंद तालिबानी दस्ते खुलेआम घूम रहे थे। और कैसे एक मौके पर हुसैन हक्कानी का बेटा स्वयं वाहन चलाकर उन लोगों को पाक सैनिकों के बीच से होता हुआ एक स्थान से दूसरे स्थान ले गया था। आठ महीने बंधक रहने के बाद एक रात को रोड्स अपने एक साथी के साथ कैद से छूट कर भागने में सफल रहे। बाद में आईएसआई ने उन पर नजर रखने के लिए तैनात तालिबान लड़ाकों को गिरफ्तार कर यातनाएं दी थीं।
पाकिस्तान के सहयोग के बिना अमरीका अफगानिस्तान में अपनी लड़ाई जारी नहीं रख सकता। अफगानिस्तान में लड़ रही नाटो सेनाओं की 85 प्रतिशत आपूर्ति पाकिस्तान के रास्ते होती है। पाकिस्तान के नाभिकीय हथियारों का इस्लामी आतंकियों के हाथों पड़ना अमरीका, भारत और इस्रायल समेत विश्व के अनेक देशों के लिए भयंकर दु:स्वप्न साबित हो सकता है, इसलिए अमरीका पाकिस्तान के इस दोहरे खेल को देखकर सिर्फ दांत पीस सकता है। हजारों की तादाद में तालिबान पाकिस्तान में रह रहे हैं, प्रशिक्षित हो रहे हैं। पाकिस्तान से अफगानिस्तान में आने वाले तालिबानियों और अलकायदा के आतंकियों को रोकने के लिए अमरीका ने पाक-अफगान सीमा पर सैन्य चौकियां बनाई हुई हैं, जहां पीने का पानी भी वायु मार्ग से ले जाना पड़ता है। इन चौकियों पर सीमा के दोनोें ओर से आतंकी बमबारी करते हैं। अमरीकी कमांडर असहाय होकर देखते हैं, जब पाक सेना की सीमा चौकियां आतंकियों को सीमा पार कराने में सहायता देती हैं। चौदह साल से चल रहे इस आतंक विरोधी अभियान का परिणाम यह निकला है कि 2001 में जब ये लड़ाई शुरू हुई थी तब तालिबान लड़ाकों की संख्या 45,000 थी, आज उनकी संख्या 60,000 हो चुकी है।
पाकिस्तान के पास अनेक प्रकार के आतंकी संगठन हैं जिन्हें वह भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ प्रयोग कर सकता है। लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मुहम्मद के अलावा अनेक नए पुराने आतंकी संगठन हैं जो कहर बरपाने के लिए तैयार खड़े हैं। पाकिस्तान के पास दुर्दांत तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान है। दो दशक से उसकी भूमि पर पल रहे अल कायदा के लड़ाके हैं। हुसैन हक्कानी का नेटवर्क है। तालिबान की क्वेटा शूरा है। और हाल ही की सूचना के अनुसार पाकिस्तान इस समय गुलबुद्दीन हिकमतयार के हिज्ब-ए-इस्लामी पर विशेष ध्यान दे रहा है। ये सारे गिरोह भारत के खिलाफ जिहाद की उनकी प्रतिबद्घता को सालों से दुहरा रहे हैं। पाकिस्तान और उसके इस्लामी लड़ाके ओबामा की घोषणा पर अमल होने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं। तब इन आतंकियों के दो ही निशाने होंगे- अफगानिस्तान और भारत।
सिमी और इंडियन मुजाहिदीन के गुगार्ें से पूछताछ में खुलासा हुआ है, कि अल-कायदा की सिमी और इंडियन मुजाहिदीन से बातचीत चल रही है। अल-कायदा चाहता है कि सिमी और इंडियन मुजाहिदीन का विलय उस में हो जाए। पर आईएसआई इसके लिए तैयार नहीं है। आईएसआई चाहती है कि सिमी और इंडियन मुजाहिदीन भारत में जिहाद का स्थानीय चेहरा बने रहें। ऐसे में ये संगठन अल कायदा के स्थानीय सहायक बन कर काम कर सकते हैं। आतंक के ये कारखाने भी वैचारिक और सांस्कृतिक आधार पर पनपते हैं। इस्लामी कट्टरपंथ की खाद और पश्चिम से आ रही वहाबी हवाएं ही इस विषबेल को पनपा सकती हैं। कश्मीर समेत भारत में इस्लाम के भारतीय स्वरूप को बदलने के योजनाबद्घ प्रयास किये जा रहे हैं।
जमात ए इस्लामी पाकिस्तान वर्षांे से शैक्षिक-वैचारिक संस्थाएं चला रहा है, और तालिबान, अलकायदा एवं तहरीक ए तालिबान के लिए जिहादियों का उत्पादन कर रहा है। जमात उद दावा का हाफिज सईद भी जमात का ही उत्पाद है। भारत में भी ऐसी अनेक संस्थाएं हैं। कट्टरपंथी तत्व हजारों मदरसों को संचालित कर रहे हैं। हजारों मस्जिदों में अतिवादियों की घुसपैठ हो चुकी है। हजारों की संख्या में वहाबी उपदेशक प्रतिवर्ष भारत आ रहे हैं।आने वाले समय में इन चुनौतियों का फैलाव बढ़ सकता है। लेकिन सुरक्षा की मूल शर्तें यथावत हैं। इस्लामिक कट्टरपंथ की रोकथाम और भारत के अंदर सुरक्षा की जीवनशैली विकसित करनी होगी। जवाहिरी के इस वीडियो टेप से हमें अपना ध्यान भटकाने की आवश्यकता नहीं है। जिहादी आतंकवाद से निपटने के लिए भारत को सभी पहलुओं पर समग्रता से विचार और कार्य करते रहना होगा। – प्रशांत बाजपेई
टिप्पणियाँ