|
4 वर्ष पहले जम्मू-कश्मीर के बाढ़ नियंत्रण विभाग ने यह स्पष्ट आशंका जताई थी कि अगले चार साल में श्रीनगर में बरसात से बाढ़ और तबाही की स्थिति पैदा हो सकती है। केंद्र सरकार से 2200 करोड़ रुपया भी मांगा गया। कांग्रेस की अगुआई वाली, नेशनल कांफ्रेंस की मित्र, सेकुलर संप्रग सरकार से कितनी मदद मिली, यह जांचने वाली बात है। लेकिन इसके साथ ही यह भी पड़ताल होनी चाहिए कि खुद राज्य सरकार ने सूबे को उस आफत से बचाने के लिए चार साल के दौरान क्या-क्या कदम उठाए जिसकी मुनादी वह दिल्ली में कर रही थी।
आशंकाएं स्पष्ट थीं और खुद सरकार की तरफ से थीं। ऐसे में क्या सरकार के 'ट्विटर मुखिया' और विधानसभा में जूतम-पैजार करने वाले कट्टर चेहरों पर जनता को साफ-साफ खतरे में धकेलने का मामला नहीं बनता? जितना बड़ा यह दोष है, दोषियों पर उतनी बड़ी कार्रवाई क्या नहीं होनी चाहिए?
हालांकि, समय अटपटा है, सवाल तीखा, मगर एक बात पूछने वाली है। क्या जम्मू में तवी का पुल टूटने और 2010 में लेह में बादल फटने की घटना का संताप राज्य के कर्णधारों के लिए उतना ही था, जितना आज श्रीनगर के लिए है?
'खुद मेरे घर में घुसा जब पानी, तब मेरी आंख में आंसू आए।'
तुफैल चतुर्वेदी की उपरोक्त पंक्तियां सिर्फ राज्य के मुखिया उमर अब्दुल्ला के लिए नहीं हैं जिनका घर श्रीनगर में है। आज ये पंक्तियां जलमग्न घाटी की सियासत के ज्यादातर खुश्कदिल सौदागरों पर सटीक बैठती हैं।
विपत्ति की इस घड़ी में जब भारतीय सेना के जवान, एनडीआरएफ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जान हथेली पर रखकर दिन-रात राहत कायार्ें में जुटे हैं, एक और सवाल मन में घुमड़ता है- हुर्रियत के हंगामेबाज नेता और उनके परिवार सुरक्षित तो हैं? घाटी में सेना के विरुद्ध 'फ्राइडे-गेम' के नाम पर पत्थरबाजी और गुंडागर्दी की दुकान चलाने वाले, अमन-शांति को आग में झोंकने के लिए हरदम तैयार रहने वाले ये लोग आफत की इस घड़ी में कहां बुक्कल मारकर बैठे हैं? मासूम बच्चों और बिलखती मांओं को चाहे दिलासा देने के लिए ही सही, क्या उन लोगों में से किसी ने पानी में पांव रखा जो पाकिस्तान के इशारे पर उसके दिल्ली दूतावास दौड़े चले आते हैं?
दरअसल, पूरे राज्य की बजाय सिर्फ घाटी और यहां की आबादी को दिखावे के लिए पुचकारने और देश को कोसने वालों का यही असली चेहरा है। इंसानों में फर्क की दरार डालना, जनभावनाओं की आग भड़काना और दूर से हाथ सेंकना। मनुष्य को हिन्दू-मुसलमान, शिया-सुन्नी, गुज्जर-बक्करवाल के चश्मे से देखने के आदी इन लोगों ने इस्लामी उन्माद को खूब पोसा मगर जब भी इंसानियत के लिए काम करने का अवसर आया, ये मौके से गायब पाए गए।
इसके अलावा सोशल मीडिया पर सुस्त पड़ी 'वामपंथी वॉल्स' पर ी रोष पैदा करने और भुनाने की हरकतें तथा बेचैनी दिखने लगी है। उत्तराखंड त्रासदी के समय राहत कायार्ें की बजाय यात्रियों से लूटमार की कहानियां फैलाने वाले तत्व सेना और स्वयंसेवकों का अनथक परिश्रम देखने की बजाय थके, बौखलाए, मदद का इंतजार कर रहे लोगों का आक्रोश बेचने में जुट गए हैं। बचाव कार्य में वीआईपी और आम लोगों के बीच भेदभाव की खबरें सूंघने या फिर तारणहार बनी सेना को इस मौके पर भी जो गरिया सकें, ऐसे चेहरों की तलाश का काम लगातार जारी है।
बहरहाल, मनुष्य की पीड़ा का वर्ग विभाजन करने वालों, रोष को पोसने वालों, मजहब के नाम पर इंसानों में फर्क करने वालों के लिए यह मौका शर्मिंदगी भरा है। राहत और बचाव कायार्ें में जिस तत्परता का परिचय केंद्र सरकार, सेना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों से मिला उसका चौथाई प्रयास भी यदि स्थानीय शासन और आंदोलन की राजनीति करने वालों ने किया होता तो स्थिति ज्यादा बेहतर हो सकती थी। आज केंद्रीय एजेंसियों से तालमेल, काम में जुटे लोगों का उत्साहवर्द्धन, फंसे हुए लोगों का हौसला बनाए रखने का काम समय की आवश्यकता है। इस आवश्यकता से जो-जो मुंह चुराएगा समाज में मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेगा।
-सम्पादक
टिप्पणियाँ