|
साहित्य 'सुरसरि सम सबकर हित होई' की बात करता है और राजनीति भी जनहित की बात। जन-मन की आवाज हुए बिना साहित्य सार्थक नहीं होता, जनपक्षधरता के कारण ही साहित्य बहुधा विपक्ष बना रहता है। साहित्य का परिवर्तनकारी स्वभाव समाजवाद के सैद्घान्तिक रूप से मेल खाता है, क्योंकि भारतीय साहित्य की एक बड़ी विशेषता जनपक्षधरता भी है। सामाजिक वर्ग भेद और उसके बीच सामंजस्य भी नई बात नहीं। तुलसी की पंक्ति है-'ऊंच, नीच, बीच के, धनिक, रंक, राजा, राय हठनि बजाइ करि डीठि पीठ दई है', अर्थात इस समय ऊंच, नीच, मध्यमवर्र्ग के लोग, धनी, निर्धन, राजा और राव सभी ने हठपूर्वक सारी दुर्दशा देखकर भी पीठ फेर ली है। तुलसी अपने राम के आगेे जाति-पाँति भेद-भाव को व्यर्थ मानते हैं- 'मेरे जाति-पाँति न चहौं काहु की जाति-पाँति, मेरे कोउ काम को न हौं काहू के काम को'। इसी तरह संस्कृत साहित्य हो या लोक साहित्य दोनों के रचनाकार सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हैं। कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुंतलम् में राजा दुष्यन्त की भर्त्सना देखंे या एक प्रसिद्घ लोक साहित्य सोहर में छिहुली की छाँह में खड़ी हिरनी का करुण प्रसंग अथवा अँधेर नगरी के चौपट राजा की विडम्बना, इनमें राजसत्ता के प्रति आलोचना की दृष्टि स्पष्ट है।
यह सच है कि विश्व मंच पर साम्राज्यवादी ताकत के खिलाफ मार्क्सवाद एक सशक्त वैचारिक आधार बनकर उभरा और भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत अनेक विचारकों की प्रेरणा बना, उनके विचार-विमर्श से समाजवाद की विविध छटाएं बनीं। समाजवाद की एक छटा महात्मा गांधी मंे भी दिखती है, गांधी ने कहा- 'मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाए जाएं। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो।' हिन्द स्वराज, पृ़15 'समाजवादी इन सुविधा प्राप्त वर्गों को खत्म कर देना चाहते हैं, जबकि मैं यह चाहता हूँ कि वे अपने लोभ और स्वामित्व की भावना को छोड़ दें और उन लोगों के समकक्ष बन जाएँ जो मेहनत करके रोटी कमाते हैं' ग्र्राम स्वराज, पृ़. 51 'लोग यदि स्वेच्छा से ट्रस्टियों की तरह व्यवहार करने लगेंें तो मुझे सचमुच बड़ी खुशी होगी, लेकिन यदि वे ऐसा न करें तो मेरा खयाल है कि हमें राज्य के द्वारा भरसक कम हिंसा का आश्रय लेकर उनसे उनकी सम्पति लेनी पड़ेगी' ग्राम स्वराज, पृ़ 52 'सत्य, अहिंसा के जरिए संपूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति का मतलब है जात-पांत, वर्ण या धर्म के भेद से रहित राष्ट्र के प्रत्येक घटक की और उसमें भी उसके गरीब से गरीब व्यक्ति की स्वतंत्रता की सिद्घि', ग्राम स्वराज्य, पृ़ 6।
समाजवाद की दूसरी छटा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू में दिखती है। इसके बावजूद कि नेहरू साम्राज्यवादी अंग्रेजों के करीब थे, उनका संबन्ध कम्युनिस्ट अभियानों से भी जुड़ा। वे सामाजिक विषमताओं और धमार्ें के अन्तर्कलह का निराकरण आध्ुानिक विकास और विज्ञान में देखते थे, जिसका लाभ स्वतंत्र भारत में सोवियत रूस पोषित मार्क्सवादी विचार को सांस्थानिक आधार तैयार करने में मिला और यह सुविधा हिन्दी के प्रगतिशील साहित्यकारों को मिली और वे शिक्षा जगत में फलीभूत हुए। उन्हें राजकीय प्रश्रय से साहित्य क्षेत्र के पद, प्रकाशन और पुरस्कार प्राप्त होने लगेे और स्वतंत्रता संघर्ष में आत्माहुति देनेवाली भारतीय चिन्तन आधारित साहित्य सृजन की धारा क्षीण होती गई।
1970 में जब रूसी क्रान्ति सफल हो गई, प्रथम विश्व युद्घ के फासीवाद के खिलाफ अभियान चला, 1919 में 'कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल' की स्थापना हुई, उसके हस्ताक्षर अभियान में दुनिया भर के बुद्घिजीवी शामिल किए गए। नेहरू भी साम्राज्यवाद विरोधी अन्तरराष्ट्रीय अभियानों में शामिल हुए। दिसंबर 1926 के गोहाटी काँग्रेस अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया था कि ब्रूसेल में होनेवाली 'साम्राज्यवाद विरोधी लीग' की सभा में नेहरू को भेजा जाए। ब्रूसेल सभा की कार्यकारिणी की सूची में पं़ नेहरू का नाम सबसे ऊपर था। उन्होंने भारत के संदर्भ में एक मशविदा पेश किया, ब्रूसेल से लौटकर काँग्रेस को बीस पृष्ठों की रपट दी, जिसे 1927 में मद्रास काँग्रेस अधिवेशन में स्वीकृति प्रदान की गई। इन दिनों अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक कार्यकलापांे के साथ-साथ बौद्घिक गतिविधियाँ भी तीव्रता से चल रही थीं। अगस्त 1934 में सोवियत संघ के लेखकों का सम्मेलन हुआ, इसमें 'समाजवादी यथार्थवाद' का नारा दिया गया, इसी तरह जून 1935 में 'फासीवाद से संस्कृति की रक्षा' क लिए पेरिस में कांफ्रेंस हुई और अप्रैल 1936 में पगतिशील लेखक संघ का लखनऊ अधिवेशन। अन्तरराष्ट्रीय वैचारिकी की शब्दावलियाँ भारत में भी चल पड़ीं। पं़ नेहरू भी प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य थे, उन्होंने इस संघ की सदस्यता की हैसियत से दुनिया के नामचीन लेखकों के साथ स्पेन के युद्घ क्षेत्र का दौरा किया था। जब वे 1936 में काँग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष हुए तो वे काँगे्रसियों और कम्युनिस्टों को निकट लाए, अपने अध्यक्षीय भाषण में समाजवाद का पक्ष रखा, फासीवाद और प्रतिक्रियावाद का विरोध किया। इन्हीं दिनों मजदूरों, किसानों, छात्रों बुद्घिजीवियों को संगठित करने के लिए अनेक वामपंथी संगठन बने, जिनका उद्देश्य सामाजिक विषमताओं को वर्गसंघर्ष का शस्त्र बनाकर भारत को कम्युनिस्ट मुल्क बनाना था। स्वतंत्र भारत में इन संगठनों और संस्थाओं से लगभग सभी क्षेत्र प्रभावित हुए, ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाली राष्ट्रीय अस्मिता की सारी प्रेरणाएँ साम्प्रदायिकता के आरोप से घिरकर कुण्ठित होने लगीं। ऐसे ही लोगों को उभरने का अवसर मिला जो परंपरा विरोधी और वैश्विक खयालात के मार्क्सवादी थे, इससे अँग्रेजी का वर्चस्व बढ़ा, भारतीय भाषाएँ दबीं, सृजन की स्वाधीनता कुचल गई।
साहित्य, संस्कृति और शिक्षा पर आधिपत्य जमाकर मार्क्सवाद के अनुकूल जनमानस में परिवर्तन के प्रयास होने लगे। सोवियत रूस ने लेखकों के लिए नेहरू के नाम के साथ सोवियत लैंड जोड़कर एक पुरस्कार चलाया, उससे लेखक नवाजे गए, बहुतेरे लेखक सोवियत रूस की मेहमान नवाजी से संतृप्त हुए। मुझे इस विषय में एक मार्क्सवादी लेखक हंसराज रहबर ने बताया था कि सोवियत रूस की यात्रा से लौटने के बाद लेखकों के चेहरे सुर्ख गुलाबी हो जाते थे। इसी तरह शिक्षा क्षेत्र के पदों पर मार्क्सवादी काबिज हुए और अपनी विचार संततियों का विस्तार करने लगे। पहले उल्लेखनीय झटके का वाकिया जेपी छात्र आन्दोलन के दिनों पैदा हुआ, जब वामपंथ समर्थित काँग्रेसी सरकार का जनविरोधी चरित्र सामने आया। नेहरू के नामवाला सोवियत लैंड पुरस्कार दागदार हुआ। यह सुखद था कि इस आन्दोलन में अग्र्रणी प्रगतिशील कवि नागार्जुन, रेणु के साथ अन्य साहित्यकारों की तरह ही जेल गए।
इन्हीं दिनों 4 नवंबर 1974 को अर्द्धसैनिक बलों ने जयप्रकाश नारायण के सिर पर लाठी से जानलेवा प्रहार किया था, जिसे नानाजी देशमुख ने अपनी बाँह पर रोका और घायल हुए, इस निन्दनीय घटना को याद करते हुए रेणु ने सुरेन्द्र किशोर को दिए गए साक्षात्कार में कहा था कि 'चार नवंबर के बाद क्या होता है हम जीवित बचेंगे या नहीं, इसमें भी मुझे संदेह है। सन् 1942 से चौगुना अधिक नरसंहार तो हो चुका। अब तो सत्ताधारी जमात के रवैये को देखकर यही लगता है कि बंगलादेश में पाकिस्तानी नरसंहार की तरह एक दिन नागार्जुन, रेणु, जों बाबूलाल मधुकर और अनेक बुद्घिजीवियों की लाशें एक जगह पाई जाएंगी। सी़पी़आई. का एक लौंड़ा आएगा और जयप्रकाश की कार को बम से उड़ा देगा।' काँग्रेस और वामपंथ के आपातकालीन चरित्र से यह छिपा नहीं रह सका कि वे कितने जनपक्षधर हो सकते हैं।
दूसरी ओर देशी समाजवाद की तीन और छटाएँ भी हैं जिनके विचारों से साहित्य जगत प्रभावित हुआ। ये थे- आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण और डॉ़ राममनोहर लोहिया। सच्चिदानंद सिन्हा ने लिखा है कि 'इनमें तीनों मार्क्सवाद और पश्चिम के समाजवादी आंदोलन से प्रभावित हुए, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया तीनों में भिन्न तरह की थी। आचार्य नरेन्द्रदेव की दृष्टि पूरी तरह दार्शनिक और वस्तुपरक थी, जिस दार्शनिक दृष्टि ने उन्हें बौद्धधर्म दर्शन का समकालीनों में सबसे महत्वपूर्ण व्याख्याता बनाया, उसी दृष्टि से वे मार्क्सवाद की ओर झुके और जीवन भर मार्क्सवादी बने रहे। जयप्रकाश की दृष्टि में भावना ज्यादा महत्वपूर्ण थी जो प्राय: व्यक्तिगत संबन्धों से प्रभावित होती रही। छात्र जीवन में महात्मा गांधी के आह्वान पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को छोड़ कुछ समय के लिए सदाकत आश्रम में अध्ययन किया और फिर आगे की शिक्षा के लिए अमरीका चले गए। रूस की क्रान्ति के तत्काल बाद अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में औपनिवेशिक मुक्ति का रास्ता दिखाई देता था और इसी प्रभाव में जयप्रकाश नारायण अमरीका में ही मार्क्सवादी बने और कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े। लोहिया भी मार्क्सवाद से प्रभावित थे, लेकिन शुरू से इसके प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टि रही। वैसे लोहिया की अभिव्यक्ति में सदा दार्शनिकता का पुट होता था, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति में कलात्मकता और प्रतीकात्मकत् ाा ही प्रधान थी। इसी विशिष्टता के कारण पौराणिक मिथकों के माध्यम से वर्तमान भारतीय मनीषा को उद्वेलित करते थे। अपने अत्यन्त महत्वपूर्ण लेख- 'राम, कृष्ण और शिव' में भारतीय चरित्र की और स्वयं अपने चरित्र की विशिष्टता को भी रेखांकित करते हैं''(समाजवादी नेतृत्व में लोहिया की प्रासंगिकता, सामयिक वार्ता, मार्च 2009)। इस कथन से स्पष्ट होता है कि साम्राज्यवाद के विरोध के लिए समाजवादी विचारक मार्क्सवाद से प्रभावित तो अवश्य हुए, लेकिन वे मार्क्सवाद को पश्चिमी इतिहास की उपज मान रहे थे, भारत की सास्ंकृृतिक जमीन की विचारधारा नहीं। लेकिन, जहाँ तक भारत पर साम्राज्यवाद की आध्ुानिक सभ्यता सहित आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का प्रभाव था, साथ ही धार्मिक विभेदों और सामाजिक विषमताओं का फैलाव था, वहाँ तक उन्हें मार्क्सवाद दर्द निवारक दवा की तरह प्रतीत हो रहा था। इसके बाद भी वे सांस्कृतिक मोर्चे पर मार्क्सवाद का भारतीय विकल्प खोज रहे थे।
भारत के बौद्धिक इतिहास में सामाजिक विषमता का निराकरण बौद्ध धर्म-दर्शन में देखा जाता है जबकि स्वयं बुद्ध के कथनानुसार बौद्ध धर्म भी 'अरिय सच्च' है अर्थात आर्य सत्य, परंपरा से प्राप्त ज्ञान। जब वामपंथी जनसंस्कृति मंच बतौर हथियार बौद्ध मत का उपयोग जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पुनरुत्थानवाद, ब्राह्मणवाद, नारी उत्पीड़न जैसे सामंती संस्कृति की जड़ें उखाड़ने के लिए करता है, इस मत का चरम लक्ष्य वर्र्ग संघर्ष के ध्वंसक कोलाहल में खो जाता है। जनसंस्कृृति मंच के द्वितीय राष्ट्रीय सम्मेलन के मशविदा दस्तावेज की पृष्ठ संख्या- 2 पर लिखा है कि 'सुदूर अतीत में वर्ण और वर्ग के विभाजन पर शोषण के 'सनातन धर्म' संस्कति के खिलाफ लोकपरक तथा वस्तुवादी चिन्तन और कला की मजबूत परंपरा विकसित हुई थी। सांप्रदायिक संकीर्णता के खिलाफ सभी धर्मावलंबियों की मूल एकता का स्वर प्रबल हुआ। सूफी मत और भक्ति आन्दोलन ने लोकभाषाओं और उनके साहित्य के विकास का मार्ग प्रशस्त किया।'' इन्हें भारत की धरती तो चाहिए, पर ये उनके प्रति ईमानदार नहीं रहेंगे, हिन्दी को क्रान्ति का माध्यम बनाएंगे, लेकिन हिन्दी के प्रति ईमानदार नहीं रहेंगे, एकलव्य का अंगूठा काटने वाले द्रोणाचार्य का पीछा करेंगे, लेकिन भारत के बुनकरों के हाथ काटनेवाले अँग्रेजों का नाम नहीं लेंगे, न ही वैदिकों पर चलाए बौद्धों के क्रूर दमन चक्र को याद करना चाहेंगे और न घोर वस्तुवादी भौतिक दर्शन कणाद के वैशेषिक को जानना चाहेंगे, जिससे बौद्ध दर्शन धराशायी हुआ। इनकी मनसा का कमाल देखिए- जो लोकायत कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आन्वीक्षिकी का अभिन्न हिस्सा है, जिसे कौटिल्य ने त्रयी के संरक्षण में सांख्य और योग- के साथ रखा है (सांख्यं योगो लोकायतं चेत्यान्यवीक्षकी- कौ़1.1)उसे देवीप्रसाद चट्टोपायाय ने मूल स्थापना से काटकर वर्ग भेद और वर्ग संघर्ष का हथियार बना दिया। वस्तुत: मार्क्सवादी आर्थिक मोर्चे पर साम्राज्यवाद के विरोधी दिखते हैं, लेकिन बौद्धिक मोर्चे पर वे साम्राज्यवादी हथियारों से ही लड़ते हैं जिन्हें अँग्रेज ने भारतीय शास्त्रों को बदनाम और बेदखल करने के लिए बनवाया था, यथा, चट्टोपाध्याय ने अपनी पुस्तक लोकायत में छान्दोग्यपनिषद के प्रसंग की व्याख्या ह्यूम से ली है, पर शांकर भाष्य से नहीं। इस तरह के कई उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि कोई ध्ूार मार्क्सवादी बौद्धिक मोर्चे पर साम्राज्यवाद के साथ है, न कि भारत के अनौपनिवेशन के लिए संघर्षरत भारतीय विचारधारा के साथ।
जब कोई देशी विचारक सामाजिक विषमताओं पर विचार करता है, वह वर्ग संघर्ष का नहीं, समाधान का रास्ता खोजता है। डॉ़ राममनोहर लोहिया ने भी वर्ग और वर्ण की आलोचना की है। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने भी गैरबराबरी के विरुद्ध चतुर्वर्ण के वैदिक स्रोत की पड़ताल की और उसे पहेली कहकर अस्वीकार किया। उन्होंने हिन्दू धर्म की आलोचना करते हुए लिखा है कि 'प्रत्येक हिन्दू का यह विश्वास है कि हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था दैवीय है।' 'वर्ण व्यवस्था को छोड़ कर हिन्दुओं में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें वे अन्य धमार्ें से भिन्न हों।' 'यह हिन्दू धर्म की आत्मा है' (अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय 8.16 पृ.195) लेकिन, जब वे बतलातेे हैं कि 'शूद्र कौन थे ?' तब वर्ग संघर्ष की शत्रुता नहीं रोपते, शूद्र वर्ण को ऊंची पहचान देते हैं, वे बताते हैं कि 'शूद्र आयार्ें के सूर्यवंशी समुदाय में से ही थे। एक समय था जब आर्य समुदाय ने वेवल तीन वणार्ें- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ही मान्यता दी। शूद्रों का अलग- से कोई वर्ण नहीं था, वे भारतीय आर्य समुदाय के क्षत्रिय वर्ण में ही आते थे। वस्तुत: चतुर्वर्ण वैदिक धारणा है, यह याज्ञिक है, इसमें संस्कार और आचार को महत्व दिया गया है। इसमें विविध क्षमताओं का समायोजन किया जाता है, स्थान और समय के अनुसार सबको वरीयता दी जाती है। इस दौर के सभी सवालों से जूझते हुए सर्वसमावेशी चिन्तक पं़ दीनदयाल उपायाय ने भी भारतीय बौद्धिक इतिहास के भीतर समाधान खोजा। उनकी दृष्टि में समाजवाद की अपनी छटा है। वे व्यक्ति और समाज को विभाजित कर के नहीं देखते, उनका विचार है कि 'जब कोई यह प्रश्न करता है कि व्यक्ति बड़ा है या समाज बड़ा? तो हिसाब लगाना असंभव हो जाता है। समाज भी बड़ा है और व्यक्ति भी बड़ा है अथवा यों कहिए कि जितना बड़ा व्यक्ति है उतना बड़ा समाज और जितना बड़ा समाज है उतना बड़ा व्यक्ति। दोनों अभिन्न हैं। कुछ लोग जो पश्चिम की विचारधारा से प्रभावित हैं, व्यक्ति और समाज के बीच संघर्ष की भूमिका लेकर विचार करते हैं। कहा जाता है कि व्यक्ति और समाज के हित टकराते हैं, पश्चिम के सोचने में ही द्वैत घुस गया है।' 'जिस प्रकार व्यक्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा जरूरी है, इन चारों को मिलाकर व्यक्ति बनता है, उसी प्रकार देश, संकल्प, धर्म और आदर्श के समुच्चय से राष्ट्र बनता है।' हम अपनी चिन्ता करते हुए समाज की चिन्ता करें। हमारे हित और समाज के हित में विरोध नहीं, संघर्ष नहीं। इसलिए जब लोग हमसे पूछने लगते हैं कि आप व्यक्तिवादी हैं अथवा समाजवादी? तो हमें कहना पड़ता है कि भाई हम तो व्यक्तिवादी भी हैं और समाजवादी भी। हमारी मान्यता है कि बिना व्यष्टि के किसी समष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती और बिना समष्टि के व्यष्टि का क्या मूल्य? इसलिए हम दोनों के बीच समन्वय करना चाहते हैं'(राष्ट्र जीवन की दिशा, पृ़ 95.97)। दीनदयाल जी के विचार सार्वभौमिक हैं। हेबरमॉस के पहले जार्ज लुकाच ने भी अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ क्लास कॉन्सस्नेेस' में भौतिक वस्तुओं के द्वन्द्व को नकार कर मानवीय चेतना में अन्तर्निहित द्वन्द्व की स्थापना की थी, नोम चोम्स्की का कहना है कि 'मनुष्य के मस्तिष्क में जिसतरह की जैविक संरचनाएं होती है, वैसी ही संरचनाओं का निर्माण समाज में भी होता है। भाषा के आधार पर सार्वभौमिक नियम बनाए जा सकते हैं।' भारत में जन, धन शासन और चिन्तन को प्रत्याशा, प्रयास और प्राप्ति के त्रिवर्ग में समाहित माना गया।
दीनदयाल जी ने संपन्नता से होनेवाली हानियों को 'अर्थ का प्रभाव' और विपन्नता से होनेवाली हानियों को 'अर्थ का अभाव' कहा और इन दोनों को मिटाकर अर्थ की जो समुचित व्यवस्था की जाए, उसे 'अर्थायाम' नाम दिया। इस अर्थ चिन्तन का स्रोत त्रिवर्ग है। त्रिवर्ग पर चतुर्वर्ण और चतुर्वर्ग आधरित है। चतुर्वर्ण प्रवृत्ति परक है और चतुर्वर्ग अर्थपरक। इसीलिए दीनदयाल जी ने जब चतुर्वर्ण को 'राष्ट्रपुरुष' की संज्ञा दी, उनकी दृष्टि में एकात्म राष्ट्र का स्वरूप था। पुरुष सूक्त का 'पुरुष' पूरा ब्रह्माण्ड है, जितने भी अस्तित्व हैं, वे सभी पुरुष ही हैं- 'पुरुष एव इदं सर्वम्'। निरुक्त के अनुसार पुरुष का अर्थ है- 'पुरि शेते इति पुरुष:' अर्थात सृष्टि रूपी पुर में शयन करनेवाली सर्वव्याप्त क्रियाशील चैतन्य सत्ता को पुरुष कहा गया।
दीनदयाल जी ने धर्म विषयक विवादों का भी समाहार किया है। उन्होंने वैशेषिक दर्शन से धर्म की परिभाषा ली- जिससे अभ्युदय और निश्रेयस् की संसिद्धि हो, वह धर्म है- यतोभ्युदयनि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म: (वैशेषिक दर्शन, 1.1.2)।
दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन सर्वात्मा केन्द्रित तर्कसंगत सर्वसमावेशी वैश्विक दर्शन है। समस्याओं के समाधान के लिए वेदार्थ को आधार बनाया गया है, अर्थशास्त्र और भारतीय दर्शन का सहयोग लिया गया है और इसकी कसौटी है- सामाजिक स्वीकृति। इसे सामाजिक स्वीकृति मिलती जा रही है। यह सामाजिक समरसता फलीभूत करने में सफल हो रहा है। हजारीप्रसाद द्विवेदी और राममूर्ति त्रिपाठी आदि आचायार्ें ने अद्यतन भूमिका के योग्य काव्यशास्त्रीय स्थापनाओं की नयी व्याख्या दी, लेकिन साहित्य की रचना और आलोचना के क्षेत्र में यह उत्कृष्ट कार्य तेज रफ्तार जूझारु विचारों के बीच अलग-थलग पड़ा रहा, क्योंकि इन स्थापनाओं का राजनीति से सीधा संबन्ध नहीं है।
आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे से मुक्त साहित्य की स्वाधीन भूमिका रखनी हो तो साहित्य का मूल सृजन धर्म ही पर्याप्त है, किसी विचार-वाद की आवश्यकता नहीं है, परन्तु सामाजिक सरोकारों से जुड़ते ही आर्थिक और राजनीतिक विषयों से नाता बनने लगता है और विचार-वाद की जरूरत पड़ती है, इसी आवश्यकता की पूर्ति एकात्म मानव दर्शन करता है। यह दर्शन व्यक्ति के स्व, स्वभाव और स्वतंत्रता को इस हद तक अवसर देता है कि सृजन धर्म बाधित नहीं हो, साहित्य का सामाजिक सरोकार और सृजन की स्वतंत्र भूमिका बनी रहे, यह मार्क्सवादी आलोचकों की तरह समाजहित के नाम पर व्यक्ति के स्व को बाधित कर सृजन की शक्ति को राजनीतिक सफलता के लिए नहीं हाँकता है और ना ही परस्पर विद्वेष की विभेदक रेखा खींचता है। इस मार्ग में रचनाकर्मी नहीं, रचनाधर्मी होते हैं। साहित्यकार की भूमिका बनती है अपने समय और समाज के साथ जुड़कर इनमें अन्तर्निहित 'सनातन जयी' की पहचान करने-कराने से और उसका नवसृजन करने से। 'सनातन जयी' अज्ञेय की शब्दावली है। इसके गान में कवि का अनुभव, उसकी और सबकी आशा-आकांक्षा साझी रहती है, इसलिए यह गान सबके अस्तित्व में निहित सर्वदा विजयी रहनेवाले सनातन का ही होता है, चूँकि अन्तत: 'इदं न मम' ही सच है।
सृजन का आधार तो जनमन में सर्वव्याप्त नाद ही है- जो समय के अनेक अनुबन्धों में प्रकट होता है। उसका दायित्व है कि ऐहिक चकाचौंध में भूले विवेक को जगाकर मार्ग और कुमार्ग की पहचान कराए, तेज रफ्तार समय में बिखरते संबन्धों का रस-भाव सम्हाल सके, धरती पर प्राणी और प्रकृति के साथ मनुष्य के भविष्य को सुरक्षित रखने में सहयोगी हो। – डॉ़ प्रमोद कुमार दुबे
टिप्पणियाँ