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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बाल्यकाल से ही संस्कारित एवं प्रशिक्षित दीनानाथ जी का जीवन केवल बौद्घिक नेतृत्व प्रदान करने तक ही सीमित नहीं रहा। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार से विद्वता एवं विवेक को आधार बनाकर सामाजिक कार्य में भी सफल एवं सार्थक प्रयोग किये जा सकते हैं।
सनातन भारतीय जीवन दर्शन वैसे तो सरल, सहज और आसानी से ग्राह्य है परंतु सदियों के बौद्घिक क्षरण के कारण हिन्दू मानसिकता पर इतना गर्द चढ़ गया है कि अब सहज भी अत्यंत दुर्लभ हो चुका है। इस बौद्घिक गर्द को झाड़कर स्वयंस्फूर्त बुद्घि और विवेक को जागृत करने का कार्य संस्कारों से होता है। वर्तमान भारत के शिक्षा और संस्कार के क्षेत्र में उदीयमान सूर्य श्री दीनानाथ बत्रा ने सनातन भारतीय जीवन के मूल्यों को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त मस्तिष्क से समझने-समझाने का सफल प्रयास किया है। अध्यापक होने के नाते दीनानाथ जी का कार्य अधिकतर शिक्षा के क्षेत्र में रहा है परन्तु शिक्षा को उन्होंने न केवल ज्ञानवर्धन की सीमा से निकालकर विद्या, विवेक और संस्कारों के निर्माण का साधन बनाया वरन् उसके माध्यम से समस्त प्रकृति से समन्वित जीवन की रचना करने का मार्ग भी प्रशस्त किया है। 'तेजोमय भारत' के माध्यम से उन्होंने बचपन से ही राष्ट्र एवं समाज के प्रति अगाध श्रद्घा, प्रेम एवं समर्पण के भाव को जागृत किया है।
समाज के तथाकथित पढ़े-लिखे श्रेष्ठ वर्ग की भूमिका के विषय में उन्होंने स्पष्ट सनातन दृष्टि प्रस्तुत की है। बार-बार उन्हांेने इस सिद्घान्त की व्याख्या की है कि न तो बुद्घि का अभिमान(बुद्घिमान) होना चाहिए और न ही बुद्घि को जीविकोपार्जन का साधन बनने देना होगा (बुद्घिजीवी)। वास्तव में जागृत बुद्घि का तो अपना धर्म है जो प्रकृति के नियमों को भलीभांति समझकर नई पीढ़ी को समझाने और उसका परिष्कार करने का है। इसीलिए दीनानाथ जी बुद्घिमान एवं बुद्घिजीवी शब्दावलियों को नकारते हुए बुद्घिधर्मी शब्द का प्रयोग करना अधिक उचित मानते हैं। वास्तविकता यह है कि आदर्श बुद्घिधर्मी का प्रतिरूप दीनानाथ जी स्वयं हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बाल्यकाल से ही संस्कारित एवं प्रशिक्षित दीनानाथ जी का जीवन केवल बौद्घिक नेतृत्व प्रदान करने तक ही सीमित नहीं रहा। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार से विद्वता एवं विवेक को आधार बनाकर सामाजिक कार्य में भी सफल एवं सार्थक प्रयोग किये जा सकते हैं। अपने अध्यापन जीवनकाल में उन्होंने अनेकों प्रयोग करके विद्यार्थियों के व्यक्तित्व में समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध के संस्कार दिए हैं। अध्यापक जीवन के सभी सफल प्रयोगों को उन्होंने पुस्तिकाओं के रूप में लिपिबद्घ किया है और बचपन से ही भविष्य के राष्ट्र समर्पित सफल जीवन की नींव रखने की कार्यप्रणाली की विस्तृत व्याख्या की है। इसके लिए दीनानाथ जी मुख्य रूप से दो सिद्घान्त सूत्र रूप में प्राय: सभी को गुरुमंत्र की तरह देते हैं- दैनिक जीवन में देशभक्ति और दैनिक जीवन में आध्यात्म। दोनों के मिश्रण से जो व्यक्तित्व बनता है वह शुद्घ भारतीय आत्मा है।
दीनानाथ बत्रा जी भारतीयता के विषयों को भावनात्मक स्तर पर कम और तार्किक स्तर पर अधिक प्रस्तुत करते हैं। जन्मदिन पर बच्चे मोमबत्ती न जलाएं इसके लिए वे पश्चिम की प्रथा की निन्दा न करके बौद्घिक स्तर पर अनुचित सिद्घ करते हैं। विद्या की लालसा करने वाले शिक्षार्थियों के लिए संस्कृत का ज्ञान वे केवल इसलिए अनिवार्य नहीं मानते कि संस्कृत प्राचीन भारत की भाषा रही है परन्तु वे इसे इस आधार पर समझाते हैं कि प्राचीन भारतीय ग्रन्थ ज्ञान और विद्या के अनंत भण्डार हैं और उन तक पहुॅंचने के लिए संस्कृत का ज्ञान अनिवार्य है।
भारतीय समाज में भारतीयता के आधार पर ही जीवन रचना हो, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास है। जिसके लिए वे एक बौद्घिक योद्घा के रूप में भी उभरकर आए हैं। उन्होंने भारतीयता को मिथ्या प्रस्तुत करने वाली पुस्तकों, चाहे वे विदेशियों द्वारा लिखी गई हों या भारतीयों द्वारा, का सफल विरोध किया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज का प्रकाशक हिन्दुत्व और भारतीयता से संबंधित किसी पुस्तक के प्रकाशन के पूर्व यह विचार करना अनिवार्य समझेगा कि क्या इसकी विषय-वस्तु दीनानाथ बत्रा के मापदण्डों पर खरी उतरती है या नहीं। हिन्दुत्व विरोधी पुस्तकों का उन्होंने केवल विरोध ही नहीं किया परन्तु अपनी लेखनी से उनके विकल्प भी राष्ट्र को दिए हैं। अनेक राज्य सरकारों ने उनके परामर्श को मानते हुए विद्यालयों की शिक्षा में उनके द्वारा लिखित पुस्तकों का अध्यापन आरंभ किया है। इसे भविष्य के एक नए भारतीय समाज की रचना का शुभारंभ माना जा सकता है।
दीनानाथ जी की कार्यशैली में सक्रियता के तीन स्तर स्पष्ट होते हैं। प्रथम स्थान बौद्घिक सक्रियता का है जिसमें अध्ययन व श्रवण के आधार पर व्यक्तिगत स्तर पर चिन्तन और मंथन करने का आग्रह वे करते हैं। कई विद्वान इसे बौद्घिक जुगाली का नाम भी देते हैं। दीनानाथ जी ने सामाजिक सक्रियता को वैचारिक और बौद्घिक सक्रियता का आधार बनाकर प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि चिन्तकों की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका है परन्तु सभी विचारक समाज क्षेत्र में सक्रिय हों ऐसा संभव नहीं है। उन्होंने बौद्घिक कार्यकर्ता के सात गुण बताए हैं-
चिन्तन का स्वभाव, विचारों की स्पष्टता, शैक्षणिक दक्षता, सामाजिक सक्रियता के लिए जोश, संवाद के माध्यम से न केवल दिल जीतना परन्तु दिमाग भी जीतना, तर्क करने की निपुणता, खण्डन करने की क्षमता, समाज के अधिक शिक्षित वर्ग के बुद्घिधर्म की एक भूमिका दीनानाथ जी सामाजिक विमर्श के प्रसार में भी मानते हैं। पंचनद शोध संस्थान जैसी संस्थाओं की स्थापना और उनके कायार्ें में आपकी सक्रिय सहभागिता रही हैं। टेलीविजन की चर्चाओं में एंकर करने वालों के द्वारा विवाद एवं वितण्डावाद उत्पन्न करने की प्रवृत्ति की वे बारम्बार भर्त्सना करते हैं। उनका मानना है कि सामाजिक संवाद का रूप सत्संग के समान होना चाहिए जिसमें सुसंवाद के माध्यम से विषयों का विषलेषण हो विरोधी पक्ष का यथोचित मान-सम्मान विमर्श में रहे, स्वयंसेवक होते हुए अध्यापन, विद्या भारती, पंचनद शोध संस्थान, शिक्षा बचाओ आन्दोलन एवं शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास आदि अनेक संस्थाओं के माध्यम से दीनानाथ जी ने अपने राष्ट्र के भारतीयकरण के आन्दोलन को जो दिशा और योगदान दिया है वह अनुकरणीय है। भारतीयता विरोधी शक्तियांे के विरुद्घ दीनानाथ जी आज एक सफल बौद्घिक योद्घा एवं सामाजिक कार्यकर्ता की अडिग चुनौती के रूप में विद्यमान हैं। – प्रो़ बृज किशोर कुठियाला
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