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सुनहु तात यह अकथ कहानी।
समुझत बनत न जाय बखानी।।
कहानी शुरू हुई थी 15 अगस्त 1947 की ऐतिहासिक घड़ी में आज जब इस बहुप्रतीक्षित क्षण को याद करें तो हम को रावी तट पर नवोन्मेषी देश के आत्मगौरव की उजली प्रतिध्वनि के साथ सांप्रदायिकता में झुलसते कलकत्ते में एकाकी बैठे ईश्वर से सबको सन्मति देने की याचना करते राष्ट्रपिता और बंबई में एक 15 साल की अगवा की गई बेघर बच्ची को सांत्वना देती मृदुला साराभाई की व्याकुल करने वाली छवियां भी साथ- साथ दिखाई देती हैं। हर्ष और आस्था के साथ विकलता और विषाद की यह धारायें तभी से हमारे हर स्वतंत्रता दिवस का अंग रही हैं क्या यह द्वैत कभी खत्म नहीं होगा? हर आजादी दिवस के बाद यह राजकीय घोषणा, कि देश भर में मनाया गया जश्न ए आजादी बिना किसी अप्रिय घटना के संपन्न हुआ, मन को आहत करती है क्या साल दर साल येन-केन कायम रह पाना ही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है? क्या विश्व की लोकतांत्रिक चेतना बढ़ाने में हमारा कभी कोई भव्य योगदान होगा?
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अंतिम सवाल हमको एक अप्रिय सचाई, के सामने ला खड़ा करता है वह यह कि पिछले सात सौ बरसों में भारत की आम जनता के बीच राजनैतिक चिंतन की कोई बहुत लंबी और जुझारू परंपरा विकसित नहीं हुई। 1789 की क्रांति के बाद जब यूरोप के देश लोकतंत्र लाने के लिये कठोर गृहयुद्घ लड़ रहे थे, उनके चिंतक नये संविधान और विधि निषेधों की सामुदायिक विमर्श से रचना कर रहे थे, उस समय हम शेष दुनिया से कटे हुए 'कोउ नृप होउ हमहिं का हानी', की मानसिकता वाले गुलाम देश थे हमारी राजनैतिक चेतना का विकास होने में लगभग दो सौ साल और लगे। उसके बाद भी आज जब लोकतांत्रिक यूरोप से निकले 'फ्रीडम' शब्द का हम इस्तेमाल करते हैं तो वहां के लोकतांत्रिक आदशोंर्, आजादी, समता और भतृर्त्व (लिबर्टी, इक्वलिटी,फ्रैटर्निटी) की कोई साफ शक्ल अपने संदर्भ में लोगों के मन में नहीं उभरती। हममें से कइयों के मन को समाज में महिलाओं और हाशिये के कई समुदायों को बहुसंख्य समाज के सवर्ण पुरुषों के बराबर की आजादी मिलना आज भी पूरी तरह स्वीकार्य नहीं। उनको जाने क्यों भय है, यह वर्ग पारंपरिक पराधीनता से मुक्त किये जाने पर स्वैराचारी और उच्छृंखल बन जायेंगे। हमारे यहां मुक्ति की जो पारंपरिक भारतीय अवधारणा है वह इन झंझटों में ही नहीं पड़ती। उत्कट राजनैतिक राजनीति और सत्ता संघर्ष से गुजरने के बाद उसके तहत भौतिकता एक कपटी मायाजाल मात्र है। बताया जाता है कि राजा विदेह जैसे सत्पुरुषों ने भी अपनी मिथिला में आग लगने पर 'काठ की मिथिला जल भी जाये तो मेरा क्या' कह तटस्थ रहना बेहतर माना है। क्या ऐसी मानसिकता के बीच दैनंदिन राजकाज निवहन के लिये लोकतांत्रिक देश में नागरिक स्वतंत्रता के ठोस जमीनी आग्रहों और भारतीय मनीषा की आध्यात्मिक तटस्थता के बीच 2014 में कोई नया प्राणवान् समन्वय बनाया जा सकता है?
हां,आखिर बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भी तो तिलक के लेखों और फिर गांधी के सत्याग्रह ने तत्कालीन राज्य के कई बुनियादी विचारों के खिलाफ बगावत को प्रतिष्ठा दी, सड़ चुके कई सामाजिक विधि निषेधों को खुल कर खारिज किया और उसके बाद हम एक नई स्फूर्ति और उत्तेजना के साथ शेष विश्व के बीच अपनी जगह पहचानने को उतरे। हमको भी धीम-धीमे समझ आया कि पूंजीवाद की कोख से निकला साम्राज्यवाद का यह जुआ उतार फेंकना कितना जरूरी है,उसके बाद ही हम अपने लिये कोई वैकल्पिक सामाजिक तथा आर्थिक दिशा खोज सकेंगे। गांधी ने, विवेकानंद ने, आचार्य नरेंद्र देव ने साबित किया कि नये भविष्य का मतलब सचमुच जिंदादिल और निरंतर परिवर्तनशील भविष्य की खोज है,पुरानी परंपराओं की लकीर पीटते हुए सर झुकाये समय गुजारना नहीं। इस संदर्भ में अंग्रेजी और मैकाले महोदय की रची शिक्षा पद्घति को भी हमको पास से परखना होगा उसे कोसने वाले कई हैं और यह कोसना बेवजह भी नहीं किंतु स्वहित और उनके अनचाहे ही सही, अंग्रेजों की बिछाई रेलों, यातायात, डाक तथा बेतार सेवा, छापाखाने तथा पुलों नहरों और सरकारी इमारतों की वैज्ञानिक निर्माण प्रणालियों ने हमको कुछ स्थायी फायदे भी पहुंचाये हैं। उन्होने हमको शासन का एक ढांचा दिया जिसके तहत भारत के छप्पन अलग चूल्हों वाले बहुभाषाभाषी राज्यों में एक राष्ट्र होने का बोध जगा और जाति धर्म या भाषा विशेष तक जो सीमित नहीं रखी गई ऐसी सार्वजनिक शिक्षाप्रणाली ने भिन्न मनोविश्व तथा विज्ञान से भी हमको परिचित कराया। कालांतर में इस प्रणाली ने रामानुजन, विश्वेश्वरैया, भाभा और साराभाई सरीखे वैज्ञानिक तथा टैगोर, मालवीय, गिजूभाई सरीखे खांटी देसी शिक्षाविद् तैयार किये। और 1946 के बाद से संविधान निर्माताओं का भारत को एक लोकतांत्रिक छवि देने का काम आसान बनाया बाहरी ज्ञान और भाषाई थपेड़ों को हम जितना कोसें, किंतु उसी के भले बुरे टकराव से वह चेतना हममें जिसने हमको लगातार अपनी घोंघा खोल से मुंडी बाहर निकाल कर अपनी गुलामी की, अपने समाज तथा भाषाई संप्रेषण क्षमता की बार-बार निर्मम समीक्षा करने को बाध्य किया। इसके बाद ही हमने सात समंदर पार की बाहरी दुनिया के बीच उपनिवेशी दासता का सार्थक विरोध करना सही तरह सीखा, ज्ञान विज्ञान तथा शिक्षा के क्षेत्र में अपनी तथा अपनी भाषाओं की सार्थकता तलाशी और जब गांधी, तिलक तथा गोखले सरीखे नेता तथा विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, टैगोर, फुले तथा राममोहन राय जैसे विद्वान् समाज सुधारक समाज सुधार के ठोस कार्यक्रमों सहित सामने आये तो उनका बढ़ाया हाथ थाम कर एकजुटता से देश की आजादी की लड़ाई लड़ी।
आज 67 बरस बाद जाति धर्म के प्रतीकात्मक घरेलू झगड़ों से जलते राज्यों और उस आग पर राजनैतिक रोटियां सेंकते दलों की घटिया राजनीति देखकर लगता है कि अरे, हम तो कहीं फिर पीछे खिसकने लगे हैं। क्या यह अजीब नहीं। गिरती सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण से शहरी व ग्रामीण सब परेशान हैं पर हमारे छात्र और नागरिक सड़कों पर अक्सर तब हंगामा काटते हैं जब उनकी किसी निजी शिक्षण संस्थान में फीस बढ़ोतरी हो या किसी अस्पताल में उनके अपने परिजन की मौत हो जाये। मजहबी जगह की दीवार उठाने या गिराने को लेकर हम गोली खाने को उतर आ सकते हैं पर भ्रूणहत्या, महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा या लाखों किसानों की आत्महत्या पर कोई स्वत:स्फूर्त बड़ा जनांदोलन शायद ही उठता हो। हाल में कई परीक्षार्थी और पुलिस भिड़े, कारें फुंकीं, लोग घायल हुए, संसद में हल्ला मचा तो भी किस बात पर? कि अखिल भारतीय आइ.ए.एस. मुख्य परीक्षाओं से पूर्व परीक्षार्थी की रुझान मापने वाली परीक्षा में हिंदी माध्यम वाले छात्रों के लिये 22 अंक के 8 अंग्रेजी सवाल खत्म हों। अखिल भारतीय सेवाओं के लिये सिर्फ एक ही भाषा के जानकार क्या पर्याप्त अर्हता रखते हैं ? यह सवाल पूछने से पहले ही सारी बहस हिंदी बनाम अंग्रेजी की बना दी गई है।
दरअसल आजादी के 67 साल के बाद भी हम लोग लोकतंत्र में विषमता से जुडे़ असल मुद्दों की बजाय सिर्फ चंद प्रतीकों पर किस तरह झगड़ रहे हैं,हिंदी पट्टी आज इसका ज्वलंत उदाहरण है,इस पट्टी का राजनीति से अर्थनीति तक में निश्चय ही कांटे का वजन है। यह भी हम मान लेते हैं कि साक्षरता बढ़ने के साथ आज हिंदी अखबार लाखों में बिक रहे हैं, यहां के वासी देश भर में उद्योगों की तरक्की में योगदान दे रहे हैं। पर खुद हिंदी पट्टी के यह 11 राज्य जो अपने भाषाई हक पर इतने मुखर हैं । हर तरह के भ्रष्टाचार, जातिवाद, सांप्रदायिकता और अराजकता का शर्मनाक अखाड़ा भी हैं। 2014 के चुनावों में जब बडे़-बडे़ अंग्रेजी चैनल भी हिंदी बोलते दिखे, तब से मीडिया में, मनोरंजन जगत में हिंदी का दर्जा बहुत बढ़ गया। पर हिंदी वाले भुनभुनाते रहते हैं कि हिंदी माध्यम से शिक्षित लोगों का बड़ी नौकरियों में चयन घट रहा है, कि हम अंग्रेजी के सांस्कृतिक गुलाम बन रहे हैं। बात हिंदी की नहीं योग्यता की, पद विशेष के लिये आवश्यक अर्हता की है। यहां हिंदी पट्टी के मन का चोर साफ नजर आता है। हिंदी के नाम पर हाय-हाय करने वाला यह क्षेत्र 60 के दशक के बाद से लगातार अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई का दीवाना बनता गया है। लाख कष्ट सह कर भी उसके मुखर मध्यवर्ग का हर अभिभावक अपने बच्चे को निजी स्कूल भेज कर अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़वाता है। ऐसे लोगों में हिंदी के अध्यापक, प्रकाशक और लेखक तथा हिंदी माध्यम से लोकसेवा परीक्षा पास कर चुके नौकरशाह और सामाजिक न्याय के मुखर समर्थक नेता तक सभी शामिल हैं ऐसे उदाहरण कम नहीं जहां सरकारी अफसर अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से विहीन इलाकों में पोस्टिंग से बचते फिरते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य खराब न हो जाये। जो इस बंदरबांट में गरीबी या किसी और कारण से शामिल नहीं हो पाते वे सड़कों पर जाम लगाकर भारतीय भाषाओं के लिये नहीं, सिर्फ हिंदी के लिये ही हाय-हाय के नारे लगाते हैं। जवाब में दक्षिण भारत और बंगाल एडवांस में हिंदी थोपे जाने का विरोध शुरू कर दंे तो फिर रोना काहे का? इस सारे दोहरे खेल से हिंदी के असली प्रेमियों का ही नहीं केंद्रीय सरकार का रास्ता भी सचमुच दुविधामय बन गया है। यह सही है कि 26 जनवरी 1950 को गिनेचुने अंग्रेजी पढे़ लोगों वाली नौकरशाही और रहस्यमूलक राज को नकार कर 44 फीसद लोगों की भाषा को राजभाषा का दर्जा देना तय किया गया था। पर एक संघीय गणराज्य में हिंदी को अंग्रेजी से अधिक विदेशी मानने वाले अहिंदीभाषी राज्यों के अलगाव का खतरा भांप कर यह भी जोड़ा गया था कि अहिंदीभाषी राज्यों की सहमति इसके लिये अनिवार्य होगी। हिंदी को राजभाषा बनाने के मुद्दे पर केंद्र यही उम्मीद कर सकता है (शायद कर भी रहा है) कि जिस तरह बालीवुड फिल्मों तथा अखिल भारतीय स्तर पर उत्तर भारतीयों ने देश के अहिंदीभाषी राज्यों में जा बसने के क्रम ने हिंदी को चुपचाप शांतिमय तरीके से फैलाया और विरोधी स्वरों को नर्मा दिया है, वह प्रक्रिया आने वाले समय में खुद ही इस विरोध को चुपचाप समाप्त कर देगी। एक विविधतामय जिरहपसंद लोगों के लोकतंत्र में यही समदर्शी नीति अपनाकर शांति तथा एकता बरकरार रखी जा सकती है। जिस समय इतने आक धतूरे और भटकटैया चारों तरफ उगे हों, फूटपरस्ती का एक और कांटेदार बिरवा जबरन रोपना देश को नई दिक्कतों से घेरना ही होगा।
पैरोकारों की नासमझी और विरोधियों की असहजता के चलते हिंदी की ही तरह हिंदू राष्ट्रीयता का मसला भी विस्फोटक बन चुका है। इस आशय के कई लेख और चर्चे लगातार सामने आते हैं कि बिना हिंदूराष्ट्र बने भारत अपना सही व्यक्तित्व विश्व पटल पर हासिल नहीं कर सकता,लेकिन धर्मनिरपेक्षता का उसूल त्याग कर बहुसंख्यवाद को ही छवि का पैमाना बनाना पाकिस्तान की कार्बन कॉपी बनना होगा अनेक जाति संप्रदायों में बंटे बहुसंख्यक समुदाय धर्म के नाम पर बनते ही बिखरने लगते हैं। इसके कई उदाहरण एशिया में पाकिस्तान से लेकर इराक तक फैले हैं। कहीं सुन्नी बनाम शिया बनाम वहाबी हैं तो कहीं सुन्नी बनाम अहमदिया या बोहरा आदि। धर्म के प्रतीक की ओट में लड़ी गई राजनैतिक लड़ाइयों ने धर्म को तो कलंकित किया ही, अफगानिस्तान से ईरान तक लोकतंत्र का भी भट्टा बिठा दिया है। ऐसा राष्ट्र यदि भारत भी बनने चला तब तो हमारे पास कश्मीर या नागालैंड जैसे राज्यों को साथ रखने का हक कैसे रह जाता है? वस्तुत: हिंदू धर्म की खूबसूरती यही है कि वह कोई कठोर, इकरंगा किताबी धर्म नहीं रहा। वह कई जातीय, उपजातीय वफादारियों, और आस्तिकता से नास्तिकता तक को जायज माननेवाले संप्रदायों को अपना मत पालन करने की सहज स्वीकृति देने वाला, नाना रीति-रिवाजों तथा नये-पुराने देवपरिवार को लिये दिये दुनिया भर के धमोंर् की वैचारिक आजादी का सम्मान करनेवाला विचार पुंज है, जिसका निचोड़ तुलसी बाबा के शब्दों में यही है,
परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।
यही करुणा और सहआस्तित्वमय आत्मविश्वास भारत के बहुसंख्यक समुदाय की सबसे बड़ी ताकत और उसकी राष्ट्रव्यापी तथा स्थायी स्वीकार्यता की गारंटी रही है । कालातीत कुदरती नियमों उपनियमों से बने ऐसे धर्म को सामयिक राजनीति की जरूरतों को तुरत-फुरत निपटाने के लिये सामाजिक राजनैतिक इंजीनियरिंग का माध्यम बनाना उसकी मूल प्रति का असम्मान करना है। भौतिक धन कमाई के लोभ से हिमालय के असम्मान ने केदारघाटी में अपना क्रोध व्यक्त कर ही दिया है। पृथ्वी पर एक मानदंड की तरह खड़ा हिंदू धर्म का हिमालय भी राजनीति द्वारा जबरन इस्तेमाल कभी नहीं सहेगा। हम को यह स्वीकार करना चाहिये कि कोई भी सफल आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र एक ऐसी कृत्रिम इमारत ही होगा,जो स्थान काल पात्र के हिसाब से लगातार बनता और पुनर्गठित किया जाता रहेगा उसे टिकाऊ रखने के लिये सत्ता को जो जमीनी औजार चाहिये वे भी पीढ़ंी दर पीढ़ी बदलते रहते हैं। कभी अपने यहां तैयार होते हैं कभी ( संविधान की तरह) बाहर से आयात कर लिये जाते हैं। हर सफल शासक वर्ग को आज हजारों तरह के भौतिक राजनय साधने पड़ते हैं। पर सबका बुनियादी तकाजा होता है कि भारतीय लोकतंत्र की कमान जिस किसी भी दल के हाथों में रहे, वह भारत के सैकड़ों रंगतों के जातिवादी और धार्मिक आग्रहों के बीच मजबूत वफादारियां गढे़ और शासन को सर्वधर्म समभाववादी बनाये रखे।
जाति या मजहब विशेष के बीच बने वोटबैंक अब (ईश्वर को धन्यवाद है) एकल सत्ता में आने की दृष्टि से नाकाफी साबित हो रहे हैं और उन येन-केन बने और संविधान की आत्मा का कई बार हनन करते हुए चलाये गये गठजोड़ों का ऋण 2014 में देश ने पठानी ब्याज के साथ चुका दिया है, लेकिन चुनौतियां अभी भी कई हैं। प्रमुख विपक्षी दल के रूप में किसी अन्य दल की औपचारिक ओवरड्राफ्ट लायक साख भी नहीं बची दिखाई देती, पर लोकतंत्र को कुतरने वाली प्रशासनिक भ्रष्टाचार, जमाखोरी, महिलाओं के साथ यौन शोषण करनेवाली बहुत सारी ताकतें आज भी अपराजेय बनी हैं। चुनावों में अकूत खर्च हुआ है, जिसका भरोसेमंद जवाब देना जरूरी नहीं समझा जा रहा। महंगाई नित नये प्रतिमान बना रही है, पर उस बाबत वाले नये मंत्रियों का मुंह बंद है। कहा जा रहा है कि वे नया पदभार संभालने या विदेश यात्राओं में व्यस्त हैं। सत्यनारायण कथा के कलावती कन्या के पिता की तरह यह कैसी कार्यव्यस्तता है कि हमारे मतों से चुने गये बंदे हमसे ही किये जरूरी वादों को पूरा करना लगातार टालते रहें? मतपेटी में जनता का यकीन भले बहाल हुआ हो लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति और नेताओं पर भी उनका यकीन वापस लौटे इसके लिये जरूरी है कि नई सरकार अब कम से कम वह तो प्राप्त करके दिखाये जो खुद उसके अनुसार संभव है। सिर्फ पैसे और सिफारिश तथा संपकोंर् के जरिये चलने वाली एक राजनीति खत्म हुई है। पर इसके बाद जनता सहज ही चाहेगी कि नई सरकार की प्रशासकीय जवाबदेही भी तो बढे़। नौकरशाही में बिना सुधार लाये उसको ही तमाम कार्यक्रमों के कार्यान्वयन का काम सौंपने के जो संकेत मिल रहे हैं, उनमें सीधी समयबद्घ जवाबदेही कहां है? अलबत्ता सचिवों को दफ्तरों में कम से कम लोगों से मिलने के आदेश दे दिये गये हैं। ऐसी दशा में घटिया सार्वजनिक निर्माण कायोंर् की, दफ्तरों में बेवजह फाइलें भटकने की, समय पर राशन-पेंशन न पाने की, वर्दीधारी बलों द्वारा महिलाओं से बदसलूकी से जुड़ी लगभग हर शिकायत के बाद पीडि़त जनता जब जहांगीरी घंटा बजाने मंत्रालयों की तरफ जाये तो शिखर पर उत्तरदायित्व की शून्यता पाकर गुस्सा कम कैसे होगा? यहां यह भी गौरतलब है कि शीर्ष प्रशासनिक पद के लिये चयन परीक्षाओं में अपने लिये माकूल भाषाई माध्यम को लेकर जो लोग इन दिनों सड़कों पर धरने दे रहे हैं, वे भी अपने ही हित स्वार्थ बखान रहे हैं। प्रशासन तंत्र के भ्रष्ट, जनविरोधी और अमानवीय तेवरों पर सब खामोश हैं और बस अपनी ही शिकायतें जल्द दूर करवाने के आग्रही,उनको पुचकारने वाले भी नहीं देख रहे कि किसी कदर उजड्ड, एक ही भाषा से देश-विदेश में उच्च प्रशासकीय काम चलाने की क्षमता का दावा करनेवाले यह परीक्षार्थी जब अखिल भारतीय प्रशासन सेवा में चयनित हो भी गये तो शेष दुनिया के ज्ञान भंडार तथा उन्नत सूचना तकनीकी के सदुपयोग में वे कितनी क्षमता का प्रदर्शन करेंगे? अहिंदी भाषी क्षेत्र में काडर मिलने मात्र से हिंदी बोलने वाले अफसर केवल क्षेत्रीय भाषा समझने वाली जनता के साथ कितनी समझदारी और संवेदनशीलता से पेश आयेंगे? शायद तब वे फिर मांग बुलंद करेंगे कि उनको दुभाषिये त्रिभाषिये और अतिरिक्त उत्तरभारतीय स्टाफ भी मिले यह क्या बेवकूफी है? 15 अगस्त 2014 को भारत के सामने जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा है वह यह, कि सोशल मीडिया की बढ़ती पैठ से निरंतर बदल रही दुनिया के बीच इतनी बड़ी युवा आबादी वाला हमारा यह देश अपनी सार्थक राष्ट्रीय अस्मिता किस तरह खोजे और शेष देश के नागरिकों के प्रति अधिक सदय और मित्रवत् व्यवहार करना सीखें? हम मानें कि नहीं, विविधता, क्षेत्रीयता और सहिष्णुता हमारे लोकतंत्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं और रहेंगे। और हमारी राष्ट्रीयता से जुड़े तमाम सवालों और सीमावर्ती अलगाववाद जैसी समस्याओं के निदान भी अंतत: इन्हीं में गुण छिपे हैं। वोट बैंक के तुष्टीकरण के लिये शासक और प्रशासक किस तरह शहरी मध्यवर्ग को (उसमें भी नव मध्यवर्ग को) तुष्ट करें या मुर्झाते कृषि क्षेत्रवाले गांवों को कापार्ेरेट भारत की जल जंगल जमीन की बढ़ती क्षुधा से सुरक्षित बनायें? महिलाओं या किसी भी अल्पसंख्यक गुट का न्यायसंगत आरक्षण किन आधारों पर हो? इस तर्क श्रृंखला का गणित हमको ईमानदारी से समझना होगा। टुकड़ा-टुकड़ा तुष्टीकरण दलों को चुनाव भले ही जितवा दे, पर जीत के बाद चुनावी ललीपपों से चटोर बन गये आक्रामक गुटों तथा पत्थर फेंक रहे वंचित विद्रोही दस्तों के बीच खड़ा कोई लोकतंत्र सच्चे अथोंर् में लोक का तंत्र नहीं बन सकता ।
लेखिका शीर्ष पत्रकार, साहित्यकार एवं प्रसार भारती की पूर्व चेयरमैन हैं।
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