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हरियाणा में अक्तूबर में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की दुर्गति होने जा रही है। लोगों का ध्यान अपनी सरकार की असफलताओं से हटाने के लिए मुख्यमंत्री हुड्डा ने सिख पंथ पर कुठाराघात किया है। कांग्रेस के इस कदम को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हमें आशा है कि नए राज्यपाल व केन्द्र सरकार इस विषय पर न्याय करेगी। -सुखबीर सिंह बादल, उप मुख्यमंत्री, पंजाब
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर प्रस्ताव पारित करना राज्य के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। केवल संसद में ही इस सम्बंध में कोई प्रस्ताव पारित किया जा सकता है। एस.जी.पी.सी. को लेकर हरियाणा सरकार का कृत्य असंवैधानिक और असहनीय है।
-जत्थेदार अवतार सिंह मक्कड़, अध्यक्ष, एसजीपीसी
शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने सदैव हरियाणा के सिखों के साथ भेदभाव किया है। हरियाणा के सिखों को एस.जी.पी.सी. में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इसके साथ ही हरियाणा के शिक्षण संस्थान और गुरुद्वारे भी उपेक्षित हैं। हरियाणा के सिखों को यह संवैधानिक अधिकार है कि वे अपने गुरुद्वारों की देखरेख व सेवा-संभाल खुद करें।
-प्रताप सिंह बाजवा, अध्यक्ष, कांग्रेस ,पंजाब
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी व गुरुद्वारों की देखभाल आदि विषय सिख पंथ के आंतरिक विषय हैं। किसी राजनीतिक दल को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। कांग्रेस पार्टी को पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत का पालन करते हुए यह विषय पंथ पर छोड़ देना चाहिए और समाज में किसी भी तरह के विभाजन के प्रयास को त्याग देना चाहिए।
-कमल शर्मा, अध्यक्ष, भाजपा, पंजाब
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एस.जी.पी.सी.) को लेकर इन दिनों हरियाणा और पंजाब की राजनीति गरमाई हुई है। उल्लेखनीय है कि 7 जुलाई को हरियाणा विधानसभा ने हरियाणा के लिए अलग एस.जी.पी.सी. के गठन का प्रस्ताव पारित कर दिया है। इस प्रस्ताव के अनुसार हरियाणा के गुरुद्वारों पर अब शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (अमृतसर) का नियंत्रण नहीं रहेगा। हरियाणा के गुरुद्वारों का संचालन ह.शि.गु.प्र.स. (हरियाणा शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति) करेगी और सरकार इस सम्बंध में जगदीश सिंह झींडा के नेतृत्व में तदर्थ समिति का गठन कर चुकी है। दूसरी ओर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर व राज्य में सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने इस विभाजन का यह कहते हुए तीव्र विरोध किया है कि इससे सिख पंथ की शक्ति विभाजित होगी और समाज में टकराव पैदा होगा। एस.जी.पी.सी. और शिरोमणि अकाली दल (शिअद) का आरोप है कि अक्तूबर में हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनाव में राजनीतिक लाभ लेने के लिए वहां की हुड्डा सरकार ने यह कदम उठाया है और सिख पंथ में दरार पैदा करने का प्रयास किया है।
उल्लेखनीय है कि हरियाणा में लगातार दस वर्षों से शासन कर रहे मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को इस समय जबरदस्त सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना पड़ रहा है और उनके साथी ही उनके लिए रोज नई-नई मुसीबतें खड़ी कर रहे हैं। हरियाणा में सिख मतदाताओं की संख्या 47 लाख के लगभग है, जिन पर अकाली दल का काफी प्रभाव है। लोगों का कहना है कि हरियाणा के सिखों को अपने गुरुद्वारों का आप संचालन करने के भ्रमजाल में फांस कर हुड्डा वोटों की फसल काटने के प्रयास में हैं।
इस बीच 16 जुलाई को श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह ने पंथ विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के कारण हरियाणा के वित्त मंत्री हरमोहिंद्र सिंह चट्ठा, जगदीश सिंह झींडा व दीदार सिंह नलवी को पंथ से निष्कासित कर दिया है।
इस पूरे मामले को लेकर पंजाब की राजनीति में तल्खी इतनी बढ़ गई है कि अकाली दल (बादल) ने 27 जुलाई को अमृतसर में व हरियाणा के सिखों ने 28 जुलाई को करनाल में विश्व सिख सम्मेलन बुलाने का आह्वान किया, परंतु सहारनपुर में मुस्लिम-सिख दंगों के चलते अकाल तख्त साहिब ने हुक्मनामा जारी कर इन्हंे निरस्त कर दिया। शिअद के नेता इस मामले को लेकर केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह सहित अनेक नेताओं से मिल चुके हैं। इसके बाद केन्द्र सरकार ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने हरियाणा सरकार को पत्र लिख कर केन्द्र सरकार के आदेश को मानने का परामर्श दिया है। अकाल तख्त साहिब ने एक अन्य हुक्मनामा जारी कर हरियाणा के गुरुद्वारों का संचालन एस.जी.पी.सी. के हाथों में ही रखने के निर्देश दिए हैं। फिलहाल दोनों पक्षों की ओर से बयानबाजी जारी है और राज्यों का वातावरण गरमाया हुआ है। इस बीच फतेहगढ़ साहिब के एक निवासी राम सिंह सोमल ने पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर एस.जी.पी.सी. का विभाजन रोकने का आग्रह किया है। न्यायालय ने दोनों पक्षों को नोटिस जारी कर 5 सितम्बर तक अपने पक्ष रखने को कहा है।
इतिहास
आज से लगभग 90 वर्ष पूर्व भारत के गुरुद्वारों का संचालन निजी हाथों में था, जिसे स्थानीय भाषा में 'महंत' कहा जाता था। इन महंतों के नेतृत्व में गुरुद्वारों में फैली कथित अव्यवस्थाओं व भ्रष्टाचार से सिख समाज में असंतोष रहता था। गुरुद्वारों का संचालन प्रत्यक्ष रूप से समाज के हाथों में लेने के लिए पहला प्रयास 16 नवंबर, 1920 को हुआ जब सिख विद्वान एकजुट होकर बैठे। इस बैठक में महंतों से गुरुद्वारों को मुक्त करवाने के लिए स्थानीय व्यवस्था के साथ-साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष करने का निर्णय लिया गया। सिख समाज ने जगह-जगह प्रदर्शन किए। सरकारी रिकार्ड के अनुसार, देश के विभिन्न हिस्सों में चले इन प्रदर्शनों में लगभग 600 लोगों ने अपना बलिदान दिया और हज़ारों लोग घायल हुए। हज़ारों लोगों को अंग्रेज़ सरकार ने काल-कोठरियों में बंद कर दिया। इन प्रदर्शनों में उस समय कांग्रेस ने भी सिख समाज का साथ दिया और स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू जैतो के प्रदर्शन में शामिल हुए और गिरफ्तारी दी। जेलों में बंदियों पर तरह-तरह के जुल्म ढहाए गए, परंतु संघर्ष निरंतर चलता रहा। अंतत: हार मानते हुए सरकार ने सिख गुरुद्वारा अधिनियम बना कर गुरुद्वारों का संचालन सिख समाज के हाथों में देना स्वीकार कर लिया। 1 नवम्बर , 1925 को यह अधिनियम लागू हुआ और महात्मा गांधी ने भी इसे स्वतंत्रता संग्राम की पहली विजय बताया।
15 अगस्त, 1947 को देश का विभाजन हुआ तो ननकाना साहिब, करतारपुर साहिब, पंजा साहिब सहित अनेक बड़े गुरुद्वारे भारतीयों के हाथों से छिन गए। स्वतंत्र भारत में 28 मई, 1948 को एस.जी.पी.सी. की पहली बैठक हुई। इसमें जत्थेदार उधम सिंह नागोके को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, 1955 को हुए एस.जी.पी.सी. के पहले चुनाव में मास्टर तारा सिंह भारी बहुमत से जीते। उनके अध्यक्ष बनते ही राज्य में पंजाबी बाहुल्य इलाकों को अलग कर पंजाबी सूबा (राज्य) बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी।
1 नवंबर, 1966 को पंजाब बना। इसके साथ ही हरियाणा व हिमाचल प्रदेश नामक दो नए राज्य अस्तित्व में आए। 1970 में एस.जी.पी.सी. के अगले चुनाव होने थे। समिति की कार्यकारिणी ने कई बार केन्द्र सरकार को प्रस्ताव पारित करके आग्रह किया कि सिख गुरुद्वारा अधिनियम की भावना के अनुरूप पंजाब के साथ-साथ हरियाणा व हिमाचल प्रदेश में भी चुनाव करवाए जाएं और इन राज्य सरकारों को पंजाब सरकार से सहयोग करने को कहा जाए।
विभाजन के प्रयास
जब पंजाब और हरियाणा में कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता घटने लगी तो उसने एस. जी. पी. सी. को बांटने का षड्यंत्र रचा। पंजाब में अकाली दल और जनसंघ एक मजबूत राजनीतिक शक्ति बन कर उभर चुके थे। ऐसे में गांधी परिवार के विश्वस्त रहे हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल ने राज्य में सिख गुरुद्वारा अधिनियम को लागू न करने, एस.जी.पी.सी. के राज्य में अधिकार समाप्त करने, हरियाणा के लिए अलग गुरुद्वारा बोर्ड बनाने के बयान दागने शुरू कर दिए।
इसके विरोध में 26 नवंबर, 1970 को जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहरा की अध्यक्षता में एस.जी.पी.सी. की महासभा में समिति के वरिष्ठ उपाध्यक्ष किरपाल सिंह शेरेचक ने प्रस्ताव पारित करके चेतावनी दी कि जिस सिख गुरुद्वारा अधिनियम को इतने बलिदानों के बाद अस्तित्व में लाया गया उस पर कुठाराघात को स्वीकार नहीं किया जाएगा और चौधरी बंसीलाल या केन्द्र सरकार (कांग्रेस सरकार) के पृथकीकरण के प्रयासों को सिखों के मामले में हस्तक्षेप माना जाएगा। लेकिन इस चेतावनी के बावजूद कांग्रेस पार्टी के नेताओं की शरारतें जारी रहीं।
इस पर 23 अक्तूबर, 1972 को एस.जी.पी.सी. की महासभा में जत्थेदार रवेल सिंह एडवोकेट ने प्रस्ताव पेश कर केन्द्र की तत्कालीन सरकार को स्मरण करवाया कि पंजाब पुनर्गठन अधिनियम (1966) में स्पष्ट कहा गया है कि पंजाब के विभाजन के बाद सिख गुरुद्वारा अधिनियम 1925 की सीमा को घटाया नहीं जाएगा। अर्थात् नए प्रांत हरियाणा व हिमाचल प्रदेश सिख गुरुद्वारा अधिनियम (1925) की पुरानी व्यवस्था के अधीन रहेंगे। इस प्रस्ताव को केन्द्र के पास भेजा गया, ताकि पंजाब व हरियाणा सरकारों को इस सम्बंध में निर्देश दिए जा सकें, परन्तु केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस विषय को लटका दिया। कुछ समय बीतने के बाद हरियाणा ने एस.जी.पी.सी. के जत्थेदार रवेल सिंह के प्रस्ताव का विरोध करते हुए अलग से गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की मांग करनी शुरू कर दी।
विभाजन का अर्थ
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी को सिखों की 'लघु संसद' भी कहा जाता है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि पंजाब व इसके पड़ोसी राज्यों की पांथिक व सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ इसका राजनीति में महत्व कितना है। एस.जी.पी.सी. का वार्षिक बजट 1000 करोड़ रुपए के लगभग है, जो किसी छोटे राज्य की अर्थव्यवस्था के बराबर है। इसके अतिरिक्त सैकड़ों शिक्षण संस्थान, पांथिक स्थल, सामाजिक केन्द्र इसके अंतर्गत काम करते हैं। इसे पंजाब की विशेषकर अकाली राजनीति का शक्ति केन्द्र कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
कांग्रेस का यह प्रयास रहा है कि पंजाब के साथ-साथ इसके पड़ोसी राज्यों में अपने परंपरागत विरोधी अकाली दल को कमजोर करने के लिए एस.जी.पी.सी. को विभाजित कर दिया जाए। विभाजन से अकाली दल (बादल) कमजोर होगा, क्योंकि विभाजित धड़ों का कांग्रेस अपने राजनीतिक हितों के लिए प्रयोग करेगी। पहले भी कांग्रेस ऐसा करती रही है।
दिल्ली की राजनीति में परमजीत सिंह सरना के नेतृत्व वाला अकाली दल इसका उदाहरण है और सरना बंधु कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के नजदीकी माने जाते हैं।
-राकेश सैन
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