|
लोकसभा के चुनाव हुए काफी समय हो गया; पर उसके बाद के कार्यक्रम अभी जारी हैं। कहीं स्वागत समारोह और जीत का विश्लेषण हो रहा है, तो कहीं हार का पोस्टमार्टम; लेकिन इस बीच किसी को उन दीन-हीन वामपंथियों का ध्यान नहीं आया, जिनके नगाड़े कभी बंगाल में गंूजते थे। अब तो उनकी कुछ जमीन बस त्रिपुरा में ही बची है। वहां खड़े होकर चाहे नारे लगा लें या एक-दूसरे के आंसू पोंछ लें।
वैसे तो भारत में कितने वामपंथी दल हैं, यह गूगल बाबा भी नहीं बता सकते। ईश्वर ने इन्हें ऐसे अशुभ मुहूर्त में बनाया है कि ये लड़ने के लिए ही मिलते हैं और टूटने के लिए ही बनते हैं। इनकी दुनिया अजीब है। कुछ पर्दे के आगे रहकर काम करते हैं, तो कुछ पीछे। कुछ कलम को हथियार समझते हैं, तो कुछ हथियार रूपी कलम में निदार्ेषों का खून भरकर क्रांतिकारी गीत लिखते हैं। किसी का खुदा मार्क्स है, तो किसी का लेनिन, स्टालिन, चे ग्वारा, माओ या कोई और; पर इतना निश्चित है कि उनके खुदा हैं भारत से बाहर ही।
पिछले दिनों ज्योति बसु की जन्मशती मनाई गयी। इस बहाने सब वामपंथी मिले। जीते हुए दोनों सांसदों ने एक-दूसरे के गले में माला डाली। हारे हुओं ने भी उन्हें हार पहनाये। कमरे में ए़सी़ लगा था। एक जमानत जब्त नेता बोला कि हम सब ए़सी़ में रहकर ठंडे हो गये हैं। अब हमें तन और मन में गर्मी लानी होगी। उसके सुझाव पर सब लोग छत पर जा बैठे; पर पांच मिनट में ही चर्बी पिघलने लगी, तो फिर नीचे ए़सी. की ठंडक में आ गये।
जैसे-तैसे बैठक की कार्यवाही शुरू हुई, पर वह इतने धीमे स्वर में हो रही थी, मानो कोई 'शोकसभा' हो रही हो। कोई किसी की बात सुनने के मूड में नहीं था। आखिर सब पिटे हुए मोहरे जो ठहरे। एक ने कहा कि अब लोकसभा में तो हमारी आवाज गूंजेगी नहीं, तो क्यों न इसे ही लोकसभा मान लें। सुझाव सबको जंच गया। उन्होंने इस आभासी लोकसभा में एक ऐसे नेता को अध्यक्ष बनाया, जो कभी कोई चुनाव लड़ा ही नहीं था। उपाध्यक्ष जो महापुरुष बने, वे लड़े तो कई बार, पर जीते कभी नहीं थे।
अध्यक्ष ने सबको दो भागों में दायें और बायें बैठने को कहा; पर यहां फिर झगड़ा होने लगा। कोई दायीं ओर बैठने को तैयार नहीं था। उनका कहना था कि जब हम जन्म और कर्म दोनों से वाममार्गी हैं, तो दायीं ओर क्यों बैठें ? अध्यक्ष ने कहा कि सदन में सत्तापक्ष दायीं ओर तथा विपक्ष बायीं ओर बैठता है। यह सुनते ही सब दायीं ओर जा बैठे। अब कोई बायीं ओर आने को राजी नहीं था। सत्ता न सही; पर उसकी कल्पना में जीना भी क्या बुरा है ?
इस झगड़े के बीच चाय वाला सबको काली चाय दे गया। उसने साफ कह दिया कि जब तक पिछले पैसे नहीं मिलेंगे, वह बिना दूध और चीनी वाली चाय ही देगा।
चाय पीते ही एक नयी महाभारत छिड़ गयी। बायीं ओर वाले अपने सामने वालों को 'दक्षिणपंथी' कहकर चिढ़ाने लगे। इससे वे भड़क गये। उन्होंने बायीं ओर वालों को नकली वामपंथी कह दिया। बस फिर क्या था; दोनों पक्ष अध्यक्ष के सामने आकर लड़ने लगे। सभापति ने बचाव करना चाहा; पर जो लड़ना छोड़ दे, वह वामपंथी कैसा ? जब मारपीट ने काफी जोर पकड़ लिया, तो सभापति महोदय से भी नहीं रुका गया। उन्होंने भी कुर्सी का एक हत्था उखाड़ा और पिल पड़े। लोकसभा मानो 'ठोकसभा' हो गयी, जिसमें पक्ष-विपक्ष का भेद भूलकर, एकात्म भाव से सब एक-दूसरे को ठोक रहे
थे। जब यह यादवी संग्राम शांत हुआ, तो कई के सिर फूट चुके थे और कई के हाथ या पैर। साबूत तो कोई बचा ही नहीं था। कई कुर्सियां भी खेत रहीं। अब तक तो उन्होंने दूसरों का खून बहाया था; पर आज जब अपना खून बहा, तो वे सोचने लगे कि आखिर हम इस तरह लड़े क्यों? काफी विचार के बाद निष्कर्ष यह निकला कि इस हंगामे का दोषी वह व्यक्ति है, जिसने लोकसभा बनाने को कहा था। उसे ढंूढा, तो पता लगा कि वह तो मारपीट शुरू होते ही खिसक गया था। एक बोला, ''जरूर वह मोदी का आदमी रहा होगा, जिसने हमारे घर में ही हमें बांट दिया।'' सबने इस पर सहमति व्यक्त की और उसके विरोध में प्रस्ताव पारित कर दिया।
इस प्रकार वह काल्पनिक लोकसभा क्रमश: ठोकसभा से होती हुई फिर असली 'शोकसभा' में बदल गयी। ऐसा लगता है कि इसे स्थायी 'रोकसभा' बनने से अब भगवान भी नहीं बचा सकते।
विजय कुमार
टिप्पणियाँ