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पिछले सप्ताह चीन में ईसाइयों की जनसंख्या में अपार वृद्घि का समाचार प्रकाशित होने के बाद दुनियाभर के लोग हैरान हैं। चीन से जिस तरह के समाचार आ रहे हैं उसके अनुसार चीन के सत्ताधारी भी हिल गए हैं, क्योंकि कुछ संस्थाओं ने ऐसा घोषित किया है कि प्रत्यक्ष रूप से ईसाई के तौर पर जनसंख्या में दर्ज न होते हुए भी वहां ईसाई लोगों की आबादी बीस करोड़ हो गई है। पूरा विश्व आमतौर पर यही समझता था कि चीन में अन्य पंथों के अनुयायियों की तरह ईसाइयों की संख्या भी दो से पांच करोड़ होगी एवं चीन में 'पंथ अफीम की गोली' है' की सीख पिछले 60-65 वषोंर् तक दिए जाने के कारण वहां तनाव का वातावरण होगा ही। लेकिन दो महीने पहले सर्वप्रथम आठ करोड़ का आंकड़ा सामने आया। बाद में 11 करोड़ का और अब कुछ संस्थाओं ने वहां 20 करोड़ ईसाई होने का दावा किया है।
चीन में ईसाइयों की संख्या की तुलना अमरीका के ईसाइयों की संख्या से की गई। आज अमरीका में ईसाइयों की संख्या 24।75 करोड़ है। चीन में सन् 2030 में यह आंकड़ा छूने के उद्देश्य के चलते आज वहां प्रत्यक्ष बप्तिस्मा कराए बिना, ईसाई बने लोगों की संख्या 20 करोड़ से अधिक होने का समाचार आने के कारण चीन सरकार का चौंकना स्वाभाविक ही है। अमरीका से भी अधिक ईसाई बनाने का उद्देश्य शायद अगले 4-5 वषोंर् में ही पूरा किया जा सकता है, ऐसा अब वहां के चर्च संगठनों को भी लग रहा है। इसकी पहली प्रतिक्रिया यह हुई है कि चीन में ईसाई मिशनरियों की गिरफ्तारी शुरू हो चुकी है। चीन में 'घर में चर्च' यानी 'होम चर्च' के उदाहरण अनेक स्थानों पर दिख रहे हैं। उन्हें भी ध्वस्त करने की शुरुआत हो चुकी है इसलिए 'घर के चर्च' में हल्की रोशनी की जाती है। वास्तव में किसी भी व्यक्ति के लिए उसमें आस्था होना आवश्यक होता है, इसलिए उस देश में व्यापकता के साथ जीवन का हिस्सा बने मत की वृद्घि को अवसर देकर चीन सरकार को इस विषय को संभालना था। लेकिन उनकी प्रतिक्रिया अभी भी कम्युनिस्ट सरकार के अनुरूप है। इसमें भी एक अर्थ है। इसका कारण यह है कि पिछले 500 वषोंर् में यूरोपीय देशों को विश्व में लाखों करोड़ों रुपए की लूट करने में इस चर्च ने मदद की है। जितनी गंभीर बात आर्थिक लूट की है उतनी ही गंभीर मानसिकता गुलाम बनाने की भी है। अगर इन पश्चिमी देशों को फिर से विश्व को गुलाम बनाने का अवसर मिला तो इस बार वह प्रक्रिया कम से कम एक हजार वषोंर् के लिए होगी। इसके लिए पूरे विश्व को सचेत रहना चाहिए। इस विषय का उल्लेख चीन के साहित्य में बार बार आ रहा है।
चीन में ईसाई जनसंख्या की वृद्घि के कई पहलू चर्चा में आ रहे हैं। चीन में अन्य देशों की तरह माडिया की स्वतंत्रता न होने के कारण जनता की इस पर त्वरित प्रतिक्रिया का भी पता नहीं चलता। लेकिन ताइवान, कोरिया, जापान एवं कुछ हद तक म्यांमार के समाचार पत्रों से काफी जानकारी मिलती है। समाचार पत्र 'चायना पोस्ट' के अनुसार जापान, चीन एवं रूस, ये पूर्वी देश फिलहाल दक्षिण अमरीका में अपना वर्चस्व बढ़ाने में व्यस्त हैं। जुलाई में रूस के राष्ट्रपति पुतिन, चीन के राष्ट्रपति झाई जिपिंग और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने त्रिनिदाद, टोबागो, ब्राजील, अजेंर्टीना, क्यूबा एवं निकारागुआ, इन देशों का दौरा किया था। इसे केवल संयोग नहीं समझना चाहिए। 'चायना पोस्ट' के अनुसार यद्यपि इन पूर्वी देशों का उद्देश्य पश्चिमी देशों में अपनी जडें़ जमाना है, तब भी उसमें चीन में हो रहे इस मतान्तरण के आंकड़ों का समावेश होगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता। लेकिन लगता है पूर्व की पत्रकारिता में एक संदेह उपजा है कि यद्यपि आज चीन में लोकतंत्र नहीं है लेकिन आगामी एक दो दशकों में वहां लोकतंत्र आएगा, यह निश्चित है। आज ही वहां के अनेक निर्णय जनमत का आदर करने वाले एवं सरकार को कई निर्णय बदलने के लिए बाध्य करने वाले हैं। यद्यपि आज चीन में कितने ईसाई बने हैं, इसका महत्व नहीं है लेकिन आगामी 15-20 वषोंर् में वहां की सरकार जब लोकतांत्रिक पद्घति से चुनकर आएगी तब ईसाइयों की संख्या एवं अन्य अल्पसंख्यकों की संख्या काफी महत्वपूर्ण बनने वाली है।
चीन में प्रोटेस्टेंट ईसाइयों की संख्या में बढ़ोतरी के लिए भारत ही कारण बना है, इस तरह का इतिहास चीन में लिखा गया है। 10वीं सदी के आरंभ में ही पहला प्रोटेस्टेंट मिशनरी चीन में गया था, ऐसा उल्लेख है। अर्थात् उसका उद्देश्य चीन में व्यापक प्रचार करना एवं मतांतरण करवाना ही था, यह बाद में स्पष्ट हुआ।
चीन में पंथों की वृद्घि के अनेक चरण हैं। उसमें भी प्रोटेस्टेंट पंथ की वृद्घि के लिए 19वीं सदी में जो अवसर मिला वह मतांतरण के लिए प्रयोग नहीं हुआ था। उस समय अंग्रेजों को चीन में हांगकांग आदि हिस्सों में 19 कारखाने स्थापित करने के लिए अनुमति मिली थी। उस कारण से जो यूरोपीय लोग वहां रह रहे थे, वहां के चर्च में उनकी प्रार्थना आदि की व्यवस्था के लिए राबर्ट मॉरिसन चीन में आया। उस समय भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का जोर था और चीन का विषय भी ईस्ट इंडिया कंपनी संभाल रही थी। चीन में कारखाने खोलने के साथ साथ इस कंपनी ने चीन से रेशम, मसाले एवं चाय की खरीदारी शुरू की। लेकिन चीन ने अपने लोगों पर पूरी गंभीरता के साथ जोर डाला कि यूरोप की कोई चीज नहीं खरीदनी है।
सन् 1842 में चीन एवं कंपनी के बीच व्यापार करार समाप्त हुआ, फिर भी कुछ टापुओं पर थोड़ा बहुत आयात निर्यात चलता रहा। इसमें एक बात पर चीन ने काफी गौर किया था कि भारत के मालवा प्रांत की बेहद तेज 'अफीम' की लत चीन की युवा-पीढ़ी में फैल रही थी। उस समय कंपनी ने चीन में 26 लाख पौंड की 12 लाख किलो अफीम बेची थी। चीन की चाय की लत भारतीयों को लगाना और भारत की अफीम की लत चीनी युवाओं को लगाने का काम कंपनी ने लंबे समय तक किया। लेकिन चीन में उसका बड़ा विरोध हुआ। उससे बड़ी लड़ाइयां हुईं। ये लड़ाइयां 'अफीम के युद्घ' के नाम से प्रसिद्घ हैं। इनमें से पहली लड़ाई सन् 1832 से '42 तक हुई और दूसरी लड़़ाई 1856 से 1860 तक हुई। अफीम की दूसरी लड़ाई के समय भारत में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम जारी था। इस सबका उद्देश्य था- एक तरफ व्यापार वृद्घि, दूसरी ओर मतांतरण और तीसरी ओर उन इलाकों पर राज स्थापित करना। इन कारणों के साथ ही उसका मुख्य उद्देश्य वहां पर लूट मचाना भी था।
प्रत्येक देश में उन्होंने आर्य अनार्य अर्थात् ब्रिटिशों की भाषा में सेमेटिक-हेमेटिक वाद निर्माण किया गया एवं विश्व के सभी देशों के इतिहास एवं पाठ्यपुस्तकों में यह चित्रित करने का प्रयास किया गया कि यूरोप ही संपूर्ण विश्व का केंद्र है। इन सारे लोगों का एक स्वभाव दिखता है, वह यह कि कोई व्यक्ति मामूली कारण से कहीं जाता है और धीरे धीरे वहां ईसाइयत के प्रचार के काम में लग जाता है। देखते ही देखते प्रचार करने वालों की संख्या कुछ हजार होती है। पहले प्रोटेस्टेंट मिशनरी राबर्ट मॉरिसन के वहां जाने के बाद 50 वर्ष में उनकी संख्या 2500 हुई थी। 100 वर्ष बाद, चीन में माओ त्से तुंग की सत्ता आने के बाद उसने सन् 1953 में सबको देश निकाला दे दिया। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि उनकी संख्या फिर से बढ़ी है।
पिछली सदी में सन् 1950 से पहले पांच वर्ष एवं बाद के पांच वर्ष विश्व के अनेक देशों को स्वतंत्रता मिली। पहला विश्व युद्ध एवं दूसरा महायुद्घ इसका कारण बने थे। लेकिन 500 वर्र्ष तक विश्व में निर्माण होने वाली सारी संपत्ति यूरोप की दिशा में ही जाती रही थी। सोना, चांदी एवं कीमती धातुओं की सभी खदानों में तैयार माल यूरोप की दिशा में ही जाता था। आज उन यूरोपीय देशों की स्थिति विश्व पर राज करने जैसी नहीं है, फिर भी मतांतरण के निमित्त विश्व में एक माहौल कैसे निर्माण होता है, यह समझने की जरूरत है। विश्व में ईसाइयों के प्रचार का जो देश प्रतिकार करते हैं उनके बारे में 'पर्सक्यिूशन कंट्रीज' के नाम से जो सूची निकाली जाती है उसमें चीन के बारे में दी हुई जानकारी अधिक चौंकाने वाली है। उनका कहना है कि आज चीन में ईसाइयों की संख्या 20 करोड़ तक जा चुकी है एवं अगले 10 वषोंर् में वह और 10 करोड़ बढ़ेगी। उनके अनुसार वहां के लोगों के पास आज प्रार्थना करने के लिए समय भी है और इच्छा भी, लेकिन बाइबिल खरीदने की उनकी क्षमता नहीं है। वे सालाना 100 डालर ही कमाते हैं, ऐसे में बाइबिल खरीदने के लिए पांच डालर कहां से लाएंगे?
वास्तव में भारत को इस बारे में अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है, क्योंकि यूरोपीय आक्रमण का सबसे बड़ा शिकार एशिया हुआ था। पिछले साठ वषोंर् में साम्यवादी विचारधारा के कारण यद्यपि वहां की बौद्घ संस्थाएं कुछ ढीली पड़ी हैं, लेकिन बौद्घ विचारधारा की मातृभिूम भारत इसके लिए काफी कुछ कर सकता है। भारत और चीन इन दो देशों के बीच आज विश्वास का माहौल नहीं है। फिर भी एक दूसरे को भरोसा दिलाना और भरोसा जीतना, इसका कोई समयबद्घ कार्यक्रम अगर सामने रखा जाए तो उस मोर्चे पर भी काफी अंतर कम किया जा सकता है।
यद्यपि यूरोपीय देश आज निष्प्रभावी लगते हों, लेकिन अगली एक दो सदियों में वे अपना खोया हुआ वैभव पुन: प्राप्त करने के लिए काफी प्रयास करेंगे। इस बारे में 'बे्रकिंग इंडिया' पुस्तक में राजीव मल्होत्रा ने अहसास कराया है जिसे रेखांकित करना आवश्यक है। यूरोप अभी तक पूरी तैयारी से काम पर नहीं लगा, इसलिए पूरे विश्व को गत 500 वषोंर् का अनुभव ध्यान में रखकर काम करना होगा। – मोरेश्वर जोशी
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