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शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी ने पिछले दिनों साईंबाबा के सम्बन्ध में मत व्यक्त कर, बेवजह एक विवाद को जन्म दिया है। किन्तु इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि अपनी वाणी पर संयम रखकर बोलने के लिये स्वरूपानंद महाराज नहीं जाने जाते हैं। अनेक बार उनके विवादास्पद बयान सामने आए हैं। मूल बात यह है कि कुछ भक्तों को साईंबाबा भगवान लगते हैं और इस धारणा से वे उनकी पूजा-अर्चा करते हैं। इस में हिंदू धर्म का क्या बिगड़ता है? जब तक साईंभक्त दूसरों पर जबरदस्ती नहीं करते कि दूसरों को भी साइंर्बाबा को भगवान मानकर पूजना चाहिये तब तक उनको अपनी भावना और श्रद्घा के अनुरूप चलने का अधिकार है।
विकासमान धर्म
हिंदू धर्म के विकास का इतिहास हम ध्यान में लें, तो यह स्पष्ट होगा कि कालक्रम के अनुसार अनेक नए देवी-देवताओं को उसमें स्थान मिला है। उनके मंदिर और उपासना केंद्र भी बने हैं। एकमात्र शर्त यह है कि अन्यों के मंदिर या पूजास्थल को गिराकर, तोड़कर उसकी जगह अपना मंदिर खड़ा नहीं करना चाहिये। पश्चिम की ओर से आये इस्लामी आक्रान्ताओं ने संयम का बर्ताव प्रकट नहीं किया। मूर्तिपूजा के विरोधी होने के कारण उन्होंने मंदिरों को और उनके अंदर विराजीं देव मूर्तियों को ध्वस्त किया। इसी कारण आज भी भारत में बसे इस्लामी मजहब के अनेक अनुयायी भारतीय मूल्यों से दूर हैं। यूरोप से आये पुर्तगाली आक्रमणकारियों ने भी इस प्रकार अत्याचार और अनाचार किये थे।
हिंदू धर्म की एक मूलभूत मान्यता है कि सत्य एक होता है किन्तु बुद्घिमान लोग विविध नामों से उसका वर्णन कर सकते हैं। 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'-इस वेदवचन में यह सिद्घान्त निहित है। इसका अर्थ यह है कि परमात्मा एक है किन्तु उसके नाम अनेक हो सकते हैं। और अलग नाम होने के लिये रूप भी अनेक होने आवश्यक ही हैं। इसी तत्व के कारण हिंदू धर्म में अनेक देवताओं का आविर्भाव हुआ है। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है। यह एकेश्वरवाद ही है। केवल रूप और नाम अलग हैं। अपनी रुचि के अनुरूप हरेक को अपना इष्ट चुनने का अधिकार है। पुष्पदन्त के शिवमहिम्न स्तोत्र-'रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयासाअर्णव इव'-में यही भाव अधोरेखित किया गया है।
इतिहासबोध
अपने हिंदू धर्म का इतिहास ध्यान में रखना चाहिये। अति प्राचीन वेदों में इन्द्र, वरुण और अग्नि, ये प्रधान देवता हैं। क्या किसी ने इन्द्र का मंदिर देखा है? मुझे तो मेरे भारत भ्रमण में कहीं नहीं दिखा। एक सिन्धी सज्जन ने मुझे वरुण का मंदिर दिखाया था। अग्निशालाएं हैं। आज जिन देवताओं के अनेक मंदिर हम देखते हैं, उन के नाम तक वेदों में नहीं हैं। शिव हैं, किन्तु रुद्ररूपेण। और विष्णु आदित्यरूपेण। वहां चतुर्भुजधारी विष्णु नहीं हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण, दुर्गा, गणेश, दत्तात्रेय, हनुमान इनके नाम वहां होना सम्भव ही नहीं। श्रीराम और श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष हैं। प्रभु श्रीराम ने रामायण में स्वयं बताया है कि 'आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्'। यानी, मैं स्वयं को दशरथ का पुत्र एक मनुष्य मानता हूं। हिंदू धर्म की ही यह विशेषता है कि स्त्री रूप को भी देवी का स्वरूप प्राप्त है। अत: देवी दुर्गा के मंदिर अपने यहां दिखते हैं। स्त्री को अपना धर्म गौण नहीं मानता। राम कहा तो सीता भी आयी। कृष्ण कहा तो राधा भी आयी। शिव कहा तो पार्वती भी आयी। संस्कृत व्याकरण का नियम है कि द्वंद्व समास में दोनों पद समकक्ष होते हैं। किन्तु अपने नाम देखें। पहले स्त्री का नाम, बाद में पुरुष का। सीताराम, राधाकृष्ण, लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर ऐसे कितने ही नाम अपने समाज में प्रचलित हैं। कालक्रम में और भी देवता आए हैं। पंढरपूर के विट्ठल, खांडोबा, जगन्नाथ। अभी केवल सौ वर्ष पूर्व संतोषी माता का नाम भी नहीं सुनाई देता था। अब उनके मंदिर बने हैं। साईं मंदिर बने हैं। गजानन महाराज का मंदिर बना है। हमारे गांव के मंदिर में पंचायत मूर्तियां तो हैं ही, किन्तु बाहर हनुमान जी का मंदिर है तो संत केजाजी महाराज की भी प्रतिमा है। जिसको जो पूज्य लगता है, उसको उसकी पूजा करने की स्वतंत्रता है। कारण यह कि अपना 'हिंदू' धर्म है, पंथ या संप्रदाय नहीं है। वह मानव धर्म है। एकमात्र मानव धर्म।
धर्म की गतिशीलता
डा़ सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने हिंदू धर्म की इस विशेषता को अपनी 'हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' पुस्तक में बहुत ही सुंदर ढंग से निरूपित किया है-
Hinduism is a movement, not a position; a process, not a result; a growing tradition, not a fixed revelation. Its past history encourages us to believe that it will be found equal to any emergency that the future may throw up, whether in the field of thought or of history.
Leaders of Hindu thought and practice are convinced that the times require, not a surrender of the basic principle of Hinduism, but a restatement of them with special reference to the needs of a more complex and mobile social order. Such an attempt will only be the repetition of a process which has occurred a number of times in the history of Hinduism.(हिंदू धर्म यानी गतिशीलता, स्थिरता नहीं। वह एक विकासशील प्रक्रिया है परिणाम नहीं। वह वर्धिष्णु परंपरा है, अपरिवर्तनीय, एकमात्र साक्षात्कार नहीं। भविष्य में, विचार के अथवा इतिहास के संदर्भ में जो भी नये प्रसंग उत्पन्न होंगे, उन सभी प्रसंगों में वह नित्य समतुल्य रहेगा, उस का पूर्व इतिहास यह विश्वास दिलाता है।
हिंदू धर्म के मूल तत्वों को बिना नकारेे, बदलती व्यामिश्र परिस्थिति में, इन तत्वों का पुन: प्रतिपादन करना होता है, इसका हिंदू विचारकों तथा आचायोंर् को भलीभांति भान रहा है। इस तरह का प्रयास यानी हिंदू धर्म के इतिहास में घटी प्रक्रिया का एक नया रूप होगा।) -मा. गो़ वैद्य
आस्था – शंकराचार्य, साईंबाबा और हि ंदू धर्म
-मा. गो़ वैद्य
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी ने पिछले दिनों साईंबाबा के सम्बन्ध में मत व्यक्त कर, बेवजह एक विवाद को जन्म दिया है। किन्तु इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि अपनी वाणी पर संयम रखकर बोलने के लिये स्वरूपानंद महाराज नहीं जाने जाते हैं। अनेक बार उनके विवादास्पद बयान सामने आए हैं। मूल बात यह है कि कुछ भक्तों को साईंबाबा भगवान लगते हैं और इस धारणा से वे उनकी पूजा-अर्चा करते हैं। इस में हिंदू धर्म का क्या बिगड़ता है? जब तक साईंभक्त दूसरों पर जबरदस्ती नहीं करते कि दूसरों को भी साइंर्बाबा को भगवान मानकर पूजना चाहिये तब तक उनको अपनी भावना और श्रद्घा के अनुरूप चलने का अधिकार है।
विकासमान धर्म
हिंदू धर्म के विकास का इतिहास हम ध्यान में लें, तो यह स्पष्ट होगा कि कालक्रम के अनुसार अनेक नए देवी-देवताओं को उसमें स्थान मिला है। उनके मंदिर और उपासना केंद्र भी बने हैं। एकमात्र शर्त यह है कि अन्यों के मंदिर या पूजास्थल को गिराकर, तोड़कर उसकी जगह अपना मंदिर खड़ा नहीं करना चाहिये। पश्चिम की ओर से आये इस्लामी आक्रान्ताओं ने संयम का बर्ताव प्रकट नहीं किया। मूर्तिपूजा के विरोधी होने के कारण उन्होंने मंदिरों को और उनके अंदर विराजीं देव मूर्तियों को ध्वस्त किया। इसी कारण आज भी भारत में बसे इस्लामी मजहब के अनेक अनुयायी भारतीय मूल्यों से दूर हैं। यूरोप से आये पुर्तगाली आक्रमणकारियों ने भी इस प्रकार अत्याचार और अनाचार किये थे।
हिंदू धर्म की एक मूलभूत मान्यता है कि सत्य एक होता है किन्तु बुद्घिमान लोग विविध नामों से उसका वर्णन कर सकते हैं। 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'-इस वेदवचन में यह सिद्घान्त निहित है। इसका अर्थ यह है कि परमात्मा एक है किन्तु उसके नाम अनेक हो सकते हैं। और अलग नाम होने के लिये रूप भी अनेक होने आवश्यक ही हैं। इसी तत्व के कारण हिंदू धर्म में अनेक देवताओं का आविर्भाव हुआ है। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है। यह एकेश्वरवाद ही है। केवल रूप और नाम अलग हैं। अपनी रुचि के अनुरूप हरेक को अपना इष्ट चुनने का अधिकार है। पुष्पदन्त के शिवमहिम्न स्तोत्र-'रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयासाअर्णव इव'-में यही भाव अधोरेखित किया गया है।
इतिहासबोध
अपने हिंदू धर्म का इतिहास ध्यान में रखना चाहिये। अति प्राचीन वेदों में इन्द्र, वरुण और अग्नि, ये प्रधान देवता हैं। क्या किसी ने इन्द्र का मंदिर देखा है? मुझे तो मेरे भारत भ्रमण में कहीं नहीं दिखा। एक सिन्धी सज्जन ने मुझे वरुण का मंदिर दिखाया था। अग्निशालाएं हैं। आज जिन देवताओं के अनेक मंदिर हम देखते हैं, उन के नाम तक वेदों में नहीं हैं। शिव हैं, किन्तु रुद्ररूपेण। और विष्णु आदित्यरूपेण। वहां चतुर्भुजधारी विष्णु नहीं हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण, दुर्गा, गणेश, दत्तात्रेय, हनुमान इनके नाम वहां होना सम्भव ही नहीं। श्रीराम और श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष हैं। प्रभु श्रीराम ने रामायण में स्वयं बताया है कि 'आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्'। यानी, मैं स्वयं को दशरथ का पुत्र एक मनुष्य मानता हूं। हिंदू धर्म की ही यह विशेषता है कि स्त्री रूप को भी देवी का स्वरूप प्राप्त है। अत: देवी दुर्गा के मंदिर अपने यहां दिखते हैं। स्त्री को अपना धर्म गौण नहीं मानता। राम कहा तो सीता भी आयी। कृष्ण कहा तो राधा भी आयी। शिव कहा तो पार्वती भी आयी। संस्कृत व्याकरण का नियम है कि द्वंद्व समास में दोनों पद समकक्ष होते हैं। किन्तु अपने नाम देखें। पहले स्त्री का नाम, बाद में पुरुष का। सीताराम, राधाकृष्ण, लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर ऐसे कितने ही नाम अपने समाज में प्रचलित हैं। कालक्रम में और भी देवता आए हैं। पंढरपूर के विट्ठल, खांडोबा, जगन्नाथ। अभी केवल सौ वर्ष पूर्व संतोषी माता का नाम भी नहीं सुनाई देता था। अब उनके मंदिर बने हैं। साईं मंदिर बने हैं। गजानन महाराज का मंदिर बना है। हमारे गांव के मंदिर में पंचायत मूर्तियां तो हैं ही, किन्तु बाहर हनुमान जी का मंदिर है तो संत केजाजी महाराज की भी प्रतिमा है। जिसको जो पूज्य लगता है, उसको उसकी पूजा करने की स्वतंत्रता है। कारण यह कि अपना 'हिंदू' धर्म है, पंथ या संप्रदाय नहीं है। वह मानव धर्म है। एकमात्र मानव धर्म।
धर्म की गतिशीलता
डा़ सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने हिंदू धर्म की इस विशेषता को अपनी 'हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' पुस्तक में बहुत ही सुंदर ढंग से निरूपित किया है-
ऌ्रल्लि४्र२े ्र२ ं ेङ्म५ीेील्ल३, ल्लङ्म३ ं स्रङ्म२्र३्रङ्मल्ल; ं स्र१ङ्मूी२२, ल्लङ्म३ ं १ी२४'३; ं ॅ१ङ्म६्रल्लॅ ३१ं्रि३्रङ्मल्ल, ल्लङ्म३ ं ा्र७ीि १ी५ी'ं३्रङ्मल्ल. क३२ स्रं२३ ँ्र२३ङ्म१८ ील्लूङ्म४१ंॅी२ ४२ ३ङ्म ुी'्री५ी ३ँं३ ्र३ ६्र'' ुी ाङ्म४ल्लि ी०४ं' ३ङ्म ंल्ल८ ीेी१ॅील्लू८ ३ँं३ ३ँी ा४३४१ी ें८ ३ँ१ङ्म६ ४स्र, ६ँी३ँी१ ्रल्ल ३ँी ा्री'ि ङ्मा ३ँङ्म४ॅँ३ ङ्म१ ङ्मा ँ्र२३ङ्म१८.
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(हिंदू धर्म यानी गतिशीलता, स्थिरता नहीं। वह एक विकासशील प्रक्रिया है परिणाम नहीं। वह वर्धिष्णु परंपरा है, अपरिवर्तनीय, एकमात्र साक्षात्कार नहीं। भविष्य में, विचार के अथवा इतिहास के संदर्भ में जो भी नये प्रसंग उत्पन्न होंगे, उन सभी प्रसंगों में वह नित्य समतुल्य रहेगा, उस का पूर्व इतिहास यह विश्वास दिलाता है।
हिंदू धर्म के मूल तत्वों को बिना नकारेे, बदलती व्यामिश्र परिस्थिति में, इन तत्वों का पुन: प्रतिपादन करना होता है, इसका हिंदू विचारकों तथा आचायोंर् को भलीभांति भान रहा है। इस तरह का प्रयास यानी हिंदू धर्म के इतिहास में घटी प्रक्रिया का एक नया रूप होगा।) ल्ल
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