आवरण कथा इस दर्द की दवा नहीं
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लोकसभा चुनाव में रौंदे जाने की टीस अपने में कम नहीं थी, उसपर कांग्रेस के प्रथम परिवर के खिलाफ बगावती तेवर दिखाते हुए पार्टी के ही क्षत्रपों ने दर्द और बढ़ा दिया। गांधी उपनाम की नेतृत्व क्षमता पर दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेता सवाल खड़े कर रहे हैं तो राज्यों में दस जनपथ के करीबी माने जाने वाले मुख्यमंत्रियों के खिलाफ खुली बगावत हो रही है। इतिहास गवाह है कि जब-जब कांग्रेस दिल्ली में सत्ता से बाहर हुई है राज्यों में टूटी-बिखरी है। समर्थकों की हताशा और समर्पित नेताओं के छिटकने का सिलसिला बता रहा है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी का दर्द, इलाज की हद से बाहर जा रहा है।
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सोनिया गांधी के रहते हुए बनीं, ऐसे में अब यदि असम, महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भी कांग्रेस टूटती है तो यह टूट विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी पडेगी। चुनाव न जितवा पाने को लेकर राहुल गांधी पहले से ही सवालों से घिरे हुए हैं। ऐसे में यदि राज्यों में भी कांग्रेस टूटी- बिखरी तो राहुल के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व पर कांग्रेस को एकजुट न रख पाने का भी सवाल उठ खड़ा होगा। यह सवाल कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस की असल ताकत गांधी परिवार है। जब परिवार ही सवालों के घेरे में होगा तो बगावत को कौन संभालेगा?
नई दिल्ली। डूबते जहाज में कोई सवार होना नहीं चाहता है, और ऐसा ही कुछ नजारा इन दिनों देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में देखने को मिल रहा है। पर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व डूबती पार्टी को उन्हीं से बचाने की अपील करता नजर आ रहा है जो छोड़कर जाने को तैयार बैठे हैं। असल में बगावत, अंसतोष का यह मामला इतना साधारण नहीं जितना कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और उनके करीबी नेताओं ने ऊपरी तौर पर दिखाने की कोशिश की है। दरअसल बगावत के ये सुर कांग्रेस शासित दो राज्यों-असम और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ नहीं हैं बल्कि कांग्रेस नेतृत्व यानी राहुल गांधी के नेतृत्व के खिलाफ हैं। लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में भाजपा से बुरी तरह हारी कांग्रेस पार्टी नीचे से ऊपर तक हिल चुकी है। इस बात का अहसास कांग्रेस के प्रथम परिवार को भी हो चुका है, लिहाजा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनी ताकत बागी तेवर दिखा रहे क्षत्रप नेताओं को मनाने में लगा दी है। पर इतिहास गवाह है कि जब-जब कांग्रेस दिल्ली में सत्ता से बाहर हुई है राज्यों में टूटी – बिखरी है। जमाना चाहे इंदिरा गांधी का हो या राजीव गांधी का या फिर सोनिया गांधी का। कांग्रेस के प्रथम परिवर के खिलाफ बगावती तेवर दिखाते हुए कई बार क्षत्रपों ने डूबने से पहले कांग्रेस को छोड़ने में ही अपनी राजनीतिक भलाई समझी। 2014 के लेाकसभा चुनाव परिणामों ने एक बार फिर कांग्रेस के प्रथम परिवार की राजनीतिक नेतृत्व क्षमता को लेकर पार्टी के भीतर सवाल खड़े कर दिए हैं। दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेता सवाल खड़े कर रहे हैं तो राज्यों में दस जनपथ के करीबी माने जाने वाले मुख्यमंत्रियों के खिलाफ बगावत ने यह सवाल खडा कर दिया है कि क्या कांग्रेस पार्टी इस वर्ष अक्तूबर-नवंबर में प्रस्तावित चार राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले बिखराव से बच पाएगी?
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि कांग्रेस जीतती है तो श्रेय दस जनपथ को मिलता है और हारती है तो ठीकरा राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अन्य नेताओं के सिर फूटता है। लेकिन लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद जिस प्रकार से राज्यों में कांग्रेस के दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं के द्वारा कांग्रेस के प्रथम परिवार की राजनीतिक नेतृत्व क्षमता पर और कार्यशैली को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, उसने दस जनपथ को भी सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। कारण बात चाहे असम की हो या हरियाणा की या फिर महाराष्ट्र की। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस शासन में है और मुख्यमंत्री दस जनपथ के करीबी माने जाने वाले नेता हैं। इन मुख्यमंत्रियों के खिलाफ बगावत मतलब दस जनपथ के फैसले के खिलाफ बगावत। यह बात अलग है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी कहते हैं, कहीं कोई बगावत नहीं है और न ही यह राहुल गांधी के खिलाफ कोई विद्रोह है। यह राज्य का मामला है कोई चिन्ता की बात नहीं है। तो वरिष्ठ कांग्रेस सांसद कमलनाथ कहते हैं, ऐसी घटनाओं को राहुल गांधी के नेतृत्व से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। राज्यों में यदि कहीं कोई बात है तो मिलजुल कर सुलझा ली जाएगी। लेकिन भाजपा सांसद प्रभात झा कहते है, निचिश्त रूप से कांग्रेस का यह अंदरूनी मामला है पर असम से लेकर महाराष्ट्र तक कांग्रेस के नेताओं ने सार्वजनिक रूप से अपने मुख्यमंत्रियों और पार्टी नेतृत्व के खिलाफ बोलकर कांग्रेस की कलह को चौराहों पर लाकर रख दिया। नेतृत्व के खिलाफ उठी विरोध की आवाजों को कांग्रेस नेतृत्व नजरअंदाज कर सकता है पर देश देख-सुन रहा है। वहीं कांग्रेस की सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री तारिक अनवर कहते हैं, कांग्रेस के लिए यह समय चुनौती भरा है। लोकसभा चुनाव में पराजय हुई है और कई राज्यों में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। ऐसे में कांग्रेस के भीतर उठ रहे असंतोष के सुर सही नहीं हैं। कांग्रेस का अंदरूनी मामला है और ऐसा समयहर पार्टी के सामने आता है।
लेकिन इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव के बाद से ही कांग्र्रेस का ऐसा बुरा समय शुरू हुआ है कि चुनाव में कांग्रेस को इतनी सीटें भी नहीं मिलीं कि उसे अपने बूते लोकसभा में नेता विपक्ष का पद भी मिल जाता। इस पद को पाने के लिए कांग्रेस गठबंधन राजनीति की दुहाई दे रही है जिसका नेता विपक्ष के पद के मामले में कहीं कोई आधार ही नहीं है। लोकसभा में कांग्रेस नेता विपक्ष का पद पाने के लिए जूझ रही है तो राज्यों में उभरे असंतोष ने कांग्रेस के सामने खुद को बिखराव से बचाने की चुनौती पेश कर दी है। तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस का अंदरूनी संकट थमता नजर नहीं आ रहा है। जैसा कि पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस प्रवक्ता शशि थरूर कहते भी है कि लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद से कांग्रेस के भीतर सब कुछ सामान्य नहीं हैं और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी में जान फूंकने के लिए जवाबदेही तय करेंगी। केवल सोनिया ही पार्टी को इस संकट से बाहर निकालने में सक्षम होंगी क्योंकि वह एक के बाद एक दो चुनावी नुकसान और अपनी कमान में लगातार दो जीत देख चुकी हैं। लेकिन इस सवाल पर क्या राहुल गांधी पार्टी की अगुवाई करने से हट रहे हैं? थरूर कहते हैं, राहुल की खुद की अपनी नेतृत्व भूमिका है और वह सोनिया जी का सहयोग करेंगे। थरूर का यह मत ऐसे समय पर सामने आ रहा है जब पार्टी में एक तबका यह महसूस कर रहा है कि सोनिया धीरे-धीरे अपना प्रभार राहुल को सौंप रही हैं जबकि उन्हें खुद अग्रिम मोर्चे पर रहना चाहिए। राहुल के नेतृत्व की आलोचना को लेकर उठ रहे सवालों पर थरूर कहते हैं, राहुल बेशक पारंपरिक राजनीतिक नेता नहीं हों लेकिन वह जमीन से जुड़े नेता हैं। लिहाजा राहुल पदों के पीछे भागने वाले व्यक्ति नहीं हैं बल्कि उनका पूरा ध्यान पार्टी को मजबूत करने पर केंद्रित है। कई राज्यों में कांग्रेस में उभरे असंतोष पर थरूर कहते हैं आलाकमान मामले को देख रहा है। फिलहाल यह अपूर्ण व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से जुड़े मुद्दे प्रतीत होते हैं।
पार्टी के भीतर मचे घमासान पर कांग्रेस प्रवक्ता के रूप में थरूर के विचार सार्वजनिक रूप से अपूर्ण कहे जा सकते हैं क्योंकि दिल्ली से सटे हरियाणा में ही मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कभी दस जनपथ के करीबी रहे चौधरी वीरेंद्र सिंह के बीच छिड़ी राजनीतिक महाभारत ने कांग्रेस नेतृत्व को उस राजनीतिक कुरुक्षेत्र में लाकर खड़ा कर दिया है जहां कांग्रेस को अपनों से ही लड़ना पड़ रहा है। हरियाणा में कांग्रेस की अंदरूनी महाभारत का यह हाल तब है जब अभी कोई दो माह पहले राज्य में दस लोकसभा सीटों में से कांग्र्रेस को सिर्फ एक सीट मिल पाई थी। वह भी रोहतक संसदीय सीट से मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुडडा के पुत्र दीपेंद्र हुडडा जीत पाए। दूसरी ओर चौधरी वीरेंद्र सिंह ने पिता पुत्र की इस राजनीति के खिलाफ खुला मोर्चा खोल दिया। तो सबसे पहले यही सवाल उठा कि क्या चौ. वीरेंद्र सिंह की मुहिम को दस जनपथ का भी वरदहस्त प्राप्त है। असल में चौ. वीरेंद्र सिंह न केवल राज्य के वरिष्ठ नेता हैं बल्कि कभी वह दस जनपथ के करीबी माने जाते थे। वे कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव से लेकर कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। जाहिर है चौ. वीरेंद्र सिंह का विधानसभा चुनाव से ठीक पहले विद्रोही तेवर कांग्रेस को भारी पड़ सकता है।
हालांकि मुख्यमंत्री हुड्डा की राजनीति और कार्यशैली से कांग्रेस के अन्य नेता भी खुश नहीं हैं। इनमें एक नाम पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा का भी है। पर मुख्य रूप से हुड्डा के विरोध का मोर्चा वीरेंद्र सिंह ने संभाल रखा है। वीरेंद्र सिंह का तर्क है कि यदि हुड्डा को मुख्यमंत्री पद से नहीं हटाया गया तो लोकसभा चुनाव जैसा हाल विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का होगा। पर मुख्यमंत्री हुड्डा खेमा विरोधियों पर भारी पड़ रहा है तो इसकी एक वजह सांसद दीपेंद्र हुडडा का राहुल गांधी की कोर टीम का हिस्सा होना भी है। हुडडा को दस जनपथ का करीबी माना जाता है। लिहाजा चर्चा यहां तक हो रही है कि चौ. वीरेंद्र सिंह कांग्रेस भी छोड़ सकते हैं। हरियाणा की तरह कांग्रेस शासित महाराष्ट्र में भी घमासान मचा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की गठबंधन सरकार है। गठबंधन स्तर पर कांग्रेस को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आंखें दिखा रही है तो कांग्रेस के भीतर नारायण राणे ने ऐसा रण छेड़ रखा है कि मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण से लेकर दिल्ली में केंद्रीय नेतृत्व भी सहमा हुआ है। राणे का कहना है कि वह नहीं चाहते कि महाराष्ट्र में पार्टी को लोकसभा चुनाव की तरह करारी हार का सामना करना पड़े, इसलिए राज्य में नेतृत्व के मामले में कांग्रेस आलाकमान जल्द कोई फैसला करें।
आलाकमान ने यह फैसला सुनाया कि चह्वाण ही मुख्यमंत्री रहेंगे तो राणे ने भी इस्तीफा देकर बगावती तेवर साफ दिखा दिए। उनके समर्थक तो यहां तक संकेत दे रहे हैं कि यदि राणे की इस बार बात नहीं सुनी गई तो वह समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर नई राजनीति करेंगे। असल में राणे पुराने शिव सैनिक हैं। एक समय वह शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के खासे करीब थे पर 2005 में शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। राणे का दावा है कि पार्टी आलाकमान ने उन्हें भरोसा दिया था कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। पर कांग्रेस नेतृत्व ने यह वायदा पूरा नहीं किया। चर्चा तो यहां तक हैं कि राणे भाजपा का दरवाजा खटखटा भी चुके हैं।
कांग्रेस नेतृत्व को बगावत की तीसरी सूचना मिली पूर्वोत्तर में असम से। इस राज्य में कांग्रेस की सरकार है लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली हार ने यहां भी कांग्रेस सरकार को हिला कर रख दिया है। मुख्यमंत्री तरुण गोगई के खिलाफ विरोध के सुर तेज हो गए और गोगई विरोधी धड़ा मजबूत हो गया है। राज्य के शिक्षा मंत्री हेमंत बिस्व ने मुख्यमंत्री गोगई के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया। हेमंत बिस्व भी चाहते हैं कि गोगई की जगह उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाए। हेमंत का दावा है कि राज्य के 78 विधायकों में से करीब 40 पार्टी विधायकों का उन्हें समर्थन प्राप्त है। लेकिन दिल्ली में दस जनपथ में उनकी नहीं सुनी गई तो हेमंत ने राज्यपाल से मिलकर उन्हें अपना इस्तीफा सौंप दिया। उनका दावा है कि वह जब चाहेंगे तो गोगई सरकार को गिरा सकते हैं। इस तरह असम में गोगई सरकार भी अपनों के विद्र्रोह से सकते में हैं और दिल्ली में आलाकमान भी।
जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस को एक साथ दोहरे झटके लगे। एक तरफ नेशनल कॉन्फें्रस और कांग्रेस का गठबंधन टूटा और दूसरा दोनों ही दलों ने आगामी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया। असल में लोकसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फें्रस और कांग्रेस ने तीन-तीन सीटों पर चुनाव लड़ा पर दोनों ही दल एक भी सीट नहीं जीत सके । उधमपुर संसदीय सीट पर भाजपा की जीत ने इस सीट से दो बार कांग्रेस सांसद रहे चौधरी लाल सिंह को कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। जाहिर है जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक दृष्टि से अलग थलग पड़ी कांग्रेस को लेकर फिलहाल राजनीतिक सवारी कोई भी दल करना नहीं चाहता है। प. बंगाल में पहले ही खस्ताहाल में कांग्रेस के लिए नई मुश्किल है, तीन विधायकों ने सत्तारूढ तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया है। इतना ही नहीं आलाकमान की नाक के नीचे दिल्ली में भी विधायकों के टूटने की चर्चा है। यहां भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच जारी राजनीति में कई कांग्रेसी नेता भविष्य को लेकर डरे हुए हैं।
दरअसल पार्टी में बगावती सुरों की वजह केवल आम चुनाव की हार ही नहीं बल्कि कई अन्य कारण भी हैं। लोकसभा चुनाव में हार की समीक्षा के लिए बनाई गई एंटनी समिति के सामने यह तथ्य भी रखे गए हैं कि राहुल गांधी द्वारा किए जा रहे राजनीतिक प्रयोगों की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ रही है। मुस्लिम राजनीति को लेकर भी कांग्रेस के भीतर सवाल उठ रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी की छवि हिन्दू विरोधी बन गई जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। राज्यों में गुटबाजी और चुनावी रणनीति में खामियां भी हार के कारणों में शामिल हैं। राहुल की नेतृत्व क्षमता और प्रियंका गांधी में भविष्य की उम्मीद की राजनीति को लेकर भी सवाल हैं। लेकिन दिल्ली में दस जनपथ के सहारे और नाम पर राजनीति करने वाले नेता यह सवाल पूछते ही उखड पड़ते हैं कि राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर सवाल क्यों उठ रहे हैं? असल में यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर कांग्रेस के शीर्ष नेता भी जानते हैं पर अपने मुखारबिंद से कोई कहना नहीं चाहता। लेकिन यह सत्य है कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने ऐतिहासिक पराजय को प्राप्त किया है। वैसे कांग्रेस जब-जब दिल्ली की गद्दी से दूर हुई है उसे हार की कीमत चुकानी पड़ी है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इसका उदाहरण हैं। ममता और पवार के दल सोनिया के रहते हुए बने ऐसे में अब यदि असम, महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भी कांग्रेस टूटती है तो यह टूट न केवल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी पड़ेगी बल्कि इस हार से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कमजोर होंगे।
चुनाव न जितवा पाने को लेकर राहुल गांधी पहले से ही सवालों से घिरे हुए हैं। ऐसे में यदि राज्यों में भी कांग्रेस टूटी- बिखरी तो राहुल के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व पर कांग्रेस को एकजुट न रख पाने का भी सवाल उठ खड़ा होगा। यह सवाल कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस की असल ताकत गांधी परिवार है। जब परिवार ही सवालों के घेरे में होगा तो बगावत को कौन संभालेगा?
-मनोज वर्मा
हताशा का प्रतीक है स्पीकर की आलोचना
विपक्ष के नेता पद के मुद्दे पर लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन पर निशाना साधने के लिए कांग्रेस की आलोचना करते हुए सरकार ने कहा कि यह पार्टी (कांग्रेस) की हताशा को प्रदर्शित करता है और दावा किया कि जनादेश यह है कि उसे विपक्ष के नेता का पद भी न मिले।
संसदीय कार्य राज्य मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद भवन परिसर में कहा कि स्पीकर पर संशय व्यक्त करना निंदनीय और अस्वीकार्य है। लोगों ने उन्हें (कांग्रेस) शासन करने का जनादेश नहीं दिया है, जनता ने उनमें से 55 लोगों को भी नहीं चुना, हम क्या कर सकते हैं? हम कैसे मदद कर सकते हैं?'' कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह ने आरोप लगाया कि अभी तक विपक्ष के नेता के मुद्दे पर कोई निर्णय नहीं करने से यह आशंका उठती है कि वह (सुमित्रा) सरकार से प्रभावित हो सकती हैं। जावड़ेकर ने कहा, ''स्पीकर पर संशय व्यक्त करना कांग्रेस की हताशा को प्रदर्शित करता है़. लोगों ने उन्हें विपक्ष के नेता लायक भी नहीं बनाया। यह जनादेश है।''
कांग्रेस के नेता कमलनाथ ने कहा, कुछ दलों को ऐसा महसूस होता है कि वे कुछ मुद्दों को उठाना चाहते हैं, उन्हें ऐसा महत्व नहीं दिया जाता है जैसा दिया जाना चाहिए।'' इन आलोचनाओं पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जावड़ेकर ने कहा कि कांग्रेस के नेताओं की प्रतिक्रिया अमर्यादित और वास्तव में स्पीकर पर आक्षेप है। स्पीकर पूरे सदन के होते हैं। जो भी पीठ पर होता है, वह स्वतंत्र रूप से काम करता है।'' उन्होंने कहा कि स्पीकर पर आक्षेप पूरी तरह से अमर्यादित, निंदनीय और अस्वीकार्य है। कांग्रेस के आरोपों के बारे में पूछे जाने पर लोकसभा अध्यक्ष ने कहा कि वह ऐसे मुद्दे पर टिप्पणी नहीं करती हैं। गौरतलब है कि कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस को विपक्ष के नेता का पद नहीं दिये जाने को तुच्छ और अनुचित करार दिया था और यह आशंका व्यक्त की थी कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एवं अन्य वैधानिक पदों की नियुक्ति सही तरीके से नहीं होगी।
543 सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के 44 सदस्य हैं और विपक्ष के नेता के पद के लिए उसके पास 11 सीट कम हैं।
इस सूबे में कांग्रेस को एक साथ दोहरे झटके लगे हैं। एक तरफ नेशनल कॉन्फें्रस और कांग्रेस का गठबंधन टूटा गया है तो दूसरी तरफ उधमपुर संसदीय सीट से दो बार कांग्रेस सांसद रहे चौधरी लाल सिंह ने कांग्रेस छोड़ने का ऐलान कर नेतृत्व को सकते में डाल दिया।
सभी राज्यों की तरह पहले से ही झारखण्ड में कमजोर पड़ी कांग्रेस की यहां भी स्थिति गड़बड़ है। झारखण्ड सरकार में मंत्री रहे राधाकृष्ण किशोर यह कहकर पार्टी छोड़ चुके हैं कि कांग्रेस में लोकतंत्र ही नहीं है।
मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुडडा के खिलाफ चौधरी वीरेंद्र सिंह ने खोल रखा है मोर्चा। हुडडा को पद से हटाने की हो रही है मांग। विधानसभा चुनाव का हवाला देकर हुडडा अपनी कुर्सी बचा रहे हैं तो हुडडा विरोधियों का कहना है कि यदि हुडडा के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया तो विधानसभा चुनाव में भी लोकसभा चुनाव जैसा हाल होगा।
राज्य के शिक्षा मंत्री हेमंत बिस्व ने मुख्यमंत्री तरुण गोगई के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया। बिस्व का दावा है कि राज्य के 78 विधायकों में से करीब 40 पार्टी विधायकों का उन्हें समर्थन प्राप्त है। हेमन्त बिस्व चाहते हैं कि गोगई को मुख्यमंत्री पद से हटाया जाए। गोगई को दस जनपथ का करीबी माना जाता है।
विधानसभा चुनाव से पहले नारायण राणे के रण ने मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण से लेकर दिल्ली में केंद्रीय नेतृत्व को हिलाकर रख दिया है। चर्चा है कि यदि मुख्यमंत्री पद पर बदलाव नहीं हुआ तो राणे कांग्रेस छोड़ सकते हैं। पृथ्वीराज की दस जनपथ पर मजबूत पकड़ है।
निश्चित रूप से कांग्रेस का यह अंदरूनी मामला है पर असम से लेकर महाराष्ट्र तक कांग्रेस के नेताओं ने सार्वजनिक रूप से अपने मुख्यमंत्रियों और पार्टी नेतृत्व के खिलाफ बोल कर कांग्रेस की कलह को चौराहे पर लाकर रख दिया।
—प्रभात झा, भाजपा सांसद
ऐसी घटनाओं को राहुल गांधी के नेतृत्व से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। राज्यों में यदि कहीं कोई बात है तो मिलजुल कर सुलझा ली जाएगी।
—कमलनाथ, वरिष्ठ कांग्रेस सांसद
कहीं कोई बगावत नहीं है और न ही यह कोई राहुल गांधी के खिलाफ कोई विद्रोह है। यह राज्य का मामला है कोई चिन्ता की बात नहीं है।
—मनीष तिवारी, पूर्व केंद्रीय मंत्री , वरिष्ठ कांग्रेस ी नेता
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद से कांग्रेस के भीतर सब कुछ सामान्य नहीं हैं और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी में जान फूंकने के लिए जवाबदेही तय करेंगी। केवल सोनिया ही पार्टी को इस संकट से बाहर निकालने में सक्षम होंगी। —शशि थरूर, पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस प्रवक्ता
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