|
कड़वी होने की हद तक खरी बात कहने वाले न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की छवि ऐसे सख्त व्यक्ति की है जिसे शास्त्रों का ज्ञान है और मौके की पहचान भी। लेकिन 20 जुलाई को भारतीय प्रेस परिषद् के चेयरमैन और सर्वोच्च न्यायायालय के पूर्व न्यायाधीश के मन मस्तिष्क में क्या चल रहा था? शुक्रनीति के उद्धरण या हर रविवार राजधानी में पड़ने वाला खबरों का सूखा? इस रोज उनके ब्लॉग ह्यसत्यम ब्रूयातह्ण (सत्य बोलो) में जहां शुक्रनीति द्वारा प्रतिपादित निष्पक्ष न्याय के सिद्धांत की गूंज थी वहीं यह ह्यप्रियं ब्रूयातह्ण (अच्छा बोलो) की बजाय खालिस सत्यम ब्रूयात था। पूर्व सरकार को कड़वे लगने वाले उनके इस खुलासे में खबर खोजने वाले पत्रकारों के लिए भरपूर मसाला और मनचाहे तड़के की गुंजाइश थी। न्याय का तराजू किन परिस्थितियों में अन्याय की ओर झुक जाता है यह बात शुक्रनीति में स्पष्ट और सुन्दर तरीके से बताई गई है।
पक्षपाताधिरोपस्य कारणानि च पञ्च वै।
रागलोभभयद्वेषा वादिनोच्च रहश्श्रुति:।।
पक्षपात की संभावना (न्यायाधीश द्वारा) बढ़ाने वाले पांच कारण हैं। पहला, राग, यानी किसी एक पक्ष के प्रति स्नेहभाव। दूसरा, लोभ यानी किसी पक्ष से लाभ लेने की इच्छा। तीसरा किसी पक्ष से भय। चौथा, किसी पक्ष के प्रति वैर भाव और पांचवा किसी पक्षकार के साथ गोपनीय मंत्रणा। काटजू साहब ने न्याय की कुर्सी तक राजनैतिक दबाव और दखलंदाजी का जो ब्यौरा उस रोज दिया उसमें न्याय की निष्पक्षता को प्रभावित करने वाले उपरोक्त पांचों कारण शामिल दिखे। इस कहानी में एक संदिग्ध न्यायमूर्ति का डीएमके के प्रति राग था और बदले में लाभ लेने की इच्छा भी। संप्रग की डगमग सरकार का बैसाखी छिन जाने का भय था और द्वेष की राजनीति को पालने की पहल भी। और तो और एअरपोर्ट पर पक्षकार की पेशबंदी से जुड़ी गुप्त मंत्रणा भी इस कहानी का हिस्सा थी।
न्याय का प्रतीक है तुला। भरोसा किया जाता है कि इंसाफ के यह पलड़े हर हाल में हर किसी के लिए बराबर हैं। अपेक्षा की जाती है कि ऐसा होना ही चाहिए। परंतु उस रोज तराजू थामे पूरी व्यवस्था पर ही उंगली उठी। क्या न्याय के मंदिर में पक्षपात संभव है?
जनता का पवित्र विश्वास ही जिसकी नींव हो उस ह्यस्तुत्य-शाश्वतह्ण व्यवस्था के लिए ऐसा आक्षेप अमान्य-असहनीय है। किन्तु यह आक्षेप लगा। नींव का पत्थर हिला। पूर्व न्यायामूर्ति, मार्कंडेय काटजू द्वारा उठाए गए सवालों के समय पर लोग संदेह कर सकते हैं लेकिन उनके खरेपन और प्रस्तुत तथ्यों की सत्यता, पर कोइ शक लोगों के मन में शायद नहीं है।
न्यायपालिका में भ्रष्ट जजों की राह बनाती दबाव की राजनीति से जुड़ा न्यायमूर्ति काटजू का खुलासा सिर्फ लोकसभा में हंगामे और स्थगन की वजह के तौर पर ही नहीं देखा जाना चाहिए। इस खुलासे ने पावन विश्वास को आघात पहुंचाने वाली कई कलंक कथाएं पुनर्जीवित कर दीं। इस खुलासे ने पूर्व सरकार के उस भोले चेहरे की असलियत उजागर कर दी जिसे अब तक ह्यपवित्रता का पर्यायह्ण बनाकर पेश किया जाता था। इस खुलासे से न्यायपालिका तक ह्यपंजाह्ण मारती घृणित राजनीतिक सौदेबाजी का पर्दाफाश हुआ है।
न्याय का बुनियादी सिद्धांत है कि इंसाफ होना ही नहीं चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि आज न्यायव्यस्था के केंद्र में रहे व्यक्तियों से छनकर आती अंतर्कथाएं बता रही हैं कि ऊपर से जैसा दिखता है, वास्तव में वैसा है नहीं! वैसे, जनता का भरोसा तोड़ने वाला दृश्य खड़ा करने का दोषी कोई एक नहीं। लालच देना अपराध है तो लालच में आ जाना भी कम बड़ी मूर्खता नहीं। ऐसे में फिसलन को किसी एक की करतूत बताना गलत होगा।
आज सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभों के इतने दरवाजे राजनैतिक व्यवस्था ने खोल दिए हैं कि इससे न्याय की निष्पक्षता की बजाय न्यायाधीशों के राजनैतिक रुझान को लेकर जनधारणा ज्यादा मजबूत हुई है। ऐसे में सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी प्रकार के लाभ से दूर रहने की पहल लोकतंत्र के उस शीर्ष अंग की ओर से होनी चाहिए जिसे जनता के मन में श्रेष्ठतम स्थान प्राप्त है।
बहरहाल, यह बात सब जानते हैं कि जाति, पंथ, रिश्तों और राजनीतिक संबंधों की जकड़बंदियां कार्यपालिका में आम हैं। लेकिन न्यायपालिका को कार्यपालिका की बीमारी न लगे इसके लिए पहल तो करनी ही होगी। न्याय के मंदिर में गलत पांव न पड़े यह सुनिश्चित करना सबसे बड़ी जरूरत है। न्यायमूर्ति काटजू की मंशा और मौके के चयन पर सवाल हो सकते हैं किन्तु इस घटनाक्रम ने भारतीय न्यायव्यवस्था में बड़े परिवर्तन के लिए बहस का मौका जरूर उपलब्ध करा दिया है।
टिप्पणियाँ