मत बांधो, बहने दो गंगा
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बांधों ने किस तरह मछलियों का संसार उजाड़ दिया है, मानव जनसंख्या को विस्थापित होने के लिए विवश कर दिया है और नदियों में जलस्तर को एकदम घटा दिया है। लेकिन अब यदि कुछ बचता है तो जनहित में यह बताना कि ये बांध पानी की गुणवत्ता पर कैसे प्रभाव डाल रहे हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही आईआईएम बैंगलूरू के पूर्व प्रोफेसर और याचिकाकर्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता डा. भरत झुनझुनवाला ने वाटर इम्पैक्ट ऑफ डैम्स ऑन इट्स क्वालिटीज (पानी: इसकी गुणवत्ता पर बांधों का प्रभाव) नामक पुस्तक के संयोजन एवं संपादन का निश्चय किया।
झुनझुनवाला ने वर्ष 2003 से अलकनन्दा के किनारे रहना शुरू कर दिया और इसी परिवेश में उनके अध्यात्म और प्राकृतिक दृष्टिकोण को विस्तार मिला। कुछ ही वर्षों में उन्होंने स्वयं को यहां बांध विरोधी संघर्ष में सक्रिय कर दिया। सेवानिवृत्ति के बाद के कई वर्ष तक भरत झुनझुनवाला के लघु विद्युत परियोजना के पैरोकारों और जलसंसाधन अभियंताओं के कोप का भाजन हुए हैं जो हिमालयी नदियों गंगा और ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में सैकड़ों बड़ी लघु विद्युत परियोजनाएं चला रहे हैं। उनका यह नवीनतम प्रयास इस बात को और पुख्ता करता है कि बांध और लघु विद्युत परियोजनाएं केवल पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं हैं बल्कि ये मनुष्यों के लिए भी हितकारी नहीं हैंै। निरन्तर प्रवाहित जल की तुलना में रोके गए पानी, दिशा बदलने अथवा सुरंग के अन्दर पानी के निकास के कारण शुद्ध वायु और पृथ्वी के स्पर्श के अभाव में उस पानी के तत्व प्रभावहीन और उसमें गुणवत्ता का अभाव सहज देखा जा सकता है। जल की गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित होती है और इसमें पत्थर या अनुपयुक्त अवयव सम्मिश्रित दिखाई पड़ते हैं। भरत झुनझुनवाला ने अपनी इस पुस्तक में सीमित लेकिन प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि सुरंग के अंदर प्रवेश के बाद पानी की कुछ विशेषताएं खो जाती हैं। इस शोध में जापानी वैज्ञानिक मासास इमोटो द्वारा पानी के मोलीक्युलर स्ट्रक्चर को चित्रों द्वारा समझाना गया है जो यह बताता है कि पानी में क्रिस्टल झरनों के पानी और अबाध प्रवाह से ही अच्छे बनते हैं प्रदूषित या अवरोधित पानी से ये वैसे नहीं बन सकते। लेकिन जलसंसाधन अभियंताओं और कई अन्य लोगों के लिए ऐसे तर्क बहुत दूर की कौड़ी प्रतीत होते हैं। सरकार भी यह तर्क प्रस्तुत करती है कि शून्य लागत या लघुविद्युत उत्पादन की कटौती तुलना में अधिक ऊंची है। सामाजिक सांस्कृतिक लाभ के सीमित प्रयोग के लिए पानी का स्वच्छ प्रवाह हो। बांध निर्माण समुदाय इसको 'अनुपयोगी पानी' कहता है। यद्यपि यह सर्वविदित है कि इस प्रवाह से आध्यात्मिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त मैदानों में जमीनी पानी को रीचार्ज करता है, इसके साथ ही बालू और पानी का स्वस्थ संतुलन उपस्थित करता है और डेल्टाई परिस्थिति का निर्माण करता है। बांध के नीचे की तह में जल प्रवाह को सुनिश्चित करने पर अभी कई शोध होने बाकी हैं। हालांकि भारत में कुछ उपयोगी शोध हुए हैं। सोलहवें अध्याय में लघु विद्युत परियोजना के एक प्रयत्न रखा गया है कि पानी का स्वतंत्र प्रवाह रखना जरूरी है। इन उपायों में धारा से अलग टैंकों में पानी का भंडारण चैनल के ढांचे की चौड़ाई तक रखकर पानी संरक्षित रखा जा सकता है। निसन्देह इससे विद्युत निर्माण प्रभावित होगा। योजनाकार और नीति निर्माता इस पर बात करने को राजी नहीं हैैं। बाद के अध्यायों में झुनझुनवाला ने पानी की गुणवत्ता के कमतर होने में कई साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। लेकिन सारे संचयन में सूचनाओं के क्रम में पहले तीन अध्यायों में हिन्दुओं, ईसाइयों और इस्लाम के अनुयायियों का इस पानी से जुड़ाव और प्रयोग पर रुचिकर प्रकाश डाला गया है। झुनझुनवाला कहते हैं मुझे भी यह विश्वास हुआ है कि गंगा का पानी विशेष आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक गुणों से युक्त है और सुरंगों, रिजर्वायर तथा टर्बाइन द्वारा पानी के प्रवाह को रोकना सर्वथा घातक कदम है। वे भावुक होकर कहते हैं कि लोग गंगा जल से आचमन करते हैं लेकिन कम बिजली पैदा होने से उनकी खुशियां कम हो जाएंगी। आधुनिक जीवन शैली के हिसाब से हम इस वक्तव्य को परस्पर विरोधी कह सकते हैं। यह हमें आस्था और अनास्थावादी, बांध समर्थक और बांध विरोधी अवधारणाओं में विभक्त कर लेगा। इसका उत्तर नि:सन्देह इनके बीच में ही मिलेगा। प्रस्तुति : भरतलाल सेठ
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