छत्रपति शिवाजी
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छत्रपति शिवाजी की सेनाएं कर्नाटक अभियान से वापस लौट रहीं थीं कि मार्ग में बिलारी का तालुका पड़ा। विजय के उन्माद में सेनाएं शिवा के आदर्शों और आदेशों को भूलकर उस तालुके में घुस गईं। सेनाओं ने वहां लूटमार शुरू कर दी। बिलारी के सीमा रक्षकों ने उन्हें ऐसा करने से रोका तो मराठा सेनापति साकूजी गायकवाड़ आपे से बाहर हो गए।
'रानी! उसने बिलारी के दरबार में उपस्थित होकर रानी सावत्रिीबाई के सम्मुख अपना रोष प्रकट करते हुए कहा, आपकी सीमाओं में छत्रपति के सैनिकों का जो अपमान हुआ है, उसे सहन नहीं किया जा सकता।
रानी बोलीं, ऐसा हुआ क्यों है यह जानने की आपने कोशिश की क्या सेनापति ? रानी ने गंभीर वाणी में उत्तर दिया, छत्रपति की सेनाएं यदि बिलारी की अतिथि बनकर आईं होतीं तो हम पलक पांवड़े बिछाकर उनका स्वागत करते गायकवाड़ ! किंतु वे यहां हमारी भूमि पर अधिकार जमाने के उद्देश्य से सीमा में घुसीं। विजय के उन्माद में सेनाएं यह भी भूल गईं कि बिलारी के निवासी भी स्वाभिमान की रक्षा के लिए जीना और मरना जानते हैं। 'जो भी हो, किंतु अब तो बिलारी को मराठा सैनिकों के इस अपमान का मूल्य चुकाना ही पड़ेगा। सेनापति ने गरजते हुए कहा।
इसके लिए हम तैयार हैं। यह कहते हुए महारानी अपने आसन से उठ गईं, बिलारी के जीवन और मरण का संघर्ष छिड़ गया। दोनों ओर से तलवारें खनकने लगीं। छब्बीस दिन युद्ध हुआ और इस बीच मराठों ने बिलारी का दुर्ग जीत लिया और रानी को बंदिनी बना लिया। क्रोधांध साकूजी ने रानी पर कोड़े बरसाने की आज्ञा दी और अपने खेमे की तरफ लौट गया।
क्षत-वक्षित शरीर वाली सिंहनी को रस्सों से जकड़कर छत्रपति के सम्मुख उपस्थित किया गया और शिवाजी ने यह सबकुछ देखा तो वह क्रोध से कांप उठे। नारी का अपमान वह भी मेरे सैनिकों के द्वारा, यह सोचकर उनकी आत्मा कराह उठी।
साकूजी ! छत्रपति चीख उठे, यह क्या किया तुमने ? हमने मराठों की इस सेना का संगठन विदेशी आततायियों का दमन करने के लिए किया है, अपनों का विनाश करने के लिए नहीं, और इन सेनाओं ने, विजय के मद में चूर होकर, बिलारी पर जो आक्रमण किया है, उससे तो हिंदवी स्वराज्य का अपमान हुआ है, अर्थात् मेरा अपना अपमान। मेरा और मेरी मां का यह अपमान तुम्हारे संकेत पर हुआ है साकूजी।
छत्रपति के नेत्रों से क्रोध की चिंगारियां सी निकल रही थीं। साकूजी सहमकर पीछे हट गए। दरबारी कांप उठे। सैनिकों ने आगे बढ़कर सावत्रिीबाई को बंधन से मुक्त कर दिया। उन्होंने आदेश दिया, जो साकूजी ने किया वह अक्षम्य है। इसलिए इसके प्रतिकार में उसकी दोनों आंखें फोड़ दी जाएं। सावत्रिीबाई की आंखें शिवाजी के स्नेह के अश्रुओं से भीग गईं। नहीं, नहीं छत्रपति वह चीख उठीं, यह दंड अत्यंत कठोर है। सेनापति को क्षमा कर दिया जाए। यह मेरा अनुरोध है महाराज । नहीं, शिवाजी ने गंभीर वाणी में कहा, मैं अपने इस नर्णिय को परिवर्तित करने में असमर्थ हूं। यह कहते हुए वह सिंहासन से उठ खड़े हुए। मातृ शक्ति के पुजारी शिवराज की यह न्यायगाथा इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है और अनंतकाल तक वह ऐसे ही सुरक्षित रहेगी। ऐसा हमारा दृढ़ वश्विास है। बालचौपाल डेस्क
एक बार भृगु ऋषि के मन में यह जानने की इच्छा हुई कि ब्रह्मा, वष्णिु और महेश में से कौन श्रेष्ठ है। उन्होंने तीनों की परीक्षा लेने की सोची। सर्वप्रथम वह ब्रह्मा जी के पास गए। वह नद्रिा की अवस्था में थे। नद्रिा भंग होने पर उन्होंने क्रोधवश भृगु ऋषि पर शस्त्र उठा लिया। तभी उन्हें अपने अंतर्मन से सब ज्ञात हुआ तो उन्होंने ऋषि से क्षमा याचना की। इसके बाद वह भगवान शंकर के पास गए। भगवान समाधि में लीन थे। भृगु ऋषि ने उस प्रकार पैर शंकर की छाती में दे मारा। शंकर भगवान ने क्रोधवश अपना त्रिशूल उठाया। तभी मां पार्वती ने उन्हें रोका और बताया कि वह परीक्षा में असफल हो गए। अंत में भृगु ऋषि पर भगवान वष्णिु के पास गए जो अपनी भार्या सहित शेष-शैया पर वश्रिाम कर रहे थे। ऋषि ने वही प्रयोग वहां किया। छाती पर पैर पड़ने से भगवान वष्णिु की आंखें खुलीं और वह शांत स्वभाव से हाथ जोड़कर ऋषि के सामने खड़े हो गए और पूछा- भगवन, मेरे वक्ष की हड्डियों से कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आई। भृगु ऋषि ने हाथ जोड़कर प्रभु से कहा क्षमाशीलता और शांत स्वभाव ही श्रेष्ठतम गुण हैं।
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