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सर्वोच्च न्यायालय ने 26 मार्च 2014 को दोपहर में जैसे ही मुजफ्फरनगर दंगों पर निर्णय सुनाया कि दंगों के लिए पूरी तरह से उत्तर प्रदेश की सपा सरकार जिम्मेदार है राजनीतिक गलियारों में उथल-पुथल मच गई। आखिर देश की सबसे बड़ी अदालत ने छद्म सेकुलर राजनीतिक दलों को आईना दिखा दिया। कांग्रेस समेत विशेषकर वे सभी तथाकथित सेकुलर दल जो लोकसभा चुनाव के समय हमेशा भाजपा को रोकने के लिए तीसरे मोर्चे की तोता रटंत लगाए रहते हैं, सकते में आ गए। सपा प्रमुख मुलायम के साथ इन चुनावों में ही सेकुलर जाप की गलबहियां करने को उत्सुक तीसरे मोर्चे के इन सूरमाओं को मानो सांप सूंघ गया हो। वास्तव में अदालत का यह निर्णय परिवार और जाति-बिरादरी की बैसाखी पर टिके दोगले दलों के लिए एक करारा झटका है। जो अवसरवादी तथाकथित सेकुलर चरित्र के नेता और दल गुजरात और नरेंद्र मोदी को पानी पी-पीकर कोसने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते वे मुलायम और अखिलेश राज पर आए इस निर्णय पर मौन हैं। यह गहन मंथन का विषय है कि एक ही तरह के मामले पर यह दोहरा आचरण क्यों। गुजरात और उत्तर प्रदेश अब अलग-अलग क्यों दिखाई पड़ रहे हैं? जबकि गुजरात में हुए दंगों को लेकर एसआईटी की रिपोर्ट के आधार पर अदालत मोदी को क्लीन चिट दे चुकी है और आज पूरे देश में वे सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता हैं। उधर उत्तर प्रदेश में अखिलेश राज में 125 दंगों के बाद और मुजफ्फरनगर का कलंक प्रमाणित होने के बाद भी मुलायम ह्यसौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को चलीह्ण कहावत चरितार्थ कर रहे हैं।
स्वाधीनता के समय से ही 'अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो' की नीति को नजदीक से देखने वाली कांग्रेस ने आजादी के बाद से आज तक लगभग 60 वर्ष से भी ज्यादा के शासन में अंग्रेजों की उसी नीति को क्रियान्वित किया है। कांग्रेस ने पं. नेहरू के समय से ही मुस्लिम समाज को अशिक्षित, अभावग्रस्त और अंधविश्वासी बनाए रखकर उसे पंगु बनाकर वोट बैंक के रूप में यथासमय उपयोग किया। बाद में कांग्रेस से निकले ऐसे ही कई क्षेत्रीय क्षत्रपों ने इसी नीति पर चलते हुए अपने-अपने राज्यों में लुभावने सपने दिखाकर मुसलमानों को खूब बरगलाया और देश की मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की ओर से एक कृत्रिम भय का भाव उपस्थित करने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव मुसलमान के खैरख्वाह बने हैं, बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और वामपंथी, दक्षिण में करुणानिधि, जयललिता, उड़ीसा में नवीन पटनायक आदि कांग्रेस के इसी मंत्र को फलीभूत कर रहे हैं कि भाजपा के खिलाफ अनापशनाप प्रचार कर मुसलमानों को आजादी से पहले की दुर्दशा में ही रखा जाए, उनकी आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थिति को सुधारने के बजाय उन्हें बदहाली और रसातल की स्थिति में रखा जाए। तथाकथित सेकुलरवाद के नाम पर नेतृत्व के संकट से जूझते इस देश में अलग-अलग दलों की दलदल में फंसे परिवारवादी सोच के नेता तीसरे मोर्चे के नाम पर लोकसभा चुनावों में ऐनवक्त एकजुट हो जाते हैं और भारतीय जनता पार्टी की संभावित सत्ता को रोकने के लिए सारा वैरभाव मिटाकर सत्ता प्राप्ति का सपना गांठने लगते हैं। ये नेता पिछले 12 सालों से गुजरात दंगों को लगातार राजनीतिक मंचों और मीडिया में उठाने से जरा भी नहीं चूके और 1984 के सिख कत्लेआम, भागलपुर दंगों और हाल में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर दंगों सहित अब तक हुए 125 से भी अधिक दंगों पर जुबान तक नहीं खोलते। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि उनको आज तक अपना कोई ठोस सामाजिक दूरदर्शी और नि:स्वार्थ व्यक्ति प्राप्त नहीं हुआ जो उनको राजनीतिक पहचान दिलाने में सक्षम हो पाए। कांग्रेस सहित जिन-जिन दलों में अलग-अलग मुस्लिम चेहरे हैं वे मानो अपने दलों में कृपापात्र अथवा दास बनकर ही जी रहे हैं। जिन्होंने अपने अस्तित्व के लिए ही झोली फैलायी हो वे अपने समुदाय या बिरादरी का क्या उद्धार कर पाएंगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में मुजफ्फरनगर दंगों के संबंध में प्रदेश की अखिलेश सरकार को जिम्मेदार बताते हुए जो कड़ी फटकार लगाई है वह मुस्लिम समाज इन फर्जी हमदर्दों और तथाकथित संपोषकों के लिए आइना है, जो अपने दोगले चरित्र के कारण देश की आजादी के 6-7 दशकों बाद भी मुस्लिम समाज को मध्यकालीन सोच में जीने को विवश किए हुए हैं। देश के अब तक के लोकसभा चुनावों से लेकर विधानसभा चुनावों तक का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि एक दो स्वामिभक्त शागिर्दों के अतिरिक्त कांग्रेस अथवा किसी अन्य तथाकथित सेकुलरवादी राजनीतिक दल में ऐसा एक भी चेहरा नहीं है जिस पर मुस्लिम समाज गर्व की अनुभूति करे और एक स्वर में उसे अपना वास्तविक प्रतिनिधि माने।
कड़वी सच्चाई यह है कि कांग्रेस में ले-देकर 10 जनपथ के जयकारे लगाने वाले गुलाम नबी, तो सपा में नेताजी के दुलारे आजम खान से ज्यादा आगे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, इनके जनाधार और मुस्लिम समुदाय की इनके ऊपर विश्वसनीयता पर कुछ कहना तो अतिशयोक्ति ही होगा। दर्जनों चेहरे उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में कभी कोई झंडा थामे तो कभी कोई नारा लगाते देखे जा सकते हैं। शायद ऐसे ही महानुभाव मुस्लिम समाज को सत्ता के अवसरवादी ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। इन्हें मुस्लिम समाज की बुनियादी समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं, मुस्लिम नवयुवकों की गुणवत्तायुक्त शिक्षा अथवा रोजगार के अवसर जुटाने जैसी ठोस बातों से कोई मतलब नहीं, मुस्लिम महिलाओं की स्वास्थ्य चिन्ताओं और उनके सम्मान रक्षा के उपायों से दूर-दूर का वास्ता नहीं। वे तो यथास्थितिवाद के समर्थक हैं और जानते हैं कि यह समाज जितना अभावग्रस्त, संकटापन्न और कृत्रिम असुरक्षा के बाड़े में बन्द रहेगा उतनी इनकी दुकान चलेगी। ऐसे ही लोग देशी-विदेशी चन्दे के सहारे मुसलमानों की दीन-हीन स्थिति को परोसकर स्वयं को चमकाते हुए मुसलमानों को और अधिक पंगु बना रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के द्वारा गुजरात दंगों में एसआईटी की जांच के उपरान्त क्लीनचिट पाने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के भावी प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी को दंगों में घसीटने से नहीं चूकते क्योंकि इन सभी को भय मोदी का ही है जिन्होंने गुजरात में बिना भेदभाव किए मुस्लिम समाज को स्वावलंबन एवं स्वाभिमानपूर्ण जीवन जीने की कला सिखायी है। मत-सम्प्रदाय के नाम पर अब तक अपनी दुकान चलाने वाली कांग्रेस सहित सभी दलों को लगता है कि देशभर में चल रही नरेन्द्र मोदी की लहर में यदि मुस्लिम समाज भी बह गया तो यह ऐतिहासिक जागृति उनके हाथ से मुसलमानों के सुरक्षित वोटों को छीन लेगी और हमेशा से शोषित और भ्रमित हुए मुस्लिम समाज की आंखें खुल जाएंगी।
मुजफ्फरनगर दंगा, सवेरच्च न्यायालय ने कहा-
* अदालत ने समय पर जरूरी कदम न उठाने के लिए यूपी सरकार को लापरवाही का जिम्मेदार ठहराया है।
* प्रदेश सरकार से हालात भांपने में चूक हुई, शुरुआत में जरूरी कदम नहीं उठाए। राज्य और केन्द्र का खुफिया तंत्र भी नाकाम रहा।
* अदालत ने दंगे की जांच सीबीआई या विशेष जांच दल को सौंपने की मांग ठुकरा दी।
* हिंंसा में मरने वाले परिजनों को 15 लाख का रुपए मुआवजा दिया जाए
* दुष्कर्म पीडि़ताओं को 5-5 लाख रुपए मुआवजा और सुरक्षा दी जाए
* आरोपियों को पकड़ने के गंभीर प्रयास हों। कोई बहाना नहीं चलेगा
* किरथल गांव से बरामद एके 47 व 9 एमएम कारतूस मामले में लोगों की पहचान कर शस्त्र अधिनियम में की जाए कार्रवाई
* अपने गांव वापस जाने के बदले जो 5-5 लाख रु. का मुआवजा ले चुके हैं चाहें तो मुआवजा वापस लिए बिना गांव में बस सकते हैं।
जिम्मेदारी से बच नहीं सकती उत्तर प्रदेश सरकार
-अवनि राय, सचिव आरएसपी
उत्तर प्रदेश हो अथवा कोई भी अन्य प्रदेश जहां भी दंगे हुए हैं स्वाभाविक तौर पर सत्ता में बैठी सरकारें इससे स्वयं को अलग नहीं कर सकतीं। मुजफ्फरनगर के दंगों के लिए ठीक इसी प्रकार उतर प्रदेश सरकार जिम्मेदार कही जा सकती है। ये दंगे किसी व्यक्ति ने करवाए हों अथवा संगठनों ने- मौजूदा सरकार को इन पर नजर रखनी चाहिए थी। जिन कारणों से जानमाल की हानि हुई अथवा आगजनी हुई उनको ढूंढ़ने का दायित्व केवल प्रदेश सरकार का बनता है, आगे भी ऐसी संभावित घटनाओं पर निगरानी भी राज्य सरकार के तंत्र को ही रखनी पड़ेगी। सरकार को चुस्त-दुरुस्त रहना होगा। ऐसी अमानवीय घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो यह सभी राजनीतिक दलों को ईमानदारी से सोचना चाहिए।
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