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– डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल-
विद्वानों ने झूठ के तीन प्रकार बताए हैं-झूठ, सफेद झूठ तथा आंकड़ों से युक्त झूठ। यदि कोई व्यक्ति जनवरी मास से किसी भी प्रमुख समाचार पत्र को देखे तो प्राय: वह संप्रग सरकार के महंगे विज्ञापनों से भरपूर दिखेंगे। इसी के साथ कोई भी टीवी चैनल खोलिए तो भारतीय जनता को उकसाने, उकताने वाले प्रति मिनट लाखों रुपए के खर्चों से लम्बे-लम्बे वार्तालाप के रूप में हल्के विज्ञापन दिखाई देंगे। इन विज्ञापनों में भारत के विभिन्न वर्गों-किसान, मजदूर, सैनिक, युवा व महिला में सफलताओं का गुणगान किया जाता है। परन्तु यदि पिछले दस वर्षों (2004-2014) में देश-विदेश के विशेषज्ञों, विद्वानों की रपटें, सर्वेक्षण या सूक्ष्म विश्लेषण का अवलोकन करें तो यथार्थ स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत, शोचनीय तथा चिंताजनक है।
जर्जर आर्थिक अवस्था
जहां स्वतंत्रता के पश्चात भारत का एक रुपया अमरीका के एक डॉलर के बराबर था, आज उसका अवमूल्यन होते-होते 62 रुपए से अधिक का एक डॉलर हो गया है। जहां दस वर्ष जीडीपी दर अत्यधिक थी, वहीं पिछले वर्ष की तीन महीनों (अक्तूबर-दिसम्बर, 2013) में वह केवल 4.5 प्रतिशत रह गई है। प्रमुख अर्थशास्त्री एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च सीनियर फेलो राजकुमार के अनुसार यह 1.1 प्रतिशत घटी है। उद्योग चैम्बर सीआईआई के महासचिव चन्द्रजीत बनर्जी के अनुसार इसके 4.7 से अधिक बढ़ने की संभावना नहीं है। भारत के वित्त मंत्रालय के मुख्य सलाहकार कौशिक बसु ने अमरीका के एक अध्ययन संस्थान में दिए व्याख्यान में आर्थिक क्षेत्रों में भारत सरकार की उदासीनता तथा नकारात्मकता के कारण बतलाते हुए सुधारों में अनिश्चितता की स्थिति दर्शायी है। संप्रग सरकार जिस आधार पर गरीबी रेखा तय कर रही है उससे जीवन की निम्नतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं होतीं।
मैकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार भले ही सरकारी आंकड़ों में 27 करोड़ लोग गरीब हैं, लेकिन अब भी 68 करोड़ लोग ऐसे हैं जिहें बुनियादी जरूरतों के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। इस विश्वव्यापी सर्वेक्षण के अनुसार भारत में विश्व के समान मध्यम वर्ग है ही नहीं। इसके अनुसार मध्यम वर्ग के लिए दैनिक आय कम से कम 10 डॉलर प्रतिदिन अर्थात वर्तमान हिसाब से 620 रुपया प्रतिदिन होनी चाहिए। इस श्रेणी में मुसलमानों केवल पांच प्रतिशत आते हैं। शेष बचता है एक छोटा सा अमीर वर्ग जो करोड़ों-अरबों में खेलता है। इसमें कुछ अमीर तथा कुछ राजनीतिज्ञ आते हैं।
वैश्विक भूख सूचकांक (अक्तूबर 2010) की रपट के अनुसार भारत चिंताजनक अवस्था में है। 84 विकासशील देशों में भारत का स्थान 67वां है। भारत की स्थिति सूडान तथा रवांडा जैसे विश्व के गरीब देशों से भी निम्न है। एक रपट के अनुसार विश्व के 40 प्रतिशत गरीब अकेले भारत में हैं। कुपोषण में भारत की स्थिति विश्व में शर्मनाक है। भारतीय किसान की हालत दयनीय है। भारत के ग्राम तथा किसान वहीं खड़े हैं, जहां स्वतंत्रता के समय खड़े हुए थे। किसानों की आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। संप्रग सरकार ने तो महंगाई, घोटालों, भ्रष्टाचार तथा काले धन में विश्व रिकॉर्ड बनाया है, जो किसी से भी छिपा नहीं है।
पिछले पांच वर्ष में संप्रग सरकार के शासनकाल में उद्योग, छोटे-मध्यम उद्योग तथा विदेशी व्यापार के आंकड़े भयभीत करने वाली स्थिति में पहुंच गए हैं। सरकार ने जनभावना के विपरीत 20 सितम्बर, 2012 को एक अधिसूचना द्वारा विदेशी पूंजी के निवेश (एफडीआई) की घोषणा कर दी। अनेक देशों में विफल इस कृत्रिम योजना से भारतीयों को मूंगेरीलाल के स्वप्न दिखाए गए। वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा, इससे छोटे दुकानदारों तथा लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि इससे उद्योगों में गतिशीलता, किसानों को प्राणवायु तथा रोजगार के अवसर मिलेंगे। सही बात यह है कि किसानों का लाखों टन अनाज सड़ता रहा है। प्रश्न है कि क्या भारत का आर्थिक विकास अब विदेशी निवेश के बलबूते पर होगा? आखिर गुलामी का शिकंजा कब तक कसता रहेगा?
लोकतंत्र की हिलती जड़ें
देश की 15वीं संसद का अभी कार्यकाल पूरा हुआ। सांसदों की स्थिति को देखें तो ज्ञात होता है कि इसमें 235 करोड़पति सदस्य थे। इनमें 76 ऐसे संसद सदस्य थे जिनके विरुद्ध गबन, छल, बलात्कार, डकैती जैसे भयंकर अपराधों के मुकदमे चल रहे हैं। देश के हालात कैसे भी रहंे, सांसदों ने मनमाने ढंग से अपने वेतन, भत्ते तथा अनेक सुविधाएं बढ़ाईं। चुनाव में खर्च की सीमा भी 40 लाख रुपए से बढ़ाकर 70 लाख रुपए निश्चित की। इससे तो कोई पढ़ा लिखा सामान्य व्यक्ति चुनकर न आ सकेगा। महात्मा गांधी ने इस व्यवस्था को बहुत पहले ही ह्यअधपकीह्ण की उपमा दी थी। प्रश्न है कि क्या यह लोकतंत्र है या धनिकतंत्र? और यह तब जब की संसद
का कामकाज रोजाना घटता जा रहा है।
1952-1957 की पहली संसद में पांच वर्षों में 333 बिल पास हुए थे तथा केवल सात बिल रह गए थे।
पिछले पांच वर्षों अर्थात 2009-2014 में, कुल 165 बिल यानि औसतन केवल 33 बिल पास हुए तथा शेष 72 बिल रह गए। 13 फरवरी, 2014 का दिन विश्व में भारतीय लोकतंत्र की जड़े हिलने का दिवस था, शर्मनाक दिवस था। संसद में मिर्ची पाउडर स्प्रे छिड़का गया, 17 संसद सदस्यों को निलम्बित किया गया। नि:संदेह यह घटना भारतीय लोकतंत्र पर कलंक थी। यदि कोई संप्रग नेता यह दावा करे कि हमने दस सालों में लोकतांत्रिक परम्पराओं को स्वस्थ किया है तो इससे भद्दा मजाक क्या हो सकता है?
125 करोड़ की जनसंख्या वाले विश्व के महान लोकतांत्रिक देश के नागरिकों को शर्म तो तब भी आती है जब दिल्ली में निर्भया जैसे काण्ड होते हैं तथा संप्रग सरकार फ्रांस के लुई-16 की भांति महलों में परदों से देखती रहती है कि क्या हुआ। वह एक सप्ताह तक मौन साधे रहती है। शर्म तो तब भी आती है जब पूर्वोत्तर के भारतीय नागरिकों को, युवा छात्र-छात्राओं को चेन्नई, बंगलुरू, मुम्बई से लाखों की संख्या में भागने को मजबूर किया जाता है। असीम दु:ख तब भी होता है जब दिल्ली की सड़कों पर उत्तर-पूर्व के छात्र को मार दिया जाता है।
शर्म तो तब भी आती है जब भारत का नागरिक देश के अन्दर या बाहर स्वयं को असुरक्षित पाता है। इतना ही नहीं वीआईपी नेताओं के लिए केवल 13 हेलीकॉप्टर या वायुयानों के इंजन खरीदने में हजारों करोड़ों के घोटाले की परतें खुल रही हैं। जहां केवल 2007-2011 के दौरान 10000 करोड़ की रिश्वत दी गई हो। शर्म तब भी आती है जहां भारत की समुद्री सुरक्षा में लगी 14 पनडुब्बियों में से महत्वपूर्ण पनडुब्बी ने जल समाधि ले ली हो, शर्म तो तब आती है जब एक विश्वविद्यालय के इन्वायरमेन्ट इन्फोर्मेशन इन्डैक्स 2014 के अनुसार भारत पर्यावरण में विश्व के 178 देशों में नियमानुसार 174 वें स्थान पर हो।
शिक्षा का गिरता स्तर
गरीबी के साथ अशिक्षा ने भी भारतीय लोकतंत्र को कमजोर कर दिया है। विश्वविद्यालय से प्राइमरी शिक्षा तक भारत का गुणात्मक स्तर तेजी से कम हुआ है। नेशनल एसेसमेन्ट एण्ड एक्रेडिटेशन काउंसिल (एऐऐसी) के अनुसार देश में 89 प्रतिशत उच्च शिक्षा संस्थाएं सामान्य या सामान्य से निम्न हैं। देश में कुल 630 विश्वविद्यालयों में एक भी सामान्य से ऊपर नहीं है। इनमें भी 179 विश्वविद्यालय सामान्य या इससे नीचे हैं। अर्थात 62 प्रतिशत केवल सामान्य स्तर पर आते हैं। संप्रग सरकार भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए बड़ी आतुर रही है।
उच्चतर शिक्षा में भारत के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ऊर्जा हर स्तर पर परीक्षा के स्वरूप पर ही खर्च होती रही। देश के प्रधानमंत्री की विशिष्ट सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी. एन. राव का अप्रैल 2011 का कथन सही है कि भारत में परीक्षा व्यवस्था तो है परन्तु ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे परीक्षाओं से बचकर युवाओं को कुछ महत्वपूर्ण करने में उपयोगी बनायें। यूनेस्को की ग्लोबल मॉनिटरिंग रपट के अनुसार भारत में दुनिया के सर्वाधिक 37 प्रतिशत अनपढ़ वयस्क हैं। इसका कारण भारत में अमीर तथा गरीब के बीच शिक्षा स्तर में भारी असमानता होना बताया है। समय-समय पर भारत सरकार ने अनेक बार शिक्षा नीति बनाई पर कभी उसका क्रियान्वयन न हुआ। राजीव गांधी की नई शिक्षा नीति की भांति 2005 में यशपाल कमेटी के भी सुझाव उपयोगी साबित न हुए। शिक्षा न अपने देश की जड़ों से जुड़ी है, न रटन्त प्रणाली कम हुई और न ही बच्चों के बस्तों का बोझ कम हुआ। भारत की भाषा नीति राजनीति की चेरी बन गई। भारतीय संविधान की भावना के अनुसार अभी तक कोई भाषा भारत की राष्ट्रभाषा भी नहीं बन सकी। संस्कृत भाषा की उपेक्षा, मातृभाषा की अवहेलना तथा अंग्रेजी से लगाव, जिसका महात्मा गांधी विरोध करते रहे, वह प्रियदर्शिनी बन गई। सेकुलरवाद के नाम पर देश के गौरवशाली इतिहास को हटाया गया है।
सोनिया-मनमोहन सिंह के तीन ब्रह्मास्त्र
वैसे तो मनरेगा, नेशनल रूरल हेल्थ मिशन आदि अनेक सरकारी योजनाएं बेरोजगारी दूर करने के स्वप्न दिखलाती रहीं। पर उनके ही नेता योजनाओं की सार्थकता को निरस्त करते हैं। उदाहरणत: भारत की लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने सुलभ इन्टरनेशनल की ओर से आयोजित स्वच्छता का समाजशास्त्र पर बोलते हुए भारत के कुल 60933 शहरों में से सिर्फ 160 में ही सीवेज की व्यवस्था का होना बतलाया, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति शून्य है। मनरेगा के सन्दर्भ में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि योजना जिसके पास पहुंचनी चाहिए, नहीं पहुंची। जांच का विषय योजना की सफलता नहीं है बल्कि यह है कि ये कहां-कहां पूर्ण असफल या आंशिक रूप से लागू हुई है।
2009 में सोनिया गांधी ने एक शक्तिशाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति का निर्माण किया जिसके आधार पर तीन विषयों-शिक्षा का अधिकार अधिनियम, काम करने का अधिकार (मनरेगा) तथा भोजन का अधिकार (फूड सिक्योरिटी एक्ट) भारत को अपनी विशिष्ट देन बताती है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का अधिकार तो मिला, परन्तु क्रियान्वयन की गति अत्यन्त धीमी है। मुख्य समस्या बच्चों की अनुपस्थिति है। विद्यालय में कम से कम आवश्यक सामग्री है। जाते-जाते सरकार ने मनरेगा में 100 दिन से बढ़ाकर 150 दिन रोजगार की बात कही। पर क्रियान्वयन से उन्हें क्या मतलब। कहने को तो भोजन का भी अधिकार दिया। जन वितरण प्रणाली अत्यधिक दूषित हो तो इसके क्रियान्वयन में पूरा सन्देह है। भारतीय आकलन ऑफिस (आईईओ) की रपट के अनुसार सरकार द्वारा एक रुपए के भोजन पर तीन रुपए पैंसठ पैसे का खर्च आता है, ऐसे में भ्रष्टाचार से मुक्ति मिले तो कोई मार्ग मिले।
इतना ही नहीं, भारत सरकार ने संसद का कार्यकाल खत्म होने के पश्चात भी भागते-भागते आगामी चुनाव को प्रभावित करने के लिए भारतीय नागरिकों के विभिन्न वर्गों के लिए भानुमति का पिटारा खोल दिया है। वेतन आयोग की नियुक्ति, सरकारी कर्मचारी को सौ प्रतिशत महंगाई भत्ता, बेरोजगारों का 100 दिन से बढ़ाकर 150 दिन काम देने की घोषणा, पेंशनधारियों का मासिक वेतन कम से कम एक हजार करना तथा अपनी राजनीति के प्रमुख नायकों-अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज को अनेक सुविधाएं देने का आश्वासन दिया, वस्तुत: जिसके वे अधिकारी नहीं हैं। निष्कर्ष के रूप में उपरोक्त संक्षिप्त तथ्यों के आधार पर भारत का प्रबुद्ध नागरिक सोचता है कि भारत निर्माण के प्रमाण, तर्क-संगत, अकारण तथा सही हैं अथवा विश्व तथा भारत के विभिन्न विद्वानों की जांच रपट, सर्वेक्षण तथा विश्लेषण सत्य की कसौटी पर खरे उतरते है?
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