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कहते हैं समय हर जख्म भर देता है मगर भारत चीन युद्ध की टीस पांच दशक बाद फिर से हरी हो गई है। 44 वर्ष पहले 'इंडियाज चाइना वार' नामक पुस्तक लिखकर हलचल मचाने वाले ब्रिटिश पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने 1962 के उस युद्ध से जुड़ी हेंडरसन-भगत रिपोर्ट को फिर सार्वजनिक चर्चा में ला दिया है।
साउथ ब्लॉक की अलमारियों में दबे जिन पन्नों को धूप भी नहीं छू सकती थी एकाएक उनसे जुड़ी बातें ट्विटर और फेसबुक पर फड़फड़ाने लगी हैं।
साइबर मीडिया के मुक्त संसार में देश के पहले प्रधानमंत्री की कार्यशैली के साथ शुरू होती यह बातें तत्कालीन सरकार की नीति और कुशलता पर तीखे सवालों के साथ समाप्त होती हैं।
चीनी माल की जिंदगी भले चार दिन हो, भारत में चर्चा के मुद्दे के तौर पर चीनी धोखे की कहानी ना घिसी है ना पुरानी हुई है। आज भी सब जानना चाहते हैं कि ड्रैगन यदि मित्र था तो शत्रुता की शुरुआत कैसे हुई और यदि दुश्मन था तो हम कैसे उसके झांसे में आ गए!
हेंडरसन-भगत रिपोर्ट को दबा दिए जाने की वजह भी शायद जनता की यही अति जिज्ञासा रही। यह तथ्य है कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के चमकदार व्यक्तित्व का तिलिस्म बासठ के युद्ध में बिखर गया था। यह रिपोर्ट संभवत: जवाहरलाल नेहरू के उसी रूप को बिंदुवार ढंग से सामने रखती है जो जनता के लिए एकदम अनजाना है, और संभवत: इसी कारण यह रिपोर्ट आधिकारिक तौर पर कभी देश की जनता के सामने नहीं आ सकी। वैसे भी नेहरू की काबिलियत पर उठी यह कोई पहली शंका नहीं है …काफिले बसते गए, हिन्दोस्तां बनता गया, की तर्ज में डूबकर एक पुरातन सांस्कृतिक राष्ट्र का जो सपनीला चित्र वे जिंदगी भर खींचते रहे, आक्रांताओं को अतिथि बताने वाली सोच का जिस तरह वे समर्थन करते रहे उसे भारत का मानस कभी स्वीकार नहीं कर सका। प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक पैट्रिक फ्रेंच जब नेहरू लिखित डिस्कवरी ऑफ इंडिया को इतिहास से परे रूमानी ख्याल बताते हैं तो साफ हो जाता है कि दुनिया साफ बात करने लगी है और गढ़ी हुई समझदार छवि को परखे बगैर आगे की पीढि़यों की तरफ सिर्फ पूजने के लिए नहीं बढ़ाया जा सकता।
मगर राष्ट्रीय महत्व के तथ्य क्या सिर्फ इस कारण दबा देने चाहिएं कि उससे व्यक्ति विशेष की बात गलत ठहरती है या छवि प्रभावित होती है? हो सकता है इस रिपोर्ट में भारत की विदेश नीति की कुछ ऐसी भूलों की ओर भी संकेत रहा हो जिनसे भारतीय नेतृत्व की सोच और गलतियों का दुनिया को पता चलता हो, मगर तब दबा दी गई यह बात क्या हमेशा के लिए दबी रह सकती है!
दुनिया भर में एक तय समय के बाद अतिगोपनीय दस्तावेजों को भी वर्गीकृत श्रेणी से निकालकर सार्वजनिक सूचनाओं की श्रेणी में डाल दिया जाता है, फिर इस रपट के साथ ऐसा क्या है कि इसे बस्ते से बाहर ही नहीं निकाला जा सकता!
वैसे, शब्दश: सही तथ्यात्मक जानकारी लेने के प्रयासों को नियमपूर्ण ढंग से रोक भी दिया जाए मगर उन चर्चाओं पर आज कोई कैसे लगाम लगा सकता है जो चिंदी-चिंदी आती हैं और सोशल मीडिया पर बादल की तरह छा जाती हैं। क्या सूचना क्रांति के युग में हर तरफ से छन-छनकर आती बातें रुक सकती हैं। क्या नेविल मैक्सवेल द्वारा वेबसाइट पर डाली गई सामग्री सिर्फ भारत सरकार के रोकने से पूरी दुनिया की पहुंच से दूर हो जाएगी? 2014 में किसी जानकारी को रोकने के लिए 1963 के तरीके अपनाना ज्यादा सही है या साहसपूर्वक जनता से सच साझा कर देश द्वारा अपरिहार्य स्थितियों में अपनाई नीतियों पर लोकमत का निर्माण करना। किसी चमकीले नायक का भ्रम टूटना जन का तंत्र से विश्वास टूटने के मुकाबले कम खतरनाक है।
बहरहाल, इस रिपोर्ट ने पुराने खजाने की एक और याद ताजा कर दी है। पाञ्चजन्य अभिलेखागार में सुरक्षित 1962 के उन पन्नों का उल्लेख आज जरूरी है जहां पत्रकारिता का राष्ट्रधर्म निभाने वालों ने बार-बार सच बताने का जोखिम उठाया और बदले में सरकार से चेतावनी पत्र का पुरस्कार पाया था। जनता सच जानना चाहती थी हमने बताया, आज फिर जनता कुछ जानना चाहती है, सरकार को सच बताना चाहिए।
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