हिन्दुत्व और पंडित जवाहर लाल नेहरू
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डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
यह भारतीय इतिहास का विचित्र संयोग है कि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के दो महान दिग्गज महात्मा गांधी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी गहरी घनिष्ठता के कारण गुरु तथा शिष्य के रूप में माने जाते हैं पर भारतीय जीवन की मूल धारा हिन्दुत्व के सन्दर्भ में दोनों परस्पर एक-दूसरे से बिल्कुल अलग चिंतन विचार तथा व्यवहार में थे। जहां महात्मा गांधी अपने को हिन्दू कहलाने में गौरव, इसके अभाव में मृत्यु तक का आलिंगन करने को उत्सुक तथा हिन्दू धर्म को अपने श्रेष्ठ कायोंर् का प्रेरक तथा मार्गदर्शक मानते थे, वहीं पं. नेहरू अपना जन्म हिन्दू के घर होना ह्यसंयोगह्ण मानते थे तथा जिन्हें अपने जीवन में हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म तथा हिन्दू संस्कृति से किंचित भी लगाव न था। जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसे भारत के अस्तित्व ने अपने नवयुवक शिष्य विवेकानन्द जैसे नास्तिक को विश्व का महानतम आस्तिक बना दिया था, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू को आस्तिक न बना सके। वस्तुत: पं. नेहरू महात्मा गांधी के व्यक्तित्व से प्रभावित थे, उनके दर्शन से नहीं। (देखें नेहरू की ह्यएन ऑटोबायोग्राफीह्ण, पृ. 508) गांधी अतीत से प्रेरक लेते थे, नेहरू भारत के अतीत से चिढ़ते थे। गांधी पाश्चात्य अन्धानुकाम तथा मार्क्सवादी चिन्तके के कटु विरोधी थे, नेहरू पूर्णत: पाश्चात्य रंग में रचे-पचे थे तथा मार्क्सवाद के समर्थक थे। सच बात यह है कि जब महात्मा गांधी अपने भाषणों अथवा वार्तालाप के बीच-बीच में ह्यईश्वरह्ण शब्द का उच्चारण करते तो नेहरू इसे खतरनाक प्रक्रिया का उदाहरण बतलाते। विश्व के वर्तमान महान अमरीकन नास्तिक रस्क डिकोन्स ने पंडित नेहरू को नास्तिक कहा है (देखें ह्यद गॉड डिल्यूशनह्ण, 2007, पृ. 66)। रूस के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. आर. सलोवास्की ने नेहरू को व्यक्तिपरक समाजवादी कहा है जो देश की सबसे बड़ी बुर्जुवा पार्टी का नायक रहा। प्रसिद्ध इतिहासकार मार्टिशन ने उन्हें मार्क्स के विचार का समर्थक कहा (देखें ह्यजवाहरलाल नेहरू हिज पॉलिटिकल व्यूजह्ण, मास्को, 1989)। परन्तु प्राय: सभी ने पं. नेहरू के व्यक्तित्व को पेचीदा, उलझन भरा तथा अन्तर्द्वन्द्व से पूर्व अस्थिर तथा विवादास्पद माना है। उनके धार्मिक चिन्तन तथा व्यवहार को समझने के लिए उनकी पारिवारिक स्थिति तथा मानसिक विकास को समझना अनिवार्य होगा।
पं. नेहरू के पूर्वज कश्मीर के सारस्वत ब्राह्मण थे। 1916 में मुगल शासक फरुखेशियर के कहने पर उनका परिवार दिल्ली में रहने लगा था। ये नहर के किनारे मकान होने पर ह्यनेहरूह्ण कहलाये। 1857 के काल में पं. नेहरू के पितामह गंगाधर अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के दिल्ली चांदनी चौक के सर्वोच्च पुलिस अधिकारी थे। दिल्ली में अंग्रेज सेना के आक्रमण पर ये भय से परिवार सहित आगरा भाग गए थे। जब गंगाधर केवल 34 वर्ष के थे। उनकी मृत्यु के तीन माह बाद 6 मई, 1861 को पं. नेहरू के पिता मोतीलाल का जन्म हुआ। जिसका पालन पोषण उनके बड़े भाई वंशीधर तथा नन्दलाल ने किया। मोतीलाल ने 2 वर्ष की आयु तक काजी सदरुद्दीन से अरबी तथा फारसी सीखी थी। इसके पश्चात वे म्योर कालेज में पढ़े थे जहां अंग्रेज प्रिंसिपल तथा अंग्रेज अध्यापक इनके प्रभावित थे। आगे जाकर उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत शुरू की थी। उन्होंने शीघ्र ही प्रसिद्धि तथा समृद्धि प्राप्त की थी। मोतीलाल का जीवन ऐश्वर्यपूर्ण तथा मुगलिया ठाट-बाट का था। वे तत्कालीन उत्तर प्रदेश में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1904 में कार खरीदी थी। मोतीलाल बढि़या खाने तथा बढि़या शराब (शैंपेन) पीने के इतने शौकीन थे कि जब वे असहयोग आन्दोलन में पहली बार जेल गए तब भी उनके लिए उत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर हरकोर्ट बटलर द्वारा नित्य जेल में एक अंगरक्षक द्वारा शराब भेजी जाती थी। (देखें, बी. आर. नन्दा, पं मोतीलाल नेहरू) दिल्ली 1961 पृ. 141, रफीक जकरिया सन, ह्यए स्टडी ऑफ नेहरूह्ण (मुम्बई) पृ. 173।
पं. जवाहरलाल नेहरू का लालन -पालन बड़े प्यार में हुआ था। वे स्वभाव से हठीले, जिद्दी तथा गुस्सैल थे। उनकी कटु आलोचना उनकी छोटी बहन श्रीमती कृष्ण हती सिंह ने अपने संस्मरणों में की है। उनकी प्रारम्भिक पढ़ाई घर पर ही अंग्रेज तथा आयरिश अध्यापकों के द्वारा हुई। 1890-1900 के दौरान घर में प्राय: यह आशा थी कि प्रत्येक व्यक्ति अंग्रेजी में ही बातचीत करेगा। 15 वर्ष की आयु में अर्थात 1905 में मोतीलाल नेहरू अपनी यूरोप यात्रा में इन्हें अपने साथ ले गये थे। इनकी शिक्षा हैरो, कैम्ब्रिज तथा इनर टैम्पिल में हुई। अर्थात सात वर्ष तक वे इंलैण्ड ही रहे। भारत आने पर उन्हें भारत देश पराया सा लगा। घर का वातावरण पहले से ही मुगलिया नवाब तथा अंग्रेजीयत से परिपूर्ण था। 1912 में पं. नेहरू ने कांग्रेस के बांकीपुर अधिवेशन में भाग लिया था तथा इसे एक पिकनिक से अधिक न समझा। वस्तुत: यह अधिवेशन कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ. ह्यूम की कुछ महीने पहले मृत्यु को समर्पित था, तथा तत्कालीन कांग्रेसी नेता अपने भाषणों में ह्यूम को महिमामण्डित करने में लगे थे। 1919 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में उनकी पहली बार महात्मा गांधी से भेंट हुई थी। पण्डित नेहरू ने जैसा कि उन्होंने अपनी ह्यआत्मकथाह्ण (देखें पृष्ठ 596) में लिखा है कि अपने को पूरब-पश्चिम का विचित्र मिश्रण पाया, सभी जगह अजनबी, जिसका कोई भी घर नहीं।ह्ण पं. नेहरू की जीवनी के प्रसिद्ध लेखक माइकेल ब्रीचर ने माना कि हिन्दू होकर उनका जीवन हिन्दुत्व से कटा था। (देखें, नेहरू-ए पॉलिटिकल बायोग्राफी, 1959 पृ. 3)।
पं. नेहरू का धार्मिक चिन्तन
पं.नेहरू के धार्मिक विचार जानने से पूर्व यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दुत्व अपना हिन्दूपन या भारतीयता का अर्थ उस जीवन प्रणाली से है जो अक्षुण्ण रूप से सहस्त्रों वषोंर् से निरन्तर विकसित ही पनपी है। भारत में धर्म का अर्थ कर्तव्य, नैतिकता, आचरण, जीवन के नैतिक मूल्य तथा आध्यात्मिकता रहे हैं। यह ईसाइयों के ह्यरिलीजनह्ण या इस्लाम के ह्यमजहबह्ण समानार्थी या पर्यायवाची नहीं हैं। विश्व में अन्यत्र पंथ का अर्थ पूजा पद्धति या उपासना से जोड़ा गया है जो हिन्दू धर्म में नहीं है।
पं. नेहरू ने धर्म के बारे में अपनी ह्यआत्मकथाह्ण में लिखा है भारत में तथा अन्यत्र भी धर्म या कम से कम संगठित धर्म को देखकर मुझे अत्यंत घृणा होती है, और मैंने प्राय: इसकी भर्त्सना की है तथा इसको पूर्णत: नष्ट करने की इच्छा की है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसने प्राय: सदैव अंधविश्वास, प्रतिक्रिया, शोषण, मतान्धता और विशेष हितों को ही प्रश्रय दिया है।ह्ण
पं. नेहरू ने यह चाहा कि, ह्यसामाजिक नियमों में, विवाह में, उत्तराधिकार के नियमों में, दिवानी और फौजदारी न्याय में, तथा अन्य प्रकार की बात धार्मिक विश्वासों से स्वतंत्र रहे।ह्ण आत्मा के बारे में कहा, ह्यकोई वस्तु आत्मा है या मृत्यु के पश्चात इसका कोई अस्तित्व रहता या नहीं, मैं नहीं मानता। इसका महत्व इस प्रश्न में है कि मुझे इससे जरा भी परेशानी नहीं होती।ह्ण (देखे ह्यडिस्कवरी ऑफ इंडियाह्ण, पृ. 15-16)
पंडित नेहरू के धर्म के सन्दर्भ में विचार कार्ल मार्क्स की भांति है जो ह्यधर्म को अफीम की पुडि़याह्ण मानता था। (देखें ह्यगिल्मप्सेन ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्रीह्ण), पृ. 37, 84-85, 141, 503) पंडित नेहरू ने धर्म को राजनीति तथा साम्राज्यवाद की चोरी मानते हुए ऐतिहासिक सन्दर्भ में लिखा, ह्यसामान्यत: धर्म मनुष्य को अन्धेरे में रखता है। सोचने की दृष्टि कम करता है। दूसरों के प्रति क्रूर था असहिष्णु बनाता है। इससे हजारों लोग मारे जाते हैं। इसके नाम पर अनेक अपराध किए जाते हैं। धर्म राजनीति तथा साम्राज्यवाद का दासी बन जाता है। सभी युग के शासक इसे जनता पर नियंत्रण के रूप में अपनाते हैं तथा सामाजिक व्यवस्था में एक दैवीय शस्त्र के रूप में रखते हैं।ह्ण
पं. नेहरू ने अपने भाषणों में प्रगति के लिए धर्म को सामाजिक ढांचे एवं संस्थाओं से अलग रखने को कहा। धर्म के राजनीति में प्रयोग को नैतिक अवमूल्यन कहा तथा मस्तिष्क को रूढि़वादी बनाने वाला कहा (देखें, नेहरू, स्पीचेज, भाग तीन पृ. 432) महात्मा गांधी को लिखे पत्रों में धर्म की कटु आलोचना की (देखें, नेहरू पत्र मार्च 7, 1933 व मई, 5, 1933)
प्रसिद्ध लेखिका डोरे. थी. नार्मन ने भारतीय राष्ट्रीयता की प्रथम लहर धार्मिक तथा हिन्दू माता (देखें, नेहरू, द फर्स्ट सिक्स्टी ईयर्स) परन्तु पंडित नेहरू ने धार्मिक सुधारों के शास्त्रीय आधार की कटु आलोचना की। उन्होंने भारतीय इतिहास का विश्लेषण करते हुए जहां यूरोपियनों के भ्रमित प्रचार की भांति भारत पर आर्यों के आक्रमण की बात की, वहीं स्वामी दयानन्द व उनके आर्यसमाज को एक जिहादी आन्दोलन बताया (देखें ह्यद डिस्कवरी ऑफ इंडियाह्ण।
उन्होंने लिखा कि हिन्दू धर्म की कुछ सामाजिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों की नाराजगी की वजह से बहुत से हिन्दू, ईसाई, पंथ की ओर खींचे और बंगाल में भी मशहूर आदमियों ने भी अपना धर्म बदला। इसके विपरीत भारत में इस्लाम मजहब तथा मुस्लिम आक्रमणों के प्रति रवैया अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रहा। उदाहरण के रूप में महमूद गजनवी के सन्दर्भ में जिसने भारत पर सत्रह आक्रमण किए थे। अपने एक पत्र में अपनी पुत्री को लिखते हुए महमूद की भयंकर लूट तथा मजहबी अत्याचारों का वर्णन करते हुए केवल महमूह गजनवी द्वारा कथित ह्यभारतीय मंदिरों की स्थापत्य कला की श्रेष्ठताह्ण) का ही वर्णन किया शेष को छोड़ दिया। (देखें, पिता का पुत्र के नाम पत्र, 2 जून, 1932 का पत्र)
धर्म के प्रति व्यवहारिक पक्ष
कहने की आवश्ककता नहीं कि पं. नेहरू के स्वतंत्रता से पूर्व तथा देश के प्रधानमंत्री बनने के पश्चात धर्म को न केवल सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से प्रतिबंधित किया, बल्कि अपनी विचारधारा तथा दर्शन के आधार पर भी। (देखें ऐ.डी. लिटमैन,ह्यद फिलोसोफिक्ल न्यूज ऑफ जवाहरलालह्ण, पृं. 120) के जीवन पर हिन्दू प्रतिरोध तथा मुस्लिम तुष्टीकरण करते रहे। उन्होंने हिन्दुओं को ह्यकाफिरह्ण तो नहीं कहा, परन्तु ह्यसाम्प्रदायिकह्ण कहने में कोई कसर न छोड़ी। प्रसिद्ध विद्वान डा. बी. आर. नन्दा का विचार है कि भारतीय कभी भी, यहां तक की सम्राट अकबर के काल में मिश्रित संस्कृति के प्रथम प्रतिपादकों में से नेहरू नम्बर वन बन गए। उन्हीं के काल में भारत का संविधान ह्यइंडिया दैट इज भारतह्ण कहलाया। जिसमें से भारतीय संस्कृति को पूर्णत: निष्कासित कर दिया गया। एक विद्वान के अनुसार उन्होंने जीवनभर हिन्दू धर्म ,संस्कृति, हिन्दी भाषा, हिन्दुओं के श्रद्धा केन्द्रों तथा कृषि तंत्र ऋषि तंत्र का आधार गाय का, हिन्दू विधि-विधाओं का विरोध किया (देखें, स्वामी संवत् सुबोध गिरि (स्व. डा. हरबंसलाल ओबराय समग्र, भाग एक (बीकानेर, 2010। पृ. 19) इसमें सन्देह नहीं है कि विश्व के महानतम अस्तित्वों के देश भारत में वर्तमान साल में नास्तिकता की लहर पं. नेहरू द्वारा प्रारम्भ हुई। इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं कि उनके वंशज श्रीमती इन्दिरा गांधी तथा राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्वकाल में यही लहर चलती रही तथा आज भी सोनिया गांधी की कांग्रेसी सरकार उसका ही अनुसरण कर कर रही है। परन्तु भारत जैसे देश में इसका टीका रहना जरा भी सम्भव नहीं लगता।
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