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सब कुछ नहीं जाना जा सकता। जीवन की सीमा है, सृष्टि अनंत है। लेकिन जानने का अपना रस है। ज्ञान रसिक अथक जुटे रहते हैं। अकथ का पता तो भी नहीं चलता। पुराणों में शौनक का नाम बहुत आया है। पुराणों में शौनक प्रश्न करते हैं, सूत जी बोलते हैं। शौनक शानदार प्रश्नकर्ता हैं। मुण्डकोपनिषद् इन्हीं शौनक के मूलभूत प्रश्न से शुरू होती है। शौनक पहुंचे ऋषि अंगिरा के पास। पूछा, 'ऐसा क्या है? जिसे जान लेने के बाद सब कुछ जान लिया जाता है – कस्मिन्न विज्ञाते, सर्वम् इदं विज्ञातं भवति। प्रश्न रोचक है। जिज्ञासा बड़ी है। हजारों विषय हैं। सौरमण्डल में ही अनेक रहस्य हैं। पृथ्वी के भीतर तमाम रहस्य छुपे हुए हैं। दिक्-काल की परिधि बड़ी है। हम अकिंचन हैं। अपने गांव नगर की सड़कें भी ठीक से नहीं जानते। लेकिन शौनक विज्ञाता हैं तो भी आसान रास्ता चाहते हैं। ऐसा कोई एक तत्व जरूर होगा जिसे जानकर बाकी सब 'विज्ञातं भवति- जाना हुआ हो जाता' है। अंगिरा ने उत्तर दिया 'ब्रह्मवेत्ता दो विद्याएं बताते आए हैं- परा और अपरा।' यह उत्तर अंगिरा अपनी ओर से नहीं देते। पूर्वकाल की ज्ञान परम्परा का उल्लेख करते हैं। परा का अर्थ है- पार। अंग्रेजी का बियान्ड। अपरा का अर्थ है प्रत्यक्ष। बताते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष अपरा विद्या हैं। अर्थात् संसारी हैं। लेकिन परा से अविनाशी अक्षर का बोध होता है।
वेद भारतीय प्रज्ञा के प्राचीन शिखर हैं। यहां वेदों को ईश्वरीयवाणी कहा जाता है। लेकिन वैदिक पूर्वजों ने डंके की चोट पर वैदिक ज्ञान को संसारी बताया। संसार बेकार नहीं है। वैदिक ज्ञान में सांसारिक आनंद के ही काव्य मंत्र हैं। शंकराचार्य ने जगत को मिथ्या और ब्रह्म को सत्य कहा था। जगत् को मिथ्या समझने के ज्ञान के लिए भी जगत जरूरी है। सुख क्षण भंगुर है। इसे समझने के लिए भी सुख चाहिए। सुख और दुख की अनुभूति इसी संसार में होती है। मिथ्या को सत्य समझने की मूर्खता के अनुभव भी सांसारिक हैं। योग, तप, ध्यान, त्याग, संन्यास आदि सारे सद्प्रयासों की कर्मभूमि यह संसार है। बंधन के दुख और मुक्ति का परमानंद यहीं घटित होता है। इस सबका बोध जरूरी है। निस्संदेह यह 'अपरा-विद्या' है, भौतिक ज्ञान है। लेकिन भौतिक ज्ञान या अपरा विद्या के चरम पर ही व्यर्थता का बोध होता है तब प्राण व्याकुल होते हैं, बेचैनी बढ़ती है। नदी में डूब रहे व्यक्ति को मुंह निकालकर सांस लेने जैसी गहन व्यथा। तब क्षर से अक्षर की यात्रा शुरू होती है। क्षण भंगुर दीप्ति से अनंत आलोक की ओर उड़ते हैं प्राण।
अक्षर अविनाशी है। इसीलिए उसका नाम अ-क्षर है। वही जानने से सबकुछ जाना हुआ हो जाता है। लेकिन अक्षर हमारी इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता। वेद ज्ञान प्राचीन अनुभूति है। वैदिक दर्शन में भी अक्षर अनुभूति के संकेत हैं। लेकिन अविनाशी का अनुभव बताया नहीं जा सकता। सुना सुनाया ज्ञान मुक्त नहीं करता। संसार मन और बुद्धि का खेल है। मन की ताकत बड़ी है। कह सकते हैं कि मन कार्यपालिका है और बुद्धि न्यायपालिका। न्यायपालिका के पास अपना निर्णय लागू करने की शक्ति नहीं है। बुद्धि भी निर्णयों को लागू कराने के लिए मन पर ही निर्भर है। मन संकल्प का केन्द्र है, बुद्धि के पास विकल्प भी होते हैं। बुद्धिमानी को ठीक माना जाता है और मनमानी को गलत। लेकिन बुद्धिमानी तभी चलती है जब बुद्धि मन के रास्ते पूरे व्यक्तित्व की प्रेरणा बनती है। यजुर्वेद में मन को कल्याणकारी संकल्पों से जोड़ने वाले एक साथ 6 मंत्र आए हैं। हरेक मंत्र के अंत में आधारभूत स्तुति है 'मन: शिव संकल्पम् अस्तु- हमारा मन शिवसंकल्पों वाला हो।' आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी मन की अपरंपार शक्ति पर एकमत हैं। मानते हैं कि मनुष्य अपने मन से जैसा-जैसा मनन करता है, वह वैसा ही हो जाता है। मन मनन करता है और बुद्धि चिन्तन। चिन्तन में तर्क शक्ति होती है। मनन में भावशक्ति भी होती है।
मनोवैज्ञानिक मन को शरीर का ही सूक्ष्म हिस्सा मानते हैं। शरीर का अंतिम सूक्ष्मतर अंश मन है। इसको दूसरे सिरे से भी समझ सकते हैं। मन सूक्ष्म है, यही स्थूल होता हुआ शरीर बनता है। मनोविज्ञान में दोनों के लिए साझा शब्द है- साइको सूमैटिक। साइको मन है, सूमो बाड़ी है। दोनो एक साथ साईकोसूमो – मन शरीर हैं। ऋषियों ने इसका सम्यक विभाजन किया था। उन्होंने शरीर को अन्नमय कोष और इसकी अन्तर्वस्तु को मनोमय कहा। मन का प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर का मन पर। श्रद्धाराम फुल्लौरी ने 'ओम जय जगदीश हरे' वाला आरती गीत लिखा था। इसकी एक पंक्ति ध्यान देने योग्य है जो ध्यावे, फल पावे, दुख विनशे मन का कष्ट मिटे तन का। कष्ट शरीर को होता है और दुख मन को। मन दुखी हो तो शरीर ढीला और भारी हो जाता है। शरीर कष्ट में हो तो मन के तल पर दुख आते हैं। पतंजलि ने शरीर के रास्ते मन और उसके पार की यात्रा का योग मार्ग बताया है। भक्ति दर्शन में मन के रास्ते व्यक्तित्व रूपांतरण का विज्ञान है। आधुनिक मनोविज्ञान 'पाजीटिव थिकिंग- सकारात्मक सोच पर जोर देता है। सकारात्मक सोच मन स्वस्थ करती है, मन के प्रभाव में शरीर भी स्वस्थ रहता है लेकिन बुद्धिजगत में तर्क होते हैं। सकारात्मकता धरी रह जाती है। ऋषियों ने सकारात्मक चिन्तन की जगह आस्तिकता और श्रद्धा पर जोर दिया।
श्रद्धा की शक्ति बड़ी है। पाजीटिव थिकिंग या सकारात्मक सोंच की सीमा है। मनोवैज्ञानिकों के निष्कर्ष आधुनिक हैं, सही भी हैं लेकिन पूर्ण नहीं हैं। उपनिषद् के ऋषियों ने मन के अन्तर्जगत् में बैठकर तत्व शोध किए थे। मुण्डकोपनिषद् में (2.10) कहते हैं 'मनुष्य जिस जिस लोक की इच्छा शुद्ध अंत:करण से करता है, जो जो कामनाएं करता है, वह उन लोकों व सारी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। ऐश्वर्यकामी को चाहिए कि वह आत्मज्ञ से जुड़े।' यहां मन की ताकत से समस्त सुख प्राप्ति की मनोवैज्ञानिक स्थापना है लेकिन आत्मज्ञ की शरण में जाने का संदेश भी है। सुख क्षणिक है। आते हैं, जाते हैं। कामनाएं अनन्त हैं। एक पूरी होती है, दूसरी प्रतीक्षारत है। पूर्ण कामना भी स्थायी सुख नहीं देती। अपूर्ण कामनाएं स्थायी तनाव देती हैं। जान पड़ता है कि कार सुख देगी। जब तक नहीं होती, तब तक सुखद-तनाव देती है। जब हो जाती है तो ढेर सारी कामनाएं अपनी सूची लेकर आ जाती हैं। मन कामना का केन्द्र है। वह कामनाएं पूरी करवाने की ऊर्जा देता है लेकिन कामनापूर्ति तृप्ति नहीं देती। आत्मबोध से युक्त आत्मज्ञ यह बात जानते हैं। इसीलिए संकेत हैं कि शुद्ध मन की शक्ति से कामनाएं पूरी होती रहेंगी लेकिन आत्मज्ञ की सेवा भी करो।
ओशो-रजनीश विरल चिन्तक थे। दर्शन शास्त्र के विद्वान। उन्होंने मुण्डकोपनिषद् के इस सूत्र पर टिप्पणी की थी, 'मुण्डकोपनिषद् का यह सूत्र एकदम गलत है, आधारभूत रूप से गलत है बिल्कुल विक्षिप्तापूर्ण है। किसी पागल ने कहा होगा।' उन्हें शुद्ध अंत:करण शब्द पर आपत्ति है। कहा है कि शुद्ध अंत:करण में कामनाएं ही नहीं होती। उपनिषद् में शुद्ध अंत:करण का अर्थ है – पूरी निष्ठा से। अंत:करण कामनाओं का क्षेत्र है। हजारों कामनाएं होती हैं। परिश्रमी मनुष्य अपनी चुनिंदा कामनाओं को छांटकर पूरी ऊर्जा लगाते हैं। ऋषि का संदेश है कि अविभाजित अंत:करण से हम जो-जो कामनाएं करते हैं, वे पूरी होती हैं। लेकिन ऋषि आगे जोड़ता है 'आत्मज्ञ की सेवा करो।' आत्मज्ञ विषय विशेषज्ञ नहीं है। आत्मज्ञ आत्मा साक्षात्कारी है। उसकी सेवा में उपनिषद् घटता है। उपनिषद् अकेले नहीं घटता। आचार्य और शिष्य की अद्वय प्रीति, प्रज्ञा और प्रबोधन में ही अक्षर की अनुभूति होती है। संसार में जानने को बहुत कुछ है। लेकिन ऐसे ज्ञान के उपयोग की सीमा है। ऐसा ज्ञान क्षर से क्षर की यात्रा है और आत्मज्ञ का साथ संस्पर्श क्षर से अक्षर की उड़ान है। तब सब कुछ जाना हुआ हो
जाता है।
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